कहानी गमछे की: यूपी-बिहार की शान, ग्लोबल हुई पहचान, बॉलीवुड में भी बढ़ा मान, दिलचस्प है गमछे का इतिहास

Gamcha History in Hindi: गमछा हज़ारों साल से शान और आत्मसम्मान का प्रतीक रहा है। जो लोग गमछे को किसी पिछड़े समाज से जोड़कर देखते हैं उन्हें शायद ये नहीं पता है कि गमछे की हमेशा से अपनी अलग संस्कृति और जुदा परंपरा रही है। गमछे का जिक्र वेद पुराण में भी है। गमछे के जितने रूप हैं उतने ही तर्क इस शब्द की उत्पत्ति को लेकर हैं।

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History and Evolution of Gamcha

History of Gamcha in Hindi (गमछे का इतिहास): समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party)के मुखिया और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Election 2024) के इस महासमर में कुछ अलग अंदाज में नजर आ रहे हैं। अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav Lifestyle) जो अमूमन सफेद कुर्ता पायजामे, काली सदरी और लाल टोपी में नजर आते थे, इन दिनों उनके गले से गमछा (Gamcha Style) भी लटका दिख रहा है। जब उनसे कुछ पत्रकारों ने गमछे को लेकर सवाल पूछा तो उन्होंने कहा कि गमछा वाराणसी (Varanasi) में बनता है और इसे वहां के यादव लोग इस्तेमाल करते हैं। अखिलेश ने यह भी कहा कि कॉटन का यह गमछा इलेक्शन में बहुत काम आता है, पसीना भी पोंछ लो और हाथ भी साफ कर लो।
वाकई गमछे के कई उपयोग हैं। गमछा ऐसी चीज है जिसे सिर्फ डेढ़ मीटर के कपड़े का टुकड़ा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। यह गमछा हज़ारों साल से शान और आत्मसम्मान का प्रतीक रहा है। अगर यूं कहें कि जो दर्जा मां के आंचल का है, वही पिता के गमछे का भी है, तो यह कतई गलत ना होगा। मां का आंचल बच्चों के लिए जमीन है तो पिता का गमछा माथे के ऊपर का आसमान। यह गमछा भारत के कुछ हिस्सों में लोगों के पहनावे का सबसे खास सामान है। आज भी यूपी या बिहार का कोई ग्रामीण घर से बाहर निकलता है तो उसके कंधे या सिर पर गमछा जरूर होता है। जिस प्रकार राजा की शोभा उसके सिर के ताज में होती है उसी तरह से गंवई आदमी के लिए गमछा ही उसका मुकुट है।
यूपी में बलिया के रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार अमृत तिवारी कहते हैं कि, 'पूर्वी यूपी और बिहार में शादी के बाद एक प्रथा होती है जिसे गौना कहते हैं। गौना से पहले अगर किसी लड़की का सुहाग मर जाए तो उसकी निशानी के तौर पर उसका गमछा लेकर लड़के के घरवाले अपनी बहू को विदा कराने पहुंचते हैं। इसी क्षेत्र में दशकों पहले ऐसा भी रिवाज था कि अगर किसी शादी ब्याह के न्योते में लोग नहीं जा पाते तो नाऊ(हजाम) के हाथों अपना छाता और गमछा भेजते थे। गमछा वहां अपने मालिक का प्रतिनिधित्व करता था।'
मोटिवेशनल स्पीकर और करियर कोच अवध ओझा हमेशा गले में गमछा डाले नजर आते हैं। वो कहते हैं कि, 'गमछा मेरी पर्सनेलिटी का ही एक हिस्सा है। मेरा यह गमछा मुझे यह याद दिलाता है कि जमीन से कभी नहीं हटना है। मैं गमछा इसलिए पहनता हूं, ताकि मुझे पता रहे कि मेरी शुरुआत जमीन से हुई है। क्योंकि जो जमीन से उठ जाता है, उसका गिरना निश्चित है।' अवध ओझा आगे बताते हैं कि आज कल लोग ऐसे हो गए हैं कि अगर वे किसी को गमछा पहने हुए देख लें, तो वे उसे देहाती समझते हैं। हमेशा सिर पर गमछा लपेटे रहने वाले और सोशल मीडिया पर 'गमछा क्रांति' कर चुके युवा कवि नीलोत्पल मृणाल कहते हैं कि, 'गमछा यूपी और बिहार की संस्कृति से जुड़ा है। इसे सम्मान मिलना चाहिए। हालांकि आज भी समाज का बहुत बड़ा वर्ग गमछे को गांव वालों से या फिर मजदूरों से जोड़कर देखता है।'
जो लोग गमछे को किसी पिछड़े समाज से जोड़कर देखते हैं उन्हें शायद ये नहीं पता है कि गमछे की हमेशा से अपनी अलग संस्कृति और जुदा परंपरा रही है। मजदूर हो या किसान या फिर किसी भी तरह का कामगार श्रमिक, कठिन-से-कठिन काम की शुरुआत करने से पहले ये लोग सिर पर गमछे को कसकर बांधते हैं। दरअसल यह गांठ नहीं संकल्प होती है। संकल्प उस काम को पूरा करने जिसे हाथों में लिया है। कुछ मेहनतकश श्रमिक गमछे को कमर में बांधते हैं। कमर में बांधने के पीछे वैज्ञानिक कारण ये है कि इससे शरीर में मौजूद रक्त में दबाव बनता है जो सीधे दिमाग तक पहुंच मन में जोश भर देता है।
टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार अक्षय शुक्ला के मुताबिक शादी के बाद विदा होती बेटी पिता के सीने से लगकर रोती है। पिता अपने गमछे से उसके आंसू पोछता है। यह गमछा एक प्रतीक है। भरोसे का। पिता इसके ज़रिए जताता है कि आगे की ज़िंदगी में भी आंसू की जगह नहीं होगी। अगर आंसू आए, तो पिता उठ खड़े होंगे।

