कहानी लाहौर की: रामायण की विरासत है पाकिस्तान का ये शहर, दिल्ली जैसे घर-बाजार, बंटवारे में क्यों छिना भारत से

History of Lahore (लाहौर का इतिहास): लाहौर भले आज पाकिस्तान का दिल है, लेकिन 1947 में बंटवारे से पहले ये हिंदुस्तान के सीने में धड़कता था। 20 वीं सदी में तो लाहौर लाहौर के ऐसे रंग खिले कि आज भी यह शहर अपनी अनूठी विरासत और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है।

Lahore Final

Explained: History Of Lahore

Lahore City History and Culture: एक मशहूर कहावत है- जिस लाहौर नी वेख्या, ओ जम्याई नई मतलब ये कि जिसने लाहौर नहीं देखी उसने जिंदगी जी ही नहीं। लाहौर यूं तो दुनिया के नक्शे पर एक नामचीन शहर है, लेकिन पिछले कुछ समय से पाकिस्तान का यह बेहद अहम शहर भारत में भी खूब सुर्खियों में है। दरअसल हाल ही में संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज हीरामंडी रिलीज हुई थी। हीरामंडी की पहचान आज लाहौर के एक रेड लाइट एरिया के तौर पर है। हालांकि ना तो हीरामंडी हमेशा से ऐसी थी और ना ही लाहौर अब पहले जैसा रहा। वहीं राजकुमार संतोषी भी लाहौर की पृष्ठभूमि में अपनी फिल्म का अनाउंस कर चुके हैं। इस फिल्म का नाम है लाहौर 1947। फिल्म में लीड रोल में नजर आएंगे सनी देओल। इस फिल्म के कारण भी लाहौर भारत में चर्चा का विषय बना हुआ है।

पाकिस्तान की सांस्कृतिक और साहित्यिक राजधानी

लाहौर पाकिस्तान में कराची के बाद आबादी के लिहाज से वहां का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। अगर सांस्कृतिक तौर पर देखा जाए तो पाकिस्तान के लिए लाहौर का स्थान सबसे ऊपर है। लाहौर को वहां के लोग पाकिस्तान का दिल भी कहते हैं। दरअसल रावी और वाघा नदी के तट पर बसा लाहौर का पाकिस्तानी इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लाहौर सरजमीं रही फैज़ की, अल्लामा इकबाल की, मंटो की, अमृता शेरगिल की तो वहीं साहिर लुधियानवी जैसे हिंदुस्तानियों के महबूब शायर ने भी यहीं जिंदगी का ककहरा सीखा। यहां की विरासत ही थी कि यूनेस्को ने लाहौर को 'साहित्यिक शहरों' की फ़ेहरिस्त भी शामिल किया था। हिंदुस्तान की आजादी के लिए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे ना जाने कितने रणबांकुरों की हुंकार भी लाहौर शहर ने खूब देखी। लाहौर भले आज पाकिस्तान का दिल है, लेकिन 1947 में बंटवारे से पहले ये हिंदुस्तान की शान हुआ करता था। बता दें कि मुख्य तौर पर लाहौर में पंजाबी बोली जाती है।

लाहौर का इतिहास, कैसे मिला शहर को नामइतिहास के पन्नों को खंगाला जाए तो पता चलता है कि 11वीं शताब्दी में एक राजपूत वंश की राजधानी के तौर पर लाहौर का पहली बार जिक्र हुआ। 1022 ई. में महमूद ग़ज़नवी की सेना ने लाहौर पर आक्रमण करके इसे लूटा। इसी काल के इतिहासकारों ने लाहौर का पहली बार उल्लेख किया है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ग़ुलाम वंश तथा परवर्ती राजवंशों के शासनकाल में भी कभी-कभी लाहौर का नाम सुनाई पड़ जाता है। 1524 ई. में मुगल शासक बाबर ने लाहौर को लूटकर जला दिया। हालांकि बाद में लाहौर फिर से बस गया। 1584 में अकबर में अपनी राजधानी आगरा से हटाकर लाहौर बना ली। मुगलों के बाद लाहौर पर पहले सिखों और फिर बाद में अंग्रेजों की हुकूमत रही। 16वीं सदी और उसके बाद लाहौर सांस्कृतिक तौर पर खूब समृद्ध हुआ। 20 वीं सदी में तो लाहौर लाहौर के ऐसे रंग खिले कि आज भी यह शहर अपनी अनूठी विरासत और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है।

