History Of Tea Pot: कभी हड्डियों से बनती थी चायदानी, चीनी अंदाज अंग्रेजों को खूब आया रास, काफी दिलचस्प है टी पॉट का इतिहास
History Of Tea Pot: भले चाय का 3000 सालों से पी जा रही है लेकिन चायदानी का इतिहास (History of Tea) मात्र लगभग 500 साल पुराना ही है। तो यहां कई सवाल उठते हैं, मसलन- लोग चायदानी से पहले चाय कैसे पीते थे? चायदानी कैसे बनी? (Who Invented Tea Pot) कैसे देखते ही देखते चायदानी ज्यादातर रसोई में नजर आने लगी।
History and Evolution Of Tea Pots
History And Evolution of Tea Pots: निदा फाज़ली का मशहूर शेर है- घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में, कई दिनों से चाय है कड़वी या अल्लाह। जी हां.. चाय, पानी के बाद दुनिया में सबसे अधिक पी जाने वाली चीज है। कुछ के लिए चाय आदत है तो कुछ के लिए ये इश्क से कम नहीं। चाय की प्याली के साथ ना जाने कितने मसले सुलझाए जाते हैं। अनगिनत रिश्ते बनाए जाते हैं। गिले शिकवे भुलाए जाते हैं। आज चाय जितनी आम है उसका इतिहास उतना ही ज्यादा खास है। दुनिया भर में लोग सदियों से चाय पीते आ रहे हैं। चाय पीने के लिए खासतौर पर चायदानी (History Of Tea Pot), जिसे अंग्रेजी में टी पॉट कहते हैं, का भी ईजाद हुआ। भले चाय का 3000 सालों से पी जा रही है लेकिन चायदानी का इतिहास (History of Tea) मात्र लगभग 500 साल पुराना ही है। तो यहां कई सवाल उठते हैं, मसलन- लोग चायदानी से पहले चाय कैसे पीते थे? चायदानी कैसे बनी? (Who Invented Tea Pot) कैसे देखते ही देखते चायदानी ज्यादातर रसोई में नजर आने लगी। आज हम विस्तार से जानेंगे चायदानी का इतिहास और समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे समय के साथ चायदानी के आकार और प्रकार बदलते गए।
पहले जानिए चाय का इतिहास (History Of Tea)
चाय का पौधा (कैमेलिया सिनेंसिस) सबसे पहले 3000 साल पहले दक्षिण-पूर्व चीन में खोजा और उगाया गया था। शुरू में चाय की पत्तियों को चबाया जाता था। बाद में चाय के पत्तियों को पीसकर उसका बारीक पाउडर बनाया जाने लगा। इस पाउडर को लाख या चीनी मिट्टी के स्टैंड पर रख कर ईंटनुमा आकार दिया जाता था। बाद में गर्म पानी में इंट के टुकड़े तोड़कर घोला जाता और फिर उसे पीया जाता था। यह सोंग राजवंश (960-1279) के दौरान था। समय के साथ चाय का स्वाद लेने का तरीका भी बदलता गया। पहली शताब्दी ईसा पूर्व के आते-आते चीन में लोगों ने चाय की पत्तियां उबालना शुरू कर दिया था। फिर भी 14वीं शताब्दी तक आज की तरह चाय पत्ती उबालकर पीने का चलन नहीं शुरू हुआ था।
चाय की ईंट
सबसे पहले कब हुआ चायदानी का जिक्र
14वीं शताब्दी के बाद चाय की पत्तियों को उबालकर पीने का चलन शुरू हुआ। जैसे-जैसे चाय पीने का ये तरीका चीन में पॉपुलर हुआ वैसे ही चायदानी की जरूरत भी महसूस होने लगी। इसके बाद ईजाद हुआ चाय बनाने का खास बर्तन, जिसे आज हम चायदानी कहते हैं। ये शुरुआती चायदानी बैंगनी ज़िशा मिट्टी और चीनी मिट्टी से बनाए गए थे। चायदानी का पहला लिखित प्रमाण युआन राजवंश (1271 - 1368) के दौरान मिलता है। युआन राजवंश के चीनी विद्वान सन डाइमिंग ने अपनी किताब में बैंगनी जिशा चायदानी का वर्णन किया है। वैसे आधुनिक चायदानी जैसा पात्र हजारों वर्षों से चीनी मिट्टी के बर्तनों में मौजूद हैं। हालांकि चायदानी जैसे इस पात्र का इस्तेमाल पानी या शराब पीने के लिए किया जाता था।
क्या होती है चायदानी (What is Tea Pot)चायदानी एक गोलाकार बर्तन है जिसका उपयोग गर्म उबलते पानी में चाय की पत्तियों को डालने के लिए किया जाता है। इसमें एक डालने वाली टोंटी होती है जहां से चाय डाली जाती है, एक ढक्कन, एक हैंडल और मुख्य बर्तन होता है। चायदानी आमतौर पर मिट्टी, चीनी मिट्टी, कांच या धातु से बने होते हैं। चायदानी का केवल एक ही उद्देश्य होता है - चाय बनाना।
Photo Credit: Victoria and Albert Museum, London
चायदानी का ईजाद (Invention of Tea Pot)
यांग-ह्सियेन मिंग हू हसी के लेखक चाउ काओ-ची के अनुसार, ईशिंग (यिक्सिंग) के कुम्हारों ने 16वीं शताब्दी की शुरुआत में चाय के बर्तन बनाना शुरू किया था। ईशिंग कुम्हार इतने प्रसिद्ध हो गए कि उनके चायदानी को पहले यूरोपीय चायदानी के मॉडल के रूप में परोसा जाने लगा। ये चायदानी छोटे, बड़े मुंह वाले अलग-अलग बर्तन थे। इसलिए, पुर्तगालियों ने चायदानी को 'बोकार्रो' नाम दिया, जिसका अर्थ है 'बड़ा मुंह।'
कई विद्वानों का मानना है कि चायदानी का मूल आकार चीनी मिट्टी की केतली और वाइन ईवर से प्राप्त हुआ है जो सत्रहवीं शताब्दी में जब चाय पहली बार यूरोप भेजी गई थी तब चीन से आई थी। हालांकि, एक अन्य सिद्धांत से पता चलता है कि चायदानी का आकार इस्लामी कॉफी के बर्तनों से आया है।
हिमालय क्षेत्र की चायदानी
17वीं शताब्दी से, फर्मेंट्ड काली चाय की पत्तियों को ईंट के आकार में ढाल कर चीन से हजारों मील दूर कठिन इलाकों से होते हुए तिब्बत, नेपाल और हिमालय तक ले जाया जाता था। इस काम के लिए सड़क का एक विशाल नेटवर्क विकसित हुआ जिसे 'टी हॉर्स रोड' के नाम से जाना जाता है, जो आज भी मौजूद है। 19वीं सदी में तिब्बत औऱ नेपाल जैसे ठंडे हिमालयी क्षेत्रों चायदानी जैसे पात्र बनाए जाते थे जिसका उपयोग किसी धार्मिक अनुष्ठान या शादियों में होता था। पात्र के टोंटी के चारों ओर मकर (समुद्री राक्षस) के जबड़े और ड्रैगन-आकार का हैंडल तिब्बत, लद्दाख और भूटान के हिमालयी क्षेत्रों में बौद्धधर्म के अनुयायियों के लिए पवित्र प्रतीक हैं। इस बर्तन का उपयोग ढीली पत्ती वाली चाय या मक्खन वाली चाय परोसने के लिए किया जाता था। तब चाय की ईंटों से एक हिस्सा तोड़कर उसे पानी में उबालकर एक गहरे रंग का काढ़ा बनाकर तैयार किया जाता था। इस काढ़े में याक का मक्खन, दूध, जौ का भोजन और सेंधा नमक मिलाकर एक खास स्वाद तैयार किया जाता था। यह पेय हिमालय की ठंडी का मुकाबला करने के लिए रामबाण थे।
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यूरोप के सिल्वर टी पॉट्स
मसाले, रेशम और लाह जैसी बेहतरीन लग्जरी चीजों के साथ ही यूरोपीय लोगों का पहली बार चाय से भी सामना 17 वीं शताब्दी के मध्य में। यह वह दौर था जब समुद्री रास्ते से व्यापार अपने तेजी से फैल रहा था। पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश पहले ऐसे मुल्क थे जिन्होंने समुद्र के रास्ते चीन और जापान से चाय मंगाना शुरू किया। उस दौर में चाय का आयात सोने से भी महंगा पड़ता था। इस कारण चाय तब बेहद एलीट क्लास के लोग ही पी पाते थे।
यूरोप में चायदानी के जो शुरुआती डिजाइन्स मिलते हैं वो कॉफी पॉट्स की तरह थे। यहां बता दें कि कॉफी भी 17वीं शताब्दी के मध्य तक यूरोप पहुंच गई थी। कॉफी पॉट्स लंबे बेलनाकार होते थे जिसपर घंटी की तरह का ढक्कन लगा होता था। यह सिल्वर टी पॉट ब्रिटेन में बना सबसे पहला ज्ञात टी पॉट है। उदाहरण है और आकार में यह उस समय के चांदी और जस्ता कॉफी के बर्तनों के लगभग समान है। चूंकि चांदी गर्मी का संचालन करती है, इसलिए इस टी पॉट के हैंडल चमड़े से ढकी धातु या लकड़ी, हड्डी और हाथी दांत से बनाए जाते थे। इस 'सिल्वर टी पॉट' को बनाया था जॉर्ज बर्कले ने, जिन्होंने बाद में इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को गिफ्ट कर दिया था।
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जापानी टी पॉट्स की मांग
17वीं सदी के मध्य में राजनीतिक उथल-पुथल के कारण चीन में चीनी मिट्टी के उत्पादन में भारी कमी आई। जापान ने इसका फायदा उठाया और अपने यहां चीनी मिट्टी का उत्पादन बढ़ा लिया। डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने जापानी चीनी मिट्टी के व्यापार पर अपना एकाधिकार जमा लिया। जापान के काकीमोन-शैली के बर्तन दूधिया सफेद रंग के होते थे जिनपर कलाकारी होती थी। इन टी पॉट्स पर कलाकारी इसलिए बनाई जाती थी ताकि इनके ट्रांसपोर्टेशन के कारण इनमें अगर किसी प्रकार की दरार आ जाए तो वो दिखे ना। 1660 के दशक में जापानी टॉ पॉट यूरोप में सबसे अधिक मांग वाली चायदानी बन गई।
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चीन और जापान से टीपॉट आते तो थे लेकिन वो काफी महंगे पड़ते थे। इस कारण यूरोप के कारीगरों ने वहीं पर चायदानी बनानी शुरू कर दी। ये चायदानी चांदी के होते थे और इनका आकार नाशपातीनुमा होता था।1700 से 1720 के दशक के अंत तक ऐसे ही चायदान बनते रहे। माना जाता है कि इस प्रकार की नाशपाती की आकृति चीनी ईवर्स के आकार से प्रेरित है, जिनका उपयोग मूल रूप से गर्म शराब परोसने या चाय के कटोरे में गर्म पानी डालने के लिए किया जाता था।
टी पॉट ने ली टी सेट की शक्ल
18वीं सदी आते-आते ब्रिटेन में चाय घर की महिला द्वारा ड्राइंग रूम में बनाई और परोसी जाने लगी। इस नई परंपरा ने अलग-अलग तरह के टी पॉट्स के अविष्कार में अहम भूमिका निभाई। यूरोप के कारीगरों ने मुनाफे की संभावना को परखा और टी पॉट के साथ ही पूरा टी सेट बनाने लगे। इसमें चाय की केतली के साथ ही चाय पीने के लिए छोटे से कप और चीनी रखेन के लिए कटोरी भी बनने लगी। देखते-देखते टी पॉट्स की मदद से चाय पीना धन, रुतबे और स्वाद का प्रतीक बन गया। आलम ये था कि संपन्न परिवार के लोग चाय की मेज पर टी सेट के साथ अपनी पेंटिंग्स भी बनवाने लगे।
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चायदानी में तकनीक का इस्तेमाल
18वीं सदी में टी पॉट्स की पॉपुलैरिटी के साथ ही इसमें तकीनक का इस्तेमाल शुरू हो गया। सबसे पहले नीदरलैंड में स्टैंड पर चाय के बर्तन और केतली बनने शुरू हुए। ये टिन और चमकीली मिट्टी के बर्तनों से बनाए जाते थे, जिन्हें डेल्फ़्टवेयर के नाम से जाना जाता है। चायदानी की चाय को गर्म रखने के डेल्फ़्टवेयर में बर्नर लगाए जाते थे। ये बर्नर आमतौर पर चांदी के होते थे।
घरों में सजाने के लिए भी बनने लगे टी सेट
19वीं सदी में टी सेट मैनुफैक्चरिंग उद्योग में नए युग की शुरुआत हुई। चाय पीना अब सिर्फ कुछ संभ्रांत लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। अब कई वर्ग के लोग चाय पीने लगे थे। मार्केट की डिमांड को देखते हुए सिरेमिक, कांच, इलेक्ट्रोप्लेट और ब्रिटानिया मेटल के टी सेट बनने लगे। लोग सिर्फ चाय परोसने के लिए ही नहीं बल्कि ड्राइंग रूम में सजाने के लिए भी टी सेट खरीदने लगे थे।
20वीं सदी में बदलने लगे टी पॉट
19वीं सदी के अंत तक लगभग रोजाना चाय पीने का चलन शुरू हो गया। धीरे-धीरे दिन में कई बार चाय पी जाने लगी। चाय की डिमांड के साथ ही टीपॉट का मार्केट और तेजी से बढ़ने लगा। 20वीं सदी में पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच टी सेट डिजाइनरों और कारीगरों ने औद्योगिक और मशीनीकृत उत्पादन के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया। यह चाय और टेबलवेयर सहित घरेलू सामानों के डिजाइन और निर्माण में साफ झलकता था। सजावट सीमित थी, डिज़ाइन सुव्यवस्थित था और सादगी भरपूर थी। पारंपरिक हड्डी या लकड़ी की जगह टी पॉट में इंसुलेटेड सिंथेटिक हैंडल लगने लगे।
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1970 के दशक तक टी पॉट के डिजाइन्स कुछ ज्यादा ही बदल गए। बिजली से चलने वाले टी पॉट भी बनने लगे। कुछ टी पॉट्स तो ऐसे भी बने जिनके हैंडल को निकाल दें तो वह घर में सजाने की कोई मूर्ति का आकार ले लेते। दुनियाभर के डिजाइनर्स ने टी पॉट्स के एक से बढ़कर एक नए डिजाइन ईजाद किये जो एक तरह से आज भी चलन में हैं।
टी बैग्स ने धुंधली की टी पॉट्स की चमक
20वीं सदी में अमेरिकन्स ने टी बैग बना लिये। इन टी बैग्स में चाय पत्ती रहती थी। सीधे कप में गर्म पानी लें और ये टी बैग उसमें डाल लेने से चाय बन जाती थी। टी बैग्स का चलन जैसे-जैसे बढ़ते गया टी पॉट्स के मार्केट में गिरावट आती गई। हालांकि टी पॉट्स ने डटकर इन टी बैग्स का मुकाबला किया। आज जहां टी बैग्स बेहद आम हो चले हैं वहीं टी पॉट्स आज भी एक क्लास को दर्शाते हैं।
भारत की देसी टी पॉट है चाय की केतलीभारत को टी पॉट से रूबरू करवाया अंग्रेजों ने। अंग्रेज ही भारत में चाय लेकर आए। यह ब्रिटिश शासक ही थे जिन्होंने भारत में चाय को पेय पदार्थ के रूप में पेश किया। इससे पहले, चाय केवल औषधीय प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक पौधा था, न कि भारतीयों के लिए एक मनोरंजक पेय। साल 1834 में जब गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक भारत आए, तो उन्होंने असम में कुछ लोगों को चाय की पत्तियों को उबालकर दवाई की तरह पीते हुए देखा। इसके बाद बैंटिक ने असम के लोगों को चाय की जानकारी दी और इस तरह भारत में चाय की शुरुआत हुई। अंग्रेजों ने चाय के बागान बनाए और टी सेट से भी भारतीयों का परिचय करवाया। अंग्रेजों की देखा-देखी तब के शाही परिवार औऱ राजा रजवाड़े भी मेहमानों का स्वागत चाय से करने लगे। इसके लिए वो सोने और चांदी के टी सेट रखते थे। भारत की हाई क्लास सोसाइटी चीन और जापान के टी पॉट्स इस्तेमाल करती थी। यूरोपीय औऱ अमेरिकी देशों की तरह भारत में टी पॉट इतना सफल नहीं हुआ। इसके कई कारण हैं।
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20वीं सदी के अंत तक भारत के लगभग हर घर में चाय पी जाने लगी। लेकिन भारतीयों ने अपनी आदत के अनुसार हर चीज को जब तक जमकर उबाल या पका ना लें उन्हें उसका स्वाद फीका ही लगता है। भारतीयों ने चाय को उबालकर पकाना शुरू कर दिया। चाय बनाने के लिए किसी भी तरह के भगोने का इस्तेमाल किया जाने लगा। वैसे भी भारत की जैसी आर्थिक और सामाजिक संरचना थी, उसमें टी सेट जैसे लग्जरी आइटम की बहुत ज्यादा गुंजाइश थी नहीं। भारत में चाय पीने का चलन इतनी तेजी से फैला कि चाय बनाने के लिए चाय की केतली बना ली गई। ये चाय की केतली भारत में दशकों से चलन में है।
भारत में आज भी टी पॉट्स और टी सेट एक खास वर्ग तक ही सीमित हैं। बड़े-बड़े होटलों में टी पॉट्स में ही चाय परोसे जाते हैं। बड़े-बड़े घरों के ड्रॉइंग रूम में भी आपको टी पॉट्स दिख जाएंगे। हालांकि ज्यादातर घरों में ये टी पॉट्स शोकेस में सजावट का सामान बन कर रह गए हैं।
किस तरह का टी पॉट सबसे ज्यादा पॉपुलर
चाय के लिए चायदानी कैसी हो ये तो पूरी तरह से व्यक्तिगत पसंद पर निर्भर करता है। चायदानी का मूल काम है आपकी चाय को गर्म और उसके स्वाद को बनाए रखना। चीनी मिट् के टी पॉट्स को सबसे अच्छा माना जाता है। दरअसल चीनी मिट्टीके टीपॉट्स में चाय काफी देर तक गर्म रहती है। इसी कारण ऐसे टी पॉट्स सबसे ज्यादा पॉपुलर हैं। आजकल कांच के टी पॉट्स भी चलन में हैं। ग्लास टी पॉट्स में ना सिर्फ चाय के स्वाद को चख सकते हैं बल्कि उसके रंग को भी महसूस कर पाते हैं।
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कैसे करनी चाहिए टी पॉट्स की सफाई
यूं तो टी पॉट्स को पानी से खंगालकर और सुखाकर रख देना ही काफी है, लेकिन अगर पॉट हल्के रंग का है इसे कभी-कभी रगड़ कर धुलने की जरूरत होगी। अगर टी पॉट पर किसी तरह का कोई दाग आ गया है तो थोड़ा सा सफेद सिरका या डेन्चर क्लीनर से साफ कर दाग को हटा सकते हैं। चायदानी काफी नादुक होती है इसीलिए सलाह दी जाती है कि चायदानी को हल्के हाथों से धो लें, इसे पूरी तरह सूखने दें और सूखे कपड़े से इसे अंदर और बाहर पोंछ कर ही रखें।
दुनिया का सबसे महंगा टी पॉट
क्या आपने कभी सोचा है कि किसी चायदानी की कीमत 3,000,000 डॉलर यानी लगभग 24 करोड़ रुपये भी हो सकती है। जी हां "द इगोइस्ट" नाम की चमकदार चायदानी ने 2016 से ही सबसे कीमती टी पॉट के तौर पर विश्व रिकॉर्ड बनाया। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में इस टी पॉट का नाम दर्ज है। इस चायदानी के मालिक है यूके का एन सेठिया फाउंडेशन। यह टी पॉट 18 कैरेट पीले सोने से बना है, जिसे हीरों से सजाया गया है। इस टी पॉट के सेंटर में 6.67 कैरेट का रूबी लगा है। टी पॉट का हैंडल विशाल हाथीदांत से बना है। इटालियन ज्वैलर फुल्वियो स्कैविया ने 24 करोड़ की इस चायदानी को तैयार किया है।
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भारत में नीता अंबानी का टी सेट
रिलायंस इंडस्ट्री के चीफ मुकेश अंबानी की पत्नी और देश की मशहूर उद्यमी नीता अंबानी की सुबह तीन लाख के चाय से अपने दिन की शुरुआत करती हैं। नीता ने खुद एक इंटरव्यू में बताया था कि वह दिन की शुरुआत जापान के सबसे पुराने क्रॉकरी ब्रांड नोरिटेक के कप में चाय पीकर करती हैं। नोरिटेक क्रॉकरी की खास बात यह है कि इसमें सोने (गोल्ड) की बॉर्डर है और इसके 50 पीस के सेट की कीमत डेढ़ करोड़ रुपए है। यानी एक कप चाय की कीमत हुई 3 लाख रुपए।
...और अंत में चाय से जुड़ी एक रोचक जानकारी
बेहद कम लोग ही जानते होंगे कि चाय की खोज आखिर हुई कैसे। ऊपर आपको ये तो पता चल गया होगा कि चाय का इतिहास चीन से जुड़ा है। ऐसा माना जाता है कि 2732 बीसी में चीन के शासक शेंग नुंग ने गलती से चाय की खोज की थी। दरअसल, एक बार राजा के उबलते पानी में कुछ जंगली पत्तियां गिर गई, जिसके बाद अचानक पानी की रंग बदलने लगा और पानी से अच्छी खुशबू आने लगी। जब राजा ने इस पानी को पिया तो उन्हें इसका स्वाद काफी पसंद आया है। साथ ही इसे पीते ही उन्हें ताजगी और ऊर्जा का अहसास है और इस तरह गलती से चाय की शुरुआत हुई, जिसे राजा ने चा.आ नाम दिया था। यही चा. आ आगे चलकर चाय कहलाई।
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