कहां से आया गमछा शब्द

अपने अंदर ढेरों भाव समेटे गमछे का बेहद पुराना और गौरवशाली इतिहास रहा है। गमछे का जिक्र वेद पुराण में भी है। गमछे के जितने रूप हैं उतने ही तर्क इस शब्द की उत्पत्ति को लेकर हैं। कोई कहता है कि गमछे की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है तो कुछ का मानना है कि यह बंगाली भाषा से निकला है। संस्कृत के पैरोकार बताते हैं कि संस्कृत भाषा में एक शब्द है अङ्गोञ्छन या अङ्गोञ्छ। इसका अर्थ है अंगों को पोंछने के काम में लिया गया वस्त्र। इसी अङ्गोञ्छन को हिन्दी भाषा में अंगोछा कहा जाने लगा। अंगोछा से गोंछा या गोमछा हुआ और फिर यह हो गया गमछा। छोटे गमछे को गमछी कहते हैं। दूसरी ओर कुछ लोगों का मानना है कि गमछा बंगाली के गामुसा शब्द से बना है। यहां गा मतलब होता है शरीर और मुसा मतलब पोंछना। असामी में गमोसा कहा जाता है। बहरहाल इसकी उत्पत्ति चाहे जिस शब्द से हुई हो, आज यह तीन नामों से सबसे ज्यादा प्रचलित है- गमछा, अंगौछा और अंगस्त्रम।

