Faiz Ahmed Faiz: वह शायर जो था कर्नल, 4 साल रहा जेल में, फांसी से बचा तो छोड़ना पड़ा देश, बन गया बगावत का दूसरा नाम
Faiz Ahmed Faiz Shayari: फ़ैज़ ने मोहब्बत, अदावत और बगावत को इस तरह अपनी नज्मों में पिरोया कि वह नज्म महबूबा के लिए लिखा गया या मुल्क के लिए लिखा गया इसका फर्क ही नहीं मालूम पड़ता।
Faiz Ahmed Faiz Shayari Poetry in Hindi
"और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग"
दशकों से ये पंक्तियों प्रेम और वियोग को बयां करने के लिए इस्तेमाल की जा रही हैं। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि असल में इस नज़्म के अर्थ इंकलाबी हैं। इस नज़्म में प्रेमी अपनी प्रेमिका को अलविदा कह रहा है क्योंकि वह समाज में फैली बुराइयों से निपटने को तरजीह देना चाहता था। इस नज्म के रचयिता थे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़। फ़ैज़ को इश्क और इंकलाब का शायर माना जाता है। फ़ैज़ उस किस्म के शायर थे जो मोहब्बत को इंकलाबी बना दे और इंकलाब को मोहब्बत बना दें।
फ़ैज़ अहमद फै़ज़ का जन्म 13 फरवरी 1912 को अविभाजित भारत में पंजाब के ज़िला नारोवाल की एक बस्ती काला क़ादिर में हुआ था। अब यह जगह फ़ैज़ नगर के नाम से जानी जाती है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का असली नाम फ़ैज़ अहमद खान था, लेकिन बाद में उन्होंने अपना तखल्लुस भी फ़ैज़ ही रख लिया। फ़ैज़ का परिवार शिक्षित और समृद्ध था। पिता मुहम्मद सुलतान ख़ां बैरिस्टर थे।
फ़ैज़: शायर, सैनिक, पत्रकार और नेता
फ़ैज़ अहमद फ़ैज, जो जिंदगी के साथ बदलते रहे, 1942 में जर्मन फासीवाद से लड़ने के लिए भारतीय सेना में भर्ती हो गए। सेना में कर्नल के पद पर रहे और ईमानदारी से देश की सेवा की। फिर वे पढ़ाने लगे, संपादक और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। महात्मा गांधी के अंतिम संस्कार में शामिल हुए और कथित पिंडी साजिश में गिरफ्तार भी हुए। राजनीति में उन्होंने मजदूरों के हक की आवाज़ उठाई और अपने गीतों और नगमों से दुनिया के जुल्मी शासकों को ललकारते रहे। पाकिस्तानी हुकूमत की नजरों में फ़ैज़ हमेशा से खटकते रहे।
जब फांसी के फंदे तक पहुंचे फ़ैज़
साल 1951 की बात है। पाकिस्तान में राजनीतिक उथल पुथल मची हुई थी। लियाकत अली खान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने तो उनके तख्तापलट की कोशिश होने लगी। तख्तापलट की साजिश रचने के आरोप में कई नेताओं और पत्रकारों की गिरफ्तारियां हुईं। इनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी शामिल थे। फ़ैज़ पर आरोप लगा कि वह कुछ लोगों के साथ मिलकर पाकिस्तान में वामदलों की सरकार लाना चाहते हैं। उन्हें जेल जाना पड़ा। चार साल वह जेल में रहे। उन पर बगावत करने के इल्जाम में मुकदमा चलाया गया। पाकिस्तान में उस दौरान में चर्चा-ए-आम था कि फ़ैज़ को फांसी की सजा तो होगी ही।
देश से निकाल दिये गए फ़ैज़
फ़ैज़ देशद्रोह के आरोपों से बरी होकर छूटे तो फिर अपने बगावती नज्मों से पाकिस्तानी हुकूमत की नाक में दम करने लगे। बगावत और जुल्म के खिलाफ जंग की बातें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के नगमों में चीखती रही। देखते ही देखते वह बगावत, इश्क और इंकलाब का दूसरा नाम बन गए। तंग आकर पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें देश निकाला दे दिया गया। वह पाकिस्तान छोड़ लंदन चले गए। वहां 8 साल रहे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ अच्छे संबंध थे, जब वह विदेश मंत्री बने तो उन्हें लंदन से वापस लाया गया।
इश्क और इंकलाब का कॉकटेल थीं फ़ैज़ की नज़्में
फ़ैज़ की ज़िंदगी के इतने आयाम थे कि वह कभी किसी को समझ नहीं आए। नास्तिक का तमगा लगवा चुके फ़ैज़ को कभी कम्युनिस्ट कहा गया तो कभी उनको इस्लाम के खिलाफ ही करार दिया गया। वहीं, शायर फ़ैज़ इन सारे इल्जाम और तोहमत के बावजूद लिखते रहे जो मन किया, जो दिल बोला। फ़ैज़ ने मोहब्बत, अदावत और बगावत को इस तरह अपनी नज्मों में पिरोया कि वह नज्म महबूबा के लिए लिखा गया या मुल्क के लिए लिखा गया इसका फर्क ही नहीं मालूम पड़ता। फ़ैज़ की नज़्म अगर आप आशिकी के मूड में पढ़ रहे हों, तो लगेगा कि आप आशिक हो और ये आपके लिए ही लिखा गया है। अगर इंकलाबी नज़र से देखेंगे तो महसूस होगा कि मैं हूं, मेरा वतन है, मेरी ज़मीन है, जिसके बारे में लिखा गया है।
बग़ावत का दूसरा नाम बन गई फ़ैज़ की नज़्म
फ़ैज़ का जिक्र तब तक पूरा नहीं होता जब तक उनकी नज़्म 'हम देखेंगे' की बात ना हो। 1977 में पाकिस्तान के तत्कालीन आर्मी चीफ जिया उल हक ने वहां भुट्टो सरकार का तख्ता पलट किया तो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ काफी दुखी हुए। इसी दौरान उन्होंने 'हम देखेंगे' नज़्म लिखी, जो जिया उल हक के खिलाफ थी। नज्म कुछ यूं थी:
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
साल 1984 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का निधन हो गया। उनके निधन के बाद यह नज़्म पूरी दुनिया में इंकलाब और बगावत का परचम बन गई। इसे अपने मुकाम तक पहुंचाया पाकिस्तान की मशहूर गजल गायिका इकबाल बानो ने। 1985 में जब पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने देश में मार्शल लॉ लगा दिया था और इस्लामीकरण के चलते देश में महिलाओं के साड़ी पहनने पर भी पाबंदी थी तब लाहौर के स्टेडियम में एक शाम इकबाल बानो ने 50 हजार लोगों की मौजूदगी में 'हम देखेंगे' नज्म को गाकर इसे अमर कