Heeramandi में दिखे घुंघरू UP के इस शहर की हैं शान, मुगलों की राजसी शान कैसे बन गई तवायफों की पहचान - पढ़ें घुंघरू की इस दिलचस्प कहानी में

History of Ghunghroo: हाल ही में संजय लीला भंसाली की वेबसीरीज हीरमंडी में तवायफों और घुंघरुओं की जुगलबंदी ने खूब तालियां बटोरी हैं। घुंघरू पहन शाही दरबार में दासियां और कनीजें मुजरा पेश करती थीं तो वहीं इसे रानी और राजकुमारियों ने भी अपनाया। कैसे हुई घुंघरू बांधने की शुरुआत? क्या है इसका इतिहास? कैसे घुंघरू ने ले लिया पायल का रूप?

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कहानी घुंघरू की (Explained History of Ghunghroo)

History of Ghunghroo: घुंघरू- ये नाम लेते ही कानों में छन-छन की आवाज़ सुनाई देने लगती है। घुंघरू शब्द नृत्य का सामान है तो वहीं ये भक्ति का प्रतीक भी है। मीरा बाई की सदियों पुरानी रचना- पग घुंघरू बांधि मीरा नाची, मै तो मेरे नारायण सूं, आपहि हो गई साची इस बात की तस्दीक करती है। वहीं तुलसीदास ने लिखा है- ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां। यहां पैंजनिया का मतलब भी घुंघरू से ही है। घुंघरू की झनकार में जितनी लयकारी है उतना ही पुराना और रोचक इसका इतिहास है। ये घुंघरू तमाम नृत्यशैलियों की जान है तो वहीं ये कभी तवायफों की पहचान भी थी। हाल ही में संजय लीला भंसाली की वेबसीरीज हीरमंडी में तवायफों और घुंघरुओं की जुगलबंदी ने खूब तालियां बटोरी हैं। घुंघरू पहन शाही दरबार में दासियां और कनीजें मुजरा पेश करती थीं तो वहीं इसे रानी और राजकुमारियों ने भी अपनाया। कैसे हुई घुंघरू बांधने की शुरुआत? क्या है इसका इतिहास? कैसे घुंघरू ने ले लिया पायल का रूप? घुंघरू से जुड़े ऐसे ही ढेरों सवालों के जवाब आपको नीचे मिल जाएंगे:

पुराणों में घुंघरूजैसे कि मान्यता है दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ रामायण और महाभारत जैसे हिंदुओं के वेद-पुराण ही हैं। घुंघरू का जिक्र हमारे वेदों में है। वाल्मिकी रामायण में घुंघरू या नूपुर का उल्लेख सीता के उस एकमात्र आभूषण के रूप में किया गया है जिसे लक्ष्मण उनके अन्य सभी परिधानों और आभूषणों से अलग पहचान सकते थे। वाल्मिकी ने सीता के घुंघरू का वर्णन इन शब्दों में किया है:

'चरणान्नुपुरम् भ्रष्टम् वैदेह्य रत्नभूषितम्

विद्युनमंडल संकशं पापत धरणीतले।'

वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि जब सीता को रावण बलपूर्वक ले जा रहा था तो उनकी पायल (नुपूर या घुंघरू) पृथ्वी पर गिर गयी थी। कालिदास अपने महाग्रंथों में इसी खोए हुए नूपुर पर जोर देते हैं। वह लिखते हैं कि जब राम सीता के साथ अयोध्या लौटे, तो वह उन्हें वह स्थान दिखाते हैं जहां से उन्हें उनकी खोई हुई पायल मिली थी। कालिदास लिखते हैं कि सीता के पैरों से दुखद अलगाव के कारण घुंघरू चुपचाप वहीं पड़े रहे।

इतिहास में घुंघरू सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर किसी भी दूसरी सभ्यता से जितनी भी कलाकृतियां और मूर्तियां पाई गई हैं उनमें अधिकतर महिलाओं को आभूषणों से लदा दिखाया गया है। ये कहना ज्यादा सही होगा कि भले इन कलाकृतियों और चित्रों में महिलाओं के तन पर वस्त्र ना हो पर आभूषण जरूर होते थे। इसके बाद आभूषणों के नाम मानव शरीर के उन अलग-अलग अंगों के नाम पर रखे गए हैं जिन्हें वे सजाते हैं। जैसे- नेकलेस को कंठीहार, ईयर रिंग्स को कर्णपात्र है, पैरों में पहनी जाने वाली पायल को पदंगदा या पदपाला नाम दिया गया। ऐतिहासिक दस्तावेजों से लेकर आज तक के मॉडर्न युग तक में हम शरीर के प्रत्येक हिस्से को सजाने के लिए कम से कम एक आभूषण पा सकते हैं। मिस्र की सभ्यता से जुड़े अभिलेखों में वर्णन है कि वहां की शाही महिलाएं घुंघरू पहना करती थीं।

