इंदिरा गांधी के खिलाफ खड़गे ने की थी बगावत, आखिर गांधी परिवार ने क्यों जताया भरोसा
सवाल यह है कि जब मल्लिकार्जुन खड़गे भी गांधी परिवार(इंदिरा गांधी के खिलाफ) से बगावत कर चुके थे तो सोनिया-राहुल और प्रियंका गांधी ने उन पर भरोसा क्यों जताया।
अगर राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने आलाकमान को चुनौती ना दी होती तो शायद मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष के लिए चुनावी पर्चा नहीं दाखिल करते। अशोक गहलोत ने जब कई तरह की शर्तें थोप दी तो दिग्विजय सिंह ने पर्चा लेने का ऐलान किया। हालांकि वो तब पीछे हट गए जब मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम सामने आने लगा। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कुल तीन लोगों ने पर्चा भरा जिसमें शशि थरूर और के पी त्रिपाठी का नाम शामिल था। हालांकि मुकाबला खड़गे और थरूर के बीच हुआ और बाजी खड़गे ने मारी। लेकिन जब हम अशोक गहलोत, मल्लिकार्जुन खड़गे, बगावत और आलाकमान की करते हैं तो खड़गे ने भी बगावत की थी। खड़गे ने सोनिया गांधी की सास, राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी के खिलाफ की थी। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर गांधी परिवार ने उनके नाम पर मुहर क्यों लगा दी।
लगातार 32 साल तक नहीं हारे चुनाव
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खड़गे ने इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत क्यों की उसे समझने से पहले उनकी राजनीतिक यात्रा को समझना जरूरी है। उनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि 1972 से लेकर 2004 तक उसी सीट पर जीत हासिल की जहां से राजनीतिक का ककहरा सीखा। लगातार 32 साल तक वो उसी सीट से जीत का झंडा बुलंद करते रहे। लेकिन कहा जाता है कि ना कि राजनीति में कभी ना कभी ऐसा मौका आता है जिसमें शख्सियतें भूल कर बैठती हैं या उन्हें लगता है कि जिस मकसद को हासिल करने के लिए वो आए थे उसे हासिल ना कर सके। मल्लिकार्जुन खड़गे के राजनीतिक करियर में तीन ऐसे मौके आए जब वो सीएम बनते बनते रह गए। लेकिन कांग्रेस के लिए मन में किसी तरह मसोस नहीं था। वो अखम पार्टी के साथ बने रहे। लेकिन इसके इतर 1979 में उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत की और पार्टी से अलग हो गए। दरअसल मामला देवराज उर्स से जुड़ा था।
देवराज उर्स के लिए इंदिरा गांधी से बगावत
देवराज उर्स, खड़गे के राजनीतिक गुरु थे। बीदर में जन्मे खड़दे 1969 में कांग्रेस का हिस्सा बन चुके थे। 1972 के चुनाव में गुरमितकल सीट से अपने मेंटोर के सुझाव पर चुनाव लड़े और जीत भी गए। उनकी जीत इसलिए भी अहम थी क्योंकि परंरागत तौर पर उस सीट पर अगड़ी जातियों का कब्जा था। लेकिन जीत की वजह से वो कर्नाटक की राजनीति का चेहरा बन गए। राजनीतिक सफर में साल 1979 में जब देवराज उर्स का इंदिरा गांधी से मतभेद हुआ तो वो अपने गुरु के लिए कांग्रेस छोड़ दी। हालांकि उनकी दूरी कुछ समय तक के लिए ही रही। देवराज उर्स भी अपने लिए रास्ता तलाश चुके थे। 1980 के लोकसभा चुनाव में लड़ाई लड़ी लेकिन कामयाबी नहीं मिली और उनके साथ गए लोग भी धीरे धीरे अलग होते गए। ऐसी सूरत में खड़गे ने एक बार फिर कांग्रेस का दामन थाम लिया और उसके बाद से लेकर आजतक गांधी परिवार के साथ हर सुख दुख में खड़े रहे।
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