वेद-पुराण में गमछे का जिक्र

अगर सनातन हिन्दू वेद पुराणों का संदर्भ लिया जाए तो गमछा सृष्टि की संरचना करने वाले भगवान ब्रह्मा सहित दूसरे देवी-देवताओं का महत्वपूर्ण अंग वस्त्र रहा है। यानि कि वैदिक काल, सतयुग, द्वापर, त्रेता और अब कलयुग तक के जितने भी देवगण सनातन हिन्दू परम्पराओं में रहे हैं, उन सभी का मुख्य अंगवस्त्र पीतांबरी गमछा रहा है। और तो और मान्यता है कि सृष्टि की उत्पत्ति काल में अंधकार से ओंकार में लाने वाले ढोल जिसकी संरचना महादेव-पार्वती ने की थी, उस ढोल को भी पीताम्बरी अंग वस्त्र से ढक कर रखा जाता है। चर्यापद के समय से ही पारंपरिक लोक गीतों में गमछा के अनगिनत संदर्भ हैं। योगी रूप में बैठे भगवान गौतम बुद्ध गांधार मूर्तिकला शैली की सबसे उत्कृष्ट मूर्ति मानी जाती है। इनमें से कई मूर्तियों में उन्हें गमछा लपेटे भी देखे जा सकते हैं।

हिंदू धर्म में गमछे का महत्व

हिंदू कर्मकांड पद्धति में गमछा एक अहम अंग वस्त्र माना गया है। आचार्य पंडित विद्यासागर ओझा इसके बारे में कहते हैं, ‘गमछा हिंदू धर्म के कर्मकांड पद्धति में शुभ कार्यों में बाएं कंधे पर होता है और श्राद्ध कर्म में दाहिने पर। क्योंकि हम दाहिने हाथ से गमछे को बाएं कंधे पर सहज स्थिति में रख सकते हैं। लेकिन दाहिने हाथ से गमछे को दाहिने कंधे पर रखना ज़रा असहज है। श्राद्ध क्रिया में दाहिने कंधे पर गमछे का होना आदमी के असहज स्थिति में होने का परिचायक है। कोई भी पूजा-पाठ अनुष्ठान हो या किसी से आशीर्वाद लेना हो तो सर पर गमछा होना अनिवार्य है। इससे प्राप्त होने वाली उर्जा क्षीण नहीं होती है।

झगड़े भी रुकवाता है गमछा

बंगाल के कपड़ा कलाकार और साहित्यकार शफीकुल कबीर चंदन ने अपनी किताब गमछा चरित कथा में लिखा है कि गमछे की उत्पत्ति सिंधु घाटी और मिस्र की प्राचीन सभ्यताओं में हुई थी। असम में वैष्णव मठों के गर्भगृह को गमोसा से सजाया जाता है और बिहू के समय नर्तक गमोसा पहनते हैं। चकमा, मरमा, गारो, मेच और अन्य आदिवासियों के लिए, यह एक पवित्र कपड़ा माना जाता है। लीरम फी, जो मणिपुर का पारंपरिक स्कार्फ है, उसके जिक्र 200 ईसा पूर्व मिलता है।
मणिपुर का चर्चित मैतेई समाज और अन्य पहाड़ी जनजातियों के बीच गमछा बेहद शुभ माना जाता है जिसका हर शुभ कार्य में आदान-प्रदान होता रहा है। गमछे को युद्ध के दौरान शांति का प्रतीक माना जाता था। वहीं जौनसारी समाज की महिलाएं गमछे के स्वरूप के आकार का ढान्टू अपने सिर पर धारण करती हैं, जो कई झगड़ों व वैमनस्य को चुटकियों में सुलझा देता है।

शादी ब्याह में गमछे का किरदार

गमछा यूपी बिहार की शादियों में काफी अहम किरदार निभाता है। भोजपुरी साहित्यकार मनोज भावुक कहते हैं कि, 'आज भी पूर्वांचल क्षेत्र का कोई व्यक्ति अपनी बेटी के लिए लड़का देखने जाता है और लड़के का पिता उसे अपनी हैसियत के अनुरूप नहीं पा कर रिश्ते के लिए मना कर देता है। विवश होकर लड़की का पिता आपने माथे से गमछे की पगड़ी को उतारता है और लड़के के पिता के पैरों में रख देता है। समाजिक परंपरा के मुताबिक लड़के के पिता की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उस गमछे का मान रखे और इस रिश्ते को अपनी स्वीकार्यता दे।' मणिपुर जैसे नॉर्थ ईस्ट के राज्य में दुल्हा गमछा जरूर पहनता है। दूल्हे को उसके ससुराल वाले गमछा पहनाते हैं।
पत्रकार अमृत तिवारी बताते हैं कि, 'यूपी और बिहार की शादियों में लावा मेराई नाम की एक प्रथा होती है। इसे दुल्हन का भाई निभाता है। दुल्हन का भाई फेरे के वक्त एक गमछे से धान के बीज बहन के आंचल में देता है। कुछ शादियों में इमली घोंटाने की एक प्रथा होती है जिसमें गमछे का इस्तेमाल होता है। वही गमछा फेरों के वक्त दूल्हा अपने सिर पर भी बांधता है।'

