ये राजघराना भाजपा के लिए बनेगा मुसीबत ! जानें क्या है तिपरा मोथा
Tripura Assembly Election: तिपरा मोथा करीब 30 फीसदी जनजातीय आबादी के लिए एक अलग राज्य 'ग्रेटर त्रिपरा लैंड' बनाने की बात कर रही है। जो भाजपा के लिए वोटिंग के दौरान बड़ी चुनौती बन सकती है।
घोषणा पत्र जारी करते हुए भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा
Tripura Assembly Election: पांच साल पहले जब भारतीय जनता पार्टी ने त्रिपुरा में वाम दलों के 25 साल पुराने किले को ढहा दिया था, तो उस वक्त वह पूर्वोत्तर की राजनीति की बेहद बड़ी घटना थी। एक बार फिर उसी त्रिपुरा में 16 फरवरी को वोटिंग होने जा रही है। लेकिन इस बार भाजपा के लिए परिस्थितियां अलग हैं। एक तो वह सत्ता में हैं और उसके पक्ष में वाम दलों के 25 साल की सत्ता विरोधी लहर नहीं है। दूसरे, उसके सामने अपने 5 साल के काम के सहारे जनता का दोबारा भरोसा हासिल करने की चुनौती है। साथ ही उसे कांग्रेस-वाम दलों के गठबंधन के साथ एक नई पार्टी की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है। जिसका नाम तिपरा मोथा है। जो कि एक जनजातीय पार्टी है और उसकी कमान त्रिपुरा राघराने के रॉयल प्रिंस प्रद्योत ब्रिक्रम माणिक्य देवबर्मा के हाथ में हैं।
कौन है तिपरा मोथा
असल में इन चुनावों में तिपरा मोथा ने ग्रेटर त्रिपुरालैंड का नारा दिया है। तिपरा मोथा करीब 30 फीसदी जनजातीय आबादी के लिए एक अलग राज्य 'ग्रेटर त्रिपरा लैंड' बनाने की बात कर रही है। और त्रिपुरा के चुनाव में जनजातीय वोट बेहद मायने रखते हैं। साल 2018 के विधानसभा चुनाव में जनाजीतय वोटों का साथ भाजपा को मिला था। उस वक्त भाजपा ने इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा,आईपीएफटी के साथ गठबंधन किया था। लेकिन अब तिपरा मोथा ने जनजातीय आबादी के लिए अलग से ग्रेटर त्रिपरा लैंड की मांग कर भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है। क्योंकि अगर जनजातीय वोट का बड़ा हिस्सा तिपरा मोथा के तरफ शिफ्ट हुआ तो भाजपा के लिए चुनावी समीकरण बिगड़ सकते हैं।
2018 में भाजपा और लेफ्ट में थी काटें की लड़ाई
साल 2018 के चुनाव में 60 सदस्यों वाली विधान सभा में भाजपा को 36 सीटें मिली थीं। और उसके सहयोगी आईपीएफटी को 8 सीटों मिली थीं। जबकि लेफ्ट को 16 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। सीटों से 2018 में भाजपा और लेफ्ट के बीच हुई कांटे की लड़ाई की तस्वीर साफ नहीं होती है। लेकिन अगर वोट शेयर को देखा जाय तो यह पूरी तरह से साफ हो जाती है। दोनों के बीच केवल एक फीसदी वोट का फासला था। भाजपा को जहां 43.59 फीसदी वोट मिले थे वहीं सीपीएम को 42.22 फीसदी वोट मिले थे। जबकि सीपीआई को 0.82 फीसदी वोट मिले थे। कांग्रेस को केवल 1.79 फीसदी वोट मिला था। जाहिर है चुनाव में हारने के बाद भी सीपीएम के वोट में बड़ी गिरावट नहीं आई थी और भाजपा को कांग्रेस के वोट बैंक के शिफ्ट होने का फायदा मिला था।
बंगाल में नहीं दिखा असर, वोटकटवा बनेगी तिपरा मोथा
ऐसा पहली बार नहीं है जब वाम दल और कांग्रेस विधान सभा चुनाव में हाथ मिला रहे हैं। इसके पहले पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस और वाम दल हाथ मिला चुके हैं। लेकिन वह गठबंधन न तो ममता बनर्जी को सत्ता से रोक पाया और न ही भाजपा को दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनने से रोक पाया। ऐसे में त्रिपुरा में क्या असर होगा इसका पता तो 2 मार्च को चलेगा, जब काउंटिग होगी। लेकिन इस बीत तिपरा मोथा अगर वोटकटवा बनती है तो वह किंग मेकर की भूमिक निभा सकती है।
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