दो जिस्म और एक जान हैं भारतीय नृत्य और घुंघरूघुंघरू या नूपुर आदिकाल से शास्त्रीय भारतीय नर्तकियों के आभूषणों में प्रमुख है। भारतीय नृत्य और नाटक में घुंघरू पहनने की प्रथा की अपनी परंपरा और महत्व है।

'चतुर्विधन्तु विज्ञानं देहस्याभरणं भूदैः

अवेध्यं बंधनीयं च प्रक्षेप्यरोपके तथा

प्रक्षेप्यं नूपुरम् विद्याद्वस्त्राभरण मेवच'

भरत मुनि द्वारा लिखे गए नाट्य शास्त्र की इन पंक्तियों में चार तरह के आभूषणों का जिक्र है। अवेध्या, बंधनीय, प्रक्षेप्य और अरोप्य। इनमें से प्रक्षेप्य का तात्पर्य नूपुर से है। भारत की लगभग सभी नृत्य शैली भरत के नाट्य शास्त्र से प्रेरित हैं। भरत नाट्यम हो या फिर कोई भी दूसरी नृत्य शैली घुंघरुओं का अलग ही महत्व है।

दरअसल भारतीय नृत्यों में अक्सर शरीर की अन्य गतिविधियों के साथ-साथ भारी पैरों की गतिविधियां भी शामिल होती हैं। एक नर्तक के अभिनय,आंखों, धड़ और अंगों की गति को नोटिस करना और उसकी सराहना करना आसान है लेकिन फुटवर्क को नोटिस करना इतना आसान नहीं हो सकता है। फुटवर्क वास्तव में लय की पेचीदगियों के साथ टखनों, पैर की उंगलियों, एड़ी, घुटनों और जांघों की जटिल गतिविधियों का संगठन होता है। यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा कि किसी नर्तक के संपूर्ण प्रदर्शन का सबसे अधिक भार उसके फुटवर्क पर होता है। नृत्य में घुंघरू का इस्तेमाल इसी कारण से आया। घुंघरू भारी पैरों की गतिविधियों पर देखने वाले का ध्यान खींचता है। घुंघरू नर्तक की गतिविधियों या भावों को बढ़ाता है और दर्शकों को जटिल फुटवर्क को ना सिर्फ देखने बल्कि सुनने पर भी मजबूर करता है।

भारतीय डांसर्स के लिए घुंघरू का महत्वभारतीय नर्तक आम तौर पर अपने घुंघरुओं को बहुत पवित्र मानते हैं। अपने किसी भी प्रदर्शन के लिए इसे अपने पैरों पर बांधने से पहले उनकी पूजा करते हैं। यह किसी भी नर्तक के जीवन का बहुत ही खास दिन होता है जब अरंगेत्रम या रंगप्रवेश (प्रथम) के लिए नए घुंघरू खरीदे जाते हैं। इसमें गेज्जे पूजा या सलंगई पूजा नाम से एक अनुष्ठान भी शामिल है, जहां गुरु, वरिष्ठ और शुभचिंतक एक शुभ दिन पर इकट्ठा होते हैं और देवता को घुंघरू चढ़ाते हैं।

प्रदर्शन करने के लिए मंच पर जाने से पहले, नर्तक पहले देवता और फिर गुरु को घुंघरू चढ़ाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं। फिर, नर्तक से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने घुंघरुओं को सुरक्षित रूप से रखे और इसे कभी भी लापरवाही से इधर-उधर न छोड़े, और निश्चित रूप से इसे किसी के साथ साझा न करे। लेकिन अगर किसी का अपना गुरु अपने घुंघरू शिष्य को सौंपता है, तो इसे आशीर्वाद और बड़ा सम्मान माना जाता है।

कैसे बांधते हैं घुंघरूपैरों में घुंघरू बांधने की कई विधियां हैं। अभिनय दर्पण और बाद के ग्रंथों के अनुसार, घुंघरू को गांठों के साथ नीले रंग की सूती डोरी पर बांधा जाना चाहिए। दाएं और बाएं पैर पर क्रमश: 100 और 200 घुंघरू घंटियां होनी चाहिए। आजकल घुंघरुओं की एक माला 50-200 घंटियों तक की होती है और सुविधा के लिए, इन घंटियों को चमड़े या सूती/मखमली पट्टे पर पंक्तियों में लगाया जाता है और नर्तकियों के टखने से बांध दिया जाता है। यह प्रथा भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसे नृत्यों में अधिक लोकप्रिय है।