भारत की राजनीति और गमछे का तालमेल

राजनीति में भी गमछे का बड़ा महत्व है। छोटे शहरों या कस्बों में यूं तो गमछा बेहद आम है, फिर भी कोई युवा जब तैयार होकर गले में गमछा डालकर बाजार में निकलता है तो लोग कहते हैं कि देखो ज्यादा नेता बन रहा है। दरअसल देश के तमाम हिस्सों, खासतौर पर यूपी-बिहार के ज्यादातर उभरते नेता या फिर स्थापित नेता गमछा जरूर रखते हैं। अलग-अलग विचारधारा के नेताओं के गमछे का रंग भी अलग होता है। मसलन दक्षिणपंथी विचारधारा वाले नेता भगवा गमछा रखते हैं तो वहीं वामपंथी लाल गमछा। बहुजन समाज के नेता नीला गमछा प्रेफर करते हैं तो किसान नेता हरा गमछा डाले दिखते हैं। लंबे समय से बड़े से बड़े नेता के गले में गमछा दिखता रहा है। मौजूदा दौर में पीएम नरेंद्र मोदी भी अकसर मणिपुरी गमछे में दिखते हैं।

साहित्यकारों के लिए खास है गमछा

गमछा भारतीय उपमहाद्वीप में सामुदायिक जीवन का अहम हिस्सा है। दैनिक जीवन और लोक कथाओं में गमछा एक तकिया कलाम की तरह बुना हुआ है। असम के चाय बागान में काम करने वाले श्रमिकों के लोक गीतों से लेकर स्वदेशी और प्रवासी साहित्यकारों की रचनाओं तक में रचा बसा है। अपने बहुचर्चित उपन्यास अमर मेयेबेला (माई गर्लहुड, 1998) में बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने ग्रामीणों को गमछा का उपयोग करके मक्खियों और मच्छरों को अपनी पीठ से हटाते हुए देखने के बारे में लिखा है। इसी उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि कैसे महिलाएं अपने दरवाजे पर पुरुषों को गमछे में बांधकर चावल देती हैं। यह केवल ग्रामीण साहित्य तक ही सीमित नहीं है। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता अमिताव घोष ने अपने उपन्यास द हंग्री टाइड (2004) में गमछे के कई संदर्भों को दर्शाया है। एक जगह इस उपन्यास की नायिका पियाली, जो कि एक भारतीय अमेरिकी समुद्री जीवविज्ञानी है, याद करती है कि कैसे उसके अप्रवासी पिता ने भारत में अपने जीवन की निशानी के रूप में अपना गमछा सुरक्षित रखा था।
भारत में आजकल जितने भी साहित्य सम्मेलन या साहित्य से जुड़ी गोष्ठियां होती हैं उनमें भी गमछा नजर आता है। यहां एक साहित्यकारों को गमछा देकर सम्मानित किया जाता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि अगर किसी कार्यक्रम में साहित्यकार को गमछे से सम्मानित नहीं किया तो वह बुरा भी मान जाते हैं। खैर इस बारे में कुछ रोचक किस्से फिर कभी।