लाहौर का भगवान राम से कनेक्शन

श्री शत्रुंजय हनुमतस्त्रोतम में लवपुरी नाम की जगह का जिक्र है। हिंदू मान्यता के अनुसार लाहौर का नाम लवपुरी से निकाला गया है और इसकी स्थापना लव द्वारा की गई थी। कहते हैं जब भगवान राम ने वानप्रस्‍थ जाने का निर्णेय लिया, तब उन्होंने अपने बेटों लव और कुश को अपना राजकाज सौंप दिया था। भगवान श्री राम ने कुश को दक्षिण कोसल, कुशस्थली (कुशावती) और अयोध्या राज्य सौंप दिया तो वहीं लव को पंजाब। लव ने, लवपुरी को अपनी राजधानी बना दिया। यही लवपुरी आज लाहौर के नाम से फेमस है। हालांकि वाल्मीकि रामायण में कहीं इस बात का जिक्र नहीं मिलेगा।

अब तो पाकिस्तान भी अनाधिकारिक तौर पर मान गया है कि लाहौर को लव ने ही बसाया था। साल 2023 में मुस्लिम लीग समर्थित अखबार द डॉन की एक रिपोर्ट में लाहौर शहर के प्राचीन इतिहास की पड़ताल की गई है। इस रिपोर्ट में माना गया है लाहौर को राजकुमार लव ने बसाया था और उन्हीं के नाम पर इस शहर को यह नाम मिला। साथ ही पाकिस्तानी शहर कसूर को भगवान राम के दूसरे बेटे कुश का बसाया हुआ बताया गया है।

हमेशा से हिंदुस्तानी मिजाज़ का रहा है लाहौर

अगर कहें कि लाहौर का मिजाज़ दशकों से हिंदुस्तानी रहा है, तो कतई गलत नहीं होगा। आजादी से पहले और बंटवारे के कई सालों तक लाहौर में सबसे अधिक आबादी गैर मुसलिमों की थी। इन गैर मुस्लिमों में सिख और हिंदू थे। आज भी लाहौर की हर गली, मोहल्ले और बड़ी-बड़ी कोठियों में टंगे पर्दे के पीछे से हिंदुस्तान का एक जर्रा झांक रहा होता है। तभी तो किसी शायर ने लिखा है- 'शहर ए लाहौर से कुछ दूर नहीं है देहली, एक सरहद है किसी वक़्त भी मिट सकती है'।

आज भी लाहौर की सांस्कृतिक विरासत पर नजर डालें तो दिखेगा कि आर्य समाज मंदिर, महादेव मंदिर, शीतला माता मंदिर, भैरो मंदिर, रावर रोड पर श्रीकृष्ण मंदिर, अकबरी मंदिर, दूधवाली माता मंदिर, महाराजा रंजीत सिंह समाधि, डेरा साहिब, प्रकाश स्थान श्री गुरु रामदास जी, भाभारियान जैन दिगंबर मंदिर, जैन श्वेतांबर मंदिर यहां के मशहूर धार्मिक स्थल हैं। लाहौर के पंजाब यूनिवर्सिटी में 8671 संस्कृति और हिंदी की पांडुलिपियां आज भी रखी हैं। अधिकतर बड़े व्यापारी हिंदू हैं।

हिंदुस्तानी मिजाज वाला लाहौर पाकिस्तान का कैसे हुआ?

भारत सन् 1947 में बंटवारे की शर्त पर अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हुआ। बंटवारे के बाद मुल्क हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बंट गया। लाहौर चला गया पाकिस्तान के हिस्से। 1947 में बंटवारे के ऐलान के बाद दोनों देशों के बीच सरहद खींचने का काम सौंपा गया था अंग्रेज बैरिस्टर सर सिरील रेडक्लिफ। रेडक्लिफ 1947 से पहले ना तो कभी भारत आए थे और ना ही यहां के बारे में उन्हें कुछ ज्यादा जानकारी थी। 10 अगस्त 1947 को रेडक्लिफ ने दोनों देशों के बीच सरहद की रूपरेखा तैयार की उसके हिसाब से लाहौर भारत का हिस्सा था। हालांकि पाकिस्तान को उम्मीद थी कि लाहौर उनके हिस्से आएगा। दरअसल लाहौर ना सिर्फ सांस्कृतिक तौर पर बल्कि आर्थिक तौर भी उश क्षेत्र का सबसे समृद्ध शहर था।

रेडक्लिफ के दफ्तर से ये खबर लीक हो गई कि लाहौर हिंदुस्तान के हिस्से जा रहा है। फिर क्या था। पाकिस्तानी हुक्मरानों के आदेश पर लाहौर में ऐसा कत्लेआम हुआ कि लोगों की रूह कांप गई। परिस्थितियां ऐसी बनीं कि 12 अगस्त को लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा हो गया। कहा जाता है कि इस बंटवारे से रेडक्लिफ इतने नाखुश थे कि उन्होंने लंदन लौटकर बंटवारे पर सरहद खींचने से जुड़े सारे कागजात को जला डाले थे।

आजादी के बाद लंदन में रेडक्लिफ से मुलाकात करने वाले इकलौते पत्रकार कुलदीप नैय्यर थे। कुलदीप नैय्यर ने बीबीसी को इस मुलाकात के बारे में बताया। रेडक्लिफ ने नैय्यर से कहा था कि सीमा रेखा खींचने के लिए सिर्फ 10-12 दिन मिले। एक बार हवाई जहाज से अखंड भारत को देखा। मुझे बताया गया कि लाहौर हिंदुओं का शहर है। उनकी प्रॉपर्टी मुसलमानों से ज्यादा है। लाहौर तब समृद्ध शहरों में गिना जाता था। पाकिस्तान को अब तक कोई बड़ा शहर नहीं मिला था। बंटवारे के बाद मुझसे नाराज पाकिस्तान को खुश होना चाहिए कि मैंने भारत से लेकर उन्हें लाहौर दिया। इस तरह दो दिनों तक भारत का हिस्सा रहने के बाद लाहौर पाकिस्तान को हो गया।

बंटवारे के वक्त कैसा था लाहौरबंटवारे के, उससे कुछ साल पहले और फिर कुछ साल बाद तक लाहौर शहर आज के लाहौर से बिल्कुल अलग था। एक बार जो उस शहर में जाता उसे वहां की आब-ओ-हवा से मोहब्बत हो जाती थी। अविभाजित भारत में लाहौर की सड़कों पर औरतें साइकिल चलाती थीं। उनका साइकिल चलाना बेहद सामान्य था। वहां औरतें और लड़कियां साड़ी सिर्फ किसी शादी में नहीं पहनती थीं, बल्कि वहां की तमाम महिलाओं का यह रोज़मर्रा का पहनावा था। आज के बुरके के विपरीत तब पर्दे में रहने वाली महिलाएं साधारण मिस्री या टोपी बुर्क़ा ओढ़ती थीं। तब की तस्वीर अगर आज की पीढ़ी को दिखाई जाए तो उन्हें यकीन ही नहीं होगा कि कभी लाहौर ऐसा भी हुआ करता था।

50 के दशक तक लाहौर की तमाम गलियों में बार और डिस्को हुआ करते थे। तब वहां शराब भी ग़ैर-क़ानूनी नहीं बनी थी। लाहौर में क्लब कल्चर की भी धूम थी। वहां शाम होते ही क्लबों में रौनक बढ़ जाती थी। वहां के गली कूचों में रेडियो बजते, कैरम औऱ शतरंद की बिसातें बिछतीं, कैरम खेलना और बाज़ियां जमाना वहां आम शौक थे।

लाहौर की मिट्टी में कुछ तो ऐसी खास बात थी कि तब वहां के हर नुक्कड़ पर आपको कोई ना कोई कवि, साहित्यकार, कलाकार और लेखक मिल जाते। कॉफी और टी हाऊस के साथ ही बेकरी पर भी ऐसे बुद्धजीवियों का जमावड़ा होना बेहद आम था। तब लाहौर शहर में तांगे भी खूब चला करते थे। इस शहर का मिजाज ऐसा था कि यहां मोटरसाइकिल से पहले स्कूटर पसंद की जाती थी। स्कूटर पर ही पूरा कुनबा नजर आता था।

लेकिन फिर ऐसा कुछ हुआ कि लाहौर शहर ने पिछले 70 सालों में समाज के लिहाज़ से इतनी कलाबाज़ियां खा लीं। वहां अब महिलाओं को उस तरह की सामाजिक आजादी नहीं है। अब गाड़ी या साइकिल चलाने वाली औरतों को घूरती नजरों का सामना करता पड़ता है। औरतें सिर से पांव तक ढंके बुर्के में किसी बुत सी लिपटी नजर आतीं। तांगे सड़कों से गायब हो चुके हैं। बार और डिस्को पर भी ताले लग चुके हैं। दरअसल 1970 के बाद से वहां मुसलमानों के लिए शराब की बिक्री और उपभोग पर रोक लगा दी गई थी।