कथक नर्तक और कुछ हद तक यक्षगान कलाकार अभी भी घुंघरू पहनने के पारंपरिक तरीके का पालन करते हैं। वे प्रत्येक पैर के लिए कम से कम 100 घंटियों का उपयोग करते हैं जो एक मजबूत लंबी सूती डोरी पर बंधी होती हैं। कथक में एक नया नर्तक 50 घंटियों के उपयोग से शुरुआत कर सकता है और जैसे-जैसे वह परिपक्व होगा और तकनीकी क्षमता में आगे बढ़ेगा, धीरे-धीरे इसमें और घंटियां शामिल होंगी। नर्तक के पैरों में जितनी अधिक घंटियां होंगी, नर्तक की विशेषज्ञता उतनी ही अधिक होगी। अपनी शिक्षा के अंत तक, वह प्रत्येक पैर पर 200 घंटियां संभालने में सक्षम हो जाएगी। पैरों में सूती धागे से बने घुंघरू बांधना अपने आप में एक कला है। इसे इस तरह से पहना जाना चाहिए कि प्रत्येक घंटी स्पष्ट रूप से दिखाई दे और स्ट्रिंग ठीक से पैर में फिट हो जाए। दरअसल स्ट्रिंग के बहुत तंग होने का मतलब है कि यह दर्दनाक हो सकता है और बहुत ढीला से यह टूट सकता है।

नाचने से संबंध के कारण घुंघरू ने ली पायल की शक्ल

जैसा कि आपने ऊपर जाना कि हमारे नृत्यशास्त्रों में घुंघरू का कितना ज्यादा महत्व है। इसी कारण ज्यादतर नर्तक और नर्तकियां घुंघरू बांधते हैं। समय के साथ घुंघरू नर्तकियों की पहचान बन गया। शाही दरबारों में नाचने वालीं दासियां घुंघरू पहनकर नाचती थीं। वक्त बदला तो घुंघरू की आवाजृ तवायफों के कोठों की पहचान बन गई। मुगल काल में तो रानियां भी घुंघरू पहनती थीं। लेकिन जैसे-जैसे घुंघरू की पहचान 'नाचने वालियों' से जुड़ती गई तो शाही महल की रानी और राजकुमारियों ने घुंघरू पहनना अपनी शान के खिलाफ समझा। उन्होंने घुंघरू उतार फेंके। उसके बदले में वो पैरों में अपेछाकृत छोटे घुंघरू बांधने लगीं। वही छोटे घुंघरुओं की लड़ी आज पायल या फिर पाजेब या एंकलेट कहलाती है। आसान भाषा में समझा जाए तो नर्तकियों की घुंघरू भारी पायल है तो आम स्त्री के पैरों की शोभा छोटे पायल हैं।

घुंघरू का समाजशास्त्रNoopura: Anklet in Indian Literature and Art के लेखक एस पी तिवारी अपनी इस किताब में लिखते हैं कि पहले महिलाएं घुंघरू या पायल इसलिए पहनती थीं कि वों अपनी मौजूदगी का ज्ञात करा सकें। तात्पर्य ये है कि जब महिलाओं कहीं आती जाती थीं तो उनके पैरों में बंधे घुंघरुओं की आवाज से मर्दों को पता चल जाता था। घुंघरू मर्द और औरत के बीच पर्दे की तरह काम करती थी।

कुछ समाजशास्त्रियों का एक तर्क यह भी है कि पहले समय में स्त्रियों को बहुत ही ज्यादा आदर व सम्मान दिया जाता था। विशेषकर स्त्रियों के आने पर लोग अपना चाल चलन व वस्त्र इत्यादि ठीक कर लिया करते थे। कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं जो उनके सम्मान को बढ़ाने के लिए समाज ने निर्धारित किये हों। तब उन्होंने यह निश्चित किया हो कि स्त्रियां कुछ घुंघरू या कुछ ऐसी चीज पैरों में पहने जिनसे उनके आने का पता समाज को लग सके।

कुछ लोगों का मानना है कि पुराने जमाने में औरते रात के अंधेरे में शौच के लिए घर से बाहर जाती थीं इसलिए वो पैरों में घुंघरू पहनती थीं ताकि घुंघरू कू आवाज से सांप बिच्छू जैसे जहरीले जीव दूर भाग जाएं। कुछ आदिवासी समुदाय भी इसी कारण से घुंघरू पहनते हैं।