गमछा तेरे कितने नाम

नॉर्थ ईस्ट से यूपी-बिहार और दक्षिण भारत तक में अलग-अलग राज्यों में गमछे को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, हालांकि इसका उद्देश्य और महत्व एक ही रहता है। उदाहरण के तौर पर मणिपुर में गमछे को खुदेई कहा जाता है। कॉटन से बने खुदेई कई तरह के होते हैं। इनमें से कुछ डेली यूज वाले होते हैं तो कुछ खास मौकों के लिए होते हैं। त्रिपुरा में गमछे को रिकुटु कहते हैं। रिकुटु त्रिपुरा के वयस्कों की पारंपरिक पोशाक का अनिवार्य हिस्सा है। असम में गमछे को गमोसा कहा जाता है जिसे पुरुष अपने कंधे पर डाले रहते हैं। यूपी-बिहार के कई हिस्सों में इसे गमछी भी कहा जाता है। यहां गमछी गर्मियों के मौसम में गांवो से निकल शहरी जनजीवन का भी प्रमुख हिस्सा बन जाता है। बात दक्षिण भारत की करें तो वहां गमछे को अंगवस्त्रम के नाम से जाना जाता है। केरल में गमछे को थोर्थ कहा जाता है।

कोरोना में बढ़ा गमछे का मान

कोरोना काल में पूरी दुनिया में त्राहिमाम मचा हुआ था। भारत में जब इस बीमारी से बचाने वाले सर्जिकल मास्क कम पड़ गए तो लोगों ने गमछे को ही अपना मास्क बना लिया। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम अपने संबोधन में लोगों से अपील की कि वो गमछे को मास्क की तरह इस्तेमाल करें। उसके बाद तो फिर क्या था। शहर हो या गांव, हर जगह लोग गमछा मुंह पर बांधे नजर आने लगे। गमछों की बिक्री में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी गई। जिस गमछे को जो कुछ लोग हीन भावना से देखते थे वो भी इसकी उपयोगिता के सामने नतमस्तक नजर आने लगे थे।

गमछे की वैरायटी

गमछे की जितनी उपयोगिता है उसी तरह इसकी तमाम वैरायटी भी है। सबसे पहले बिहार के गमछे की बात करें तो राजधानी पटना में बिहारत नाम से कपड़ों का ब्रांड चलाने वाले सुमति जालान बताते हैं कि गमछे आमतौर पर चार रंग के बनते हैं। लाल, गुलाबी, ऑफ व्हाइट और सफेद। बिहारी गमछे या तो सादे होते हैं या फिर चेक और धारियों वाले। बंगाल के गमछों में लाल रंग ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। ओडिशा और त्रिपुरा में गमछे हाथ से बुने जाते हैं। ओडिशा के गमछों पर वहां की इकत बुनाई की छाप दिखती है। जब आप दक्षिण की तरफ बढ़ेंगे तो वहां का गमछा, जिसे अंगवस्त्रम कहा जाता है, आपको कपास और रेशम दोनों का बना मिल जाएगा। रेशम के गमछे वहां उच्च समुदाय वाले पहनते हैं।

फैशन इंडस्ट्री में छाया गमछा

पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि भारत कई डिजाइनर्स, क्राफ्ट ऑर्गनाइजेशन और छोटे ब्रांड्स ने गमछे के नए डिजाइन पर खूब काम किया है। ब्रांड गाबा के को फाउंडर अनीथ अरोरा और चिनार फारूकी ने अपने डिजाइन्स में गमछे का खूब इस्तेमाल किया था। अनीथ अरोरा ने साल 2010 में पेरो नाम से एक और अपैरल ब्रांड शुरू किया था। यहां भी उन्होंने गमछे को शामिल किया था। साल 2015 में कंगना रनौत ने पेरो के लिए रैंप वॉक किया था जिसमें वह पेरो गमछे में दिखी थीं।
ई कॉमर्स वेबसाइट्स पर आपको कई ऐसे छोटे ब्रांड मिल जाएंगे जो गमछा साड़ी बेच रहे हैं। इनमें से ज्यादातर कोलकाता के ब्रांड्स हैं। कोलकाता के ये ब्रांड्स अपने डिजाइन में गमछे के साथ काफी प्रयोग कर रहे हैं। कोलकाता की एक डिजाइनर संयुक्ता रॉय गमछे के इस्तेमाल से मल्टीकलर साड़ी और सेपरेट्स बना रही हैं। यह कहना बिल्कुल गलत ना होगा कि अगर सही ढंग से इनकी ब्रैंडिंग हुई तो भारत का गमछा ग्लोबल फैशन स्टेटमेंट भी बन सकता है।

