क्या है निर्गुण, कैसे शोषितों की ताकत बना यह लोकगीत, किसने की निर्गुण की शुरुआत, जानें सबकुछ

Nirgun: पूर्वांचल या बिहार के मजदूरों की टोली देश दुनिया के किसी भी कोने में हो या फिर ट्रेन बस से सफर कर रही हो। आप पाएंगे कि खाली समय में मजदूर साथ बैठ कर निर्गुण गा रहे होंगें। अगर वह सफर में होंगे तो कबीर और रैदास के ऐसे-ऐसे निर्गुण गाते दिख जाएंगे कि रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चलता। उन मजदूरों को अच्छी तरह पता है कि यह जीवन एक सफर ही तो है। इसी ज्ञान का दूसरा नाम है निर्गुण।

What Is Nirgun

निर्गुन लोकगीत का इतिहास

Nirgun History and its Significance: किसी भी समाज की आत्मा वहां की लोक संस्कृति होती है। इस लोक संस्कृति में ऐसी ताकत होती है कि उसे किसी साहित्य या प्रकाशन की जरूरत नहीं होती। सदी दर सदी और पीढ़ी दर पीढ़ी ये लोक कलाएं अपने ही दम पर सफर तय करती जा रही हैं। बात लोक गीतों की करें तो यह किसी समाज विशेष के अंतरआत्मा की आवाज होती है। इसी कारण से इसकी भाषा भी वह होती है जो उस समाज की होती है। मसलन बिहार के लोकगीत भोजपुरी में होंगे तो वहीं महाराष्ट्र के लोकगीत मराठी में। माना जाता है कि जब भी कभी समाज पर कोई मुश्किल आती है और सारे उपाय फेल हो जाते हैं तो फिर वहां की लोक संस्कृति ही क्रांति का रूप लेती है। ऐसी तमाम कालजयी लोक कलाओं में से एक है निर्गुण। निर्गुण मुख्य तौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार का लोकगीत है लेकिन यह अलग-अलग रूपों में दूसरे क्षेत्रों में भी गाया जाता है।

पूर्वांचल या बिहार के मजदूरों की टोली देश दुनिया के किसी भी कोने में हो या फिर ट्रेन बस से सफर कर रही हो। आप पाएंगे कि खाली समय में मजदूर साथ बैठ कर निर्गुण गा रहे होंगें। अगर वह सफर में होंगे तो कबीर और रैदास के ऐसे-ऐसे निर्गुण गाते दिख जाएंगे कि रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चलता। उन मजदूरों को अच्छी तरह पता है कि यह जीवन एक सफर ही तो है। इसी ज्ञान का दूसरा नाम है निर्गुण।

क्या होता है निर्गुण गायन (What Is Nirgun)

‘निर्गुण’ का शाब्दिक अर्थ समझा जाए तो इसका मतलब होता है गुणों से रहित। दरअसल इस संसार में तीन तरह के गुण पाये जाते हैं- राजस, तामस और सातिग (सात्त्विक)। निर्गुण तो इन तीनों से परे का ‘चौथा पद’ है। बहुत से सूफी संत निर्गुण की तुलना परमात्मा से करते हैं। स्वयं कबीर निर्गुण को निर्गुण ब्रह्म और निर्गुण राम कहा करते थे। निर्गुण मूल रूप से विरक्ति का गायन है। निर्गुण गीतों में शुद्ध ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन का प्रचार किया जाता है।

निर्गुण गायन हमें बताता है कि जिस बैकुंठ की तलाश आप कर रहे हैं वो कहीं नहीं है। अगर कहीं बैकुण्ठ है तो वह सत्संगति में ही है। समान विचार के लोगों के बीच होना ही बैकुण्ठ है। यह ऐसा बैकुण्ठ है जिसे जीते जी अनुभव किया जा सकता है, पाया जा सकता है। निर्गुण कहता है कि असली मुक्ति इस जीवन में ही छिपी है। इसी की बानगी है कबीर का ये निर्गुण:

साधो भाई जीवत ही करो आसा.

जीवत समझे जीवत बूझे जीवत मुक्ति निवासा.

जीवत करम की फाँस न काटी मुए मुक्ति की आसा.

विरहिन उठि उठि भुईं परै, दरसन कारन राम.

मुए दरसन देहुगे, सो आवे कवने काम..