भारत का गुस्सा लाहौर के मंदिरों पर निकला

किसी जमाने में लाहौर में 50 से ज्यादा हिंदू मंदिर और धार्मिक स्थल थे। रवि रोड पर कृष्ण मंदिर और उसी के करीब वाल्मिकी मंदिर- आज लाहौर में सिर्फ यही दो हिंदू मंदिर बचे हैं। हिंदुओं की आस्था के बाकी प्रतीक या जो जर्जर हो कर खुद ढह गए या फिर ढहा दिये गए। पाकिस्तानियों ने कई बार हिंदुस्ताने के खिलाफ घुस्सा वहां के हिंदुओं और हिंदू मंदिरों पर निकाले हैं। 1992 में अयोध्या में जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गई तो पाकिस्तानियों का गुस्सा लाहौर समेत पाकिस्तान के कई हिंदू मंदिरों पर फूटा। लाहौर के सारे मंदिरों को तोड़ डाला गया। कुछ पर जबरन ताला जड़ दिया गया। कई जगह मंदिरों को तोड़तक वहां दुकान या पार्क दिये गए।

जो लाहौर कभी साझी सभ्यता की जीती जागती मिसाल हुआ करती थी आज वह अपनी पहचान पूरी तरह से खो चुकी है। अब असली लाहौर के किस्से सिर्फ किताबों, किस्सों और फिल्मों में नजर आते हैं। 25 दिसंबर 1934 को अविभाजित भारत के बरेली में जन्मे सय्यद मोहम्मद ज़ुल्फ़िकार हुसैन रिज़वी, जिन्हें फनकारी की दुनिया में लोग सैफ़ ज़ुल्फी के नाम से जानते हैं, बंटवारे के बाद लाहौर जा बसे थे। उन्होंने लाहौर को खूब जिया। लेकिन 70 के दशक के बाद लाहौर जिस तेजी से बदला उसका दर्द उन्होंने अपनी इस नज्म में क्या खूब उतारा है:

कूफ़े के क़रीब हो गया है

लाहौर अजीब हो गया है

हर दोस्त है मेरे ख़ूँ का प्यासा

हर दोस्त रक़ीब हो गया है

हर आँख की ज़ुल्मतों से यारी

हर ज़ेहन मुहीब हो गया है

क्या हँसता हँसाता शहर यारो

हासिद का नसीब हो गया है

फैला था मसीह-ए-वक़्त बन कर

सिमटा तो सलीब हो गया है

काग़ज़ पे उगल रहा है नफ़रत

कम-ज़र्फ़ अदीब हो गया है

इस शहर के दिल नहीं है 'ज़ुल्फ़ी'

ये शहर ग़रीब हो गया है।

...और अंत में जब एक नज्म के चलते साहिर को छोड़ना पड़ा लाहौरभारत के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने साल 1943 में लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज में एडमिशन लिया। वहां वह छात्रसंघ के अध्यक्ष चुन लिए गए। कुछ समय बाद वह वहां के कुछ उर्दू अखबार औऱ पत्रिकाओं के लिए लिखने लगे। साल 1949 में लाहौर में रहते हुए साहिर ने आवाज़-ए-आदम नाम की एक नज्म लिखी। इस नज्म से एक लाइन आज भी पॉपुलर है- हम भी देखेंगे। नज्म का मजमून ये था कि साम्यवाद का लाल परचम दुनिया पर लहराएगा। साम्यवाद या कम्युनिज्म के विपरीत पाकिस्तान उन दिनों पश्चिमी देशों से सामंजस्य बनाने में लगा था। जब साहिर की वह गजल पाकिस्तानी पत्रिकाओं और अखबारों में छपी तो पाकिस्तान के हुक्मरानों को मिर्ची लग गई। साहिर को वहां की इंटेलिजेंस धमकाने लगी। उन्हें जबरन भारत भेज दिया गया। वह तब लाहौर से कुछ यूं रुखसत हुए कि दोबारा लौटकर वहां ना जा सके।

अब शायद ही कोई पूरी ईमानदारी से ये कह पाए कि 'जिस लाहौर नी वेख्या, ओ जम्याई नई।'

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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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