बॉलीवुड में गमछे का बवाल

गमछे को बॉलीवुड हमेशा से गंवई मानता आया है। फिल्मों में जब भी किसी गांव वाले को दिखाना हो तो उसके गले में गमछा डाल देते। हालांकि समय के साथ फिल्मों में गमछे की छवि भी बदली। धीरे-धीरे चंबल क्षेत्र के डाकुओं को भी गमछे में दिखाया जाने लगा। दिवंगत इरफान खान की पान सिंह तोमर हो या फिर सोन चिरैया, इन फिल्मों में हर डकैत को बंदूक के साथ गमछा लिये भी दिखाया गया। फिल्म बंटी और बबली में अमिताभ बच्चन पुलिस अफसर बने थे। वह भी हमेशा गमछा लिये रहते थे। पिछले कुछ सालों में सलमान खान, शाहरुख और अक्षय कुमार जैसे सुपरस्टार्स भी अपनी फिल्मों में गमछा डाले नजर आ चुके हैं।
अगर बात बॉलीवुड में गमछों की करें और अनुराग कश्यप का जिक्र ना हो तो यह बेईमानी होगी। अनुराग कश्यप ने गैंग्स ऑफ वासेपुर के जरिये गमछे को ग्लोबल-वस्त्र बनाने में एक प्रयोग किया है। अनुराग कश्यप का प्रयोग और प्रयास इसलिए भी साहसिक है कि उन्होंने गमछे को सांवरिया-टाइप इमेज से उबारा था। सांवरिया में गमछे ने नायक रणबीर कपूर को एक सेक्सीलुक में प्रस्तुत किया, तो वासेपुर ने इसी गमछे को टांगों से उठाकर कांधे पर टांग दिया। अनुराग कश्यप की तारीफ इसलिए भी होनी चाहिए क्योंकि उन्होंने गैंग्स ऑफ वासेपुर की स्पेशल स्क्रीनिंग के दौरान मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, प्रतीक बब्बर, अभय देओल यहां तक कि अभिनेत्री दीया मिर्जा जैसे फिल्मी सितारों तक के कांधे पर गमछे को टांगकर बॉलीवुड की हाई क्लास सोसाइटी की चोंचलेबाजी को एक खूंटी पर टांग कर रख दिया था।

..और अंत में गमछे से जुड़ी एक रोचक जानकारी

साल 2004 में नासा के अंतरिक्ष यात्री एडवर्ड माइकल फिंक जब Expedition 18 मिशन पर अंतरिक्ष पर गए थे तो अपने साथ असम का गमछा जिसे गमोसा कहा जाता है भी साथ ले गए थे। दरअसल फिंक ने मूल रूप से असम की रहने वालीं रेनिटा संग ब्याह रचाया था। अपने 6 महीने के इस मिशन में वह कई बार गमछा सिर पर बांध असम का बिहू डांस करते भी दिखे थे। फिंक जब अंतरिक्ष से धरती पर लौटे तो उन्होंने असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को वही गमछा बतौर सम्मान हवाले किया था, जिसे वे अपने संग ब्रह्मांड की सैर पर ले गए थे। यह गमछा इस कारण से भी खास है, क्योंकि इस पर सुनीता विलियम्स सहित उन सभी छह अंतरिक्ष यात्रियों के दस्तखत हैं जो नासा के उस प्रोजेक्ट पर फिंक के साथ गए थे। यह गमछा सालों से असम के एक म्यूजियम में रखा गया है।
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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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