कैसे शुरू हुआ निर्गुण (History of Nirgun)

निर्गुण का प्रवर्तक कबीर दास को माना जाता है। बनारस कबीर की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों रही है। इसी कारण से बनारस को निर्गुण का भी उत्तपत्ति स्थल माना जाता है। बनारस में कबीर की जयंती के मौके पर मेला लगता है जहां आप देखेंगे कि लोगों का छोटा-छोटा समूह जमीन पर बैठा होगा। उनके बीच एक शख्स कबीर के निर्गुण बांच रहा होता है और बीच-बीच में उसके अर्थ भी बताता है। कबीर का एक मशहूर निर्गुण है:

एक डाल दो पंछी बैठा, कौन गुरु कौन चेला

गुरु की करनी गुरु भरेगा, चेला की करनी चेला रे साधुभाई

उड़ जा हंस अकेला।

माटी चुन-चुन महल बनाया, लोग कहे घर मेरा

न घर तेरा न घर मेरा, चिड़िया रेन-बसेरा रे साधुभाई

उड़ ज हंस अकेला..

मजलूमों का शक्ति बाण है निर्गुण

कबीर कहते थे कि लोक और वेद के पीछे भागने से काम नहीं चलेगा। अपने हाथ में दिया जलाना होगा। निर्गुण आम जनता या फिर शोषित वर्ग के लिए बहुत बड़े सहारे की तरह है। ऐसा समाज जिसका कोई रखवाला नहीं, जिसे सभी लूटते हैं, शोषण करते हैं उसके काम कौन ही आता है? निर्गुण मुख्यधारा के शोषण का प्रतिपक्ष है। कबीर और सत रविदास जैसे संतों ने यह बात लोगों को समझाई। देखते ही देखते ये निर्गुण ही उस शोषित समाज के दुखों को खत्म करने का हथियार बन गए। जैतसारी, कीर्तन, पूरवई, डोमकच और आल्हा वगैराह निर्गुण ही तो हैं।

संतों ने और निर्गुण लिखने वालों ने लोगों को समझाया कि हम नायकों का इन्तजार करते रहते हैं कि सपनों के देश से कोई नायक आयेगा और सब कुछ ठीक कर देगा। नायक तो हमारे भीतर ही सोया हुआ है। निर्गुण इसी सोते हुए नायक को जगाने का काम करते हैं। बुद्ध भी इस बात को कह गए हैं- अप्प दीपों भव।

निर्गुण की ताकत ये है कि वह बाल मन में भी चेतना को विकास कर देते हैं। निर्गुण खेल-खेल में बच्चों को जीवन और मृत्यु जैसे दो सबसे बड़े कटु सत्य का बोध करा देते हैं -

अटकन चटकन दही चटाकन

लौह लाता बन के काटा

चुहुर चुहुर पानी गिरे, सब्बो जाबो गंगाजी रे

पावका पावका बेल खाबो, बेल के डारा टूटा गे

इस निर्गुण का अर्थ है- मनुष्य मरते समय अमृत पान करना चाहता है, जिसे गांवों में दही में पंचमेवा और चीनी मिलकर बनाया जाता है। मृत्यु के बाद लौहा लाटा करते हैं यानी जल्दीबाजी करते हैं। जबकी चुहुर चुहुर यानि बूंद बूंद करके ही पानी तर्पण के समय गिरता है। यह निर्गुण की ताक़त है।

और अंत में..

निर्गुण अपने भाव और भाषा के जरिए जहां अनपढ़ों का आवाज है तो यह शिक्षित और अभिजात्य वर्ग को भी अपनी ओर आकर्षित करता है। वैसे दूसरी लोक कलाओं की तरह ही अब निर्गुण भी धूमिल होती मालूम पड़ती है। अब ना तो कबीर रैदास जैसे निर्गुण पंथी हैं और ना ही निर्गुण रचने वाले। वैसे बहुत से लोगों का मानना है कि जब तक दुनिया में शोषण है तब निर्गुण पंथ जिंदा रहेगा। अंत में आपको छोड़े जाते हैं उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के रहने वाले कवि अष्टभुजा शुक्ल के इस निर्गुण के साथ:

भलहीं हमहन के पसेने नहाय के पड़े,

बाकिर केहू के तेल न लगावे के पड़े

आधा खाए के पड़े, आधा पहिरे के पड़े, आधा सूते के पड़े

बाकिर कवनो राजा के दाब में ना रहे के पड़े

जूता सीए के पड़े पालिस मारे के पड़े,

बाकिर कवनो साहेब के गोद में जूता ना पहिरावे के पड़े

भलहीं सेब छुए के ना मिले, अंगूर चीखे के ना मिले,

बाकिर इमली के आम ना कहे के पड़े

आँखि से बोले के पड़े, चमड़ी से सांस लेबे के पड़े,

बाकिर तोहरा से प्यापर खातिर मुंह न खोले के पड़े..

देश और दुनिया की ताजा ख़बरें (Hindi News) पढ़ें हिंदी में और देखें छोटी बड़ी सभी न्यूज़ Times Now Navbharat Live TV पर। लाइफस्टाइल (Lifestyle News) अपडेट और चुनाव (Elections) की ताजा समाचार के लिए जुड़े रहे Times Now Navbharat से।

Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

End of Article

© 2025 Bennett, Coleman & Company Limited