बॉलीवुड में घुंघरूबॉलावुड ने भी घुंघरू को काफी तवज्जो दी है। आज भी फिल्म नमक हलाल का गाना पग घुंघरू बांध मीरा नाचती काफी पॉपुलर है। मुगल-ए-आज़म, पाकीज़ा, उमराव जान और देवदास जैसी कई फिल्मों में तवायफों के किरदार को जीवंत बनाने के लिए निर्देशकों ने घुंघरुओं का इस्तेमाल किया। 1983 में तो प्रकाश मेहरा ने घुंघरू नाम से फिल्म ही बना डाली थी। इस फिल्म में शशि कपूर, स्मिता पाटिल और सुरेश ओबरॉय मुख्य भूमिका में थे। पहले सुरेश ओबरॉय की जगह अमिताभ को साइन किया गया था लेकिन उन्हीं दिनों कुली फिल्म के सेट पर हुए हादसे के बाद अमिताभ के हाथ से ये फिल्म निकल गई थी। हालांकि बॉलीवुड ने भी घुंघरू को हमेशा तवायफों के नजरिये से ही पेश किया।

आज के दौर में घुंघरूआज भी घुंघरू को लोग नाच गाने का सामान समझते हैं। वैसे नर्तकियों के अलावा घुंघरू का उपयोग वर्तमान में केवल ग्रामीण और आदिवासी समुदायों द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए, लम्बाड़ी या बंजारा समुदाय की स्त्रियों के घुंघरू बहुत भारी होते हैं और पीतल के बने होते हैं। राजस्थानी आदिवासी महिलाएं चांदी के घुंघरू पहनती हैं, जो उनकी आदिवासी जड़ों का प्रतीक है। ओडिशा के दुरवा आदिवासी के मर्द और पुरुष भी घुंघरू पहनते हैं। इनके घुंघरू सूखे जंगली बीजों के बने होते हैं जो हिलने पर आवाज करते हैं। कर्नाटक में भी कुछ आदिवासी समुदाय के लोग पैरों में घुंघरू पहनते हैं। इस जनजाति के लोग देवी को प्रसन्न करने के लिए पैरों में घुंघरू बांध कर नाचते हैं और खुद पर कोड़े बरसाते हैं।

कैसे बनते हैं घुंघरू

घुंघरू का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयोग नृत्य में है। नृत्य के अलावा घुंघरू का प्रयोग छोटे बच्चों की पैजनी और कर्धनियों में प्रमुखता से होता है। दरवाजे व खिड़कियों के पर्दे तथा सोफे टेबल क्लॉथ, चादर आदि के किनारे में भी इनका बखूबी प्रयोग किया जाता है।। ज्यादातर घुंघरू पीतल और कांसे के बने होते हैं। इन धातुओं की गोल फलक के भीतर लोहे की छोटी-छोटी गोली होती हैं, जो झटके पड़ने पर बजती हैं।

घुंघरू की कई किस्में हैं, मसलन- दो कली, चार कली, छह कली, सीना बंद, सूरती, नागपुरी, कनपुरिया और चीनादाना आदि। चार कली और सीना बंद नृत्य के दौरान तथा सजावटी सामान व आभूषण के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, जबकि दो कली पालतू जानवरों के गले में बांधे जाते हैं। चार कली के सबसे छोटे जीरो नंबर के सौ घुंघरुओं का वजन करीब साठ ग्राम तथा सबसे बड़े 11 के सौ घुंघरूओं का वजन 750 ग्राम होता है। दो कली आकार तथा वजन में बड़े होते हैं, इसके मात्र छह घुंघरू ही करीब 500 ग्राम के होते हैं।

यूपी का ये जिला कहलाता है घुंघरूओं का शहर

भारती शास्त्रीय संगीत और नृत्य के चार घराने सैकड़ों साल से मशहूर हैं। इनमें आगरा घराना, लखनऊ घराना, बनारस घराना और लाहौर घराना शामिल थे। लाहौर अब पाकिस्तान का हिस्सा हो तला है। तबाकी के तीन घराने उत्तर प्रदेश में हैं। इस कारण सबसे ज्यादा घुंघरुओं की डिमांड भी इन्हीं जगहों पर थी। इसी के चलते घुंघरू निर्माण भी सबसे ज्यादा यूपी में होता है।

यूपी का एटा जिला घुंघरुओं का शहर कहलाता है। यहां पर जलेसर नाम की जगह है जहां सिर्फ घुंघरू बनाने का ही काम होता है। यहां के घरों में भट्ठियों पर पीतल को पिघलाकर उसे घुंघरू, घंटी व घंटे के रूप में ढाला जाता है। सैकड़ों वर्षों से यहां के लोग इस उद्योग में ऐसे रमे हैं कि उन्होंने इस काम के अलावा किसी और काम का प्रयास ही नहीं किया।

यहां के लगभग 3000 परिवार घुंघरू-घंटी की ढलाई से लेकर रिताई, कटाई, पॉलिश व पै¨कग के काम में लगे हैं। एटा के अलावा अलीगढ़ और हाथरस में भी घुंघरू उद्योग काफी बड़े पैमाने पर चलता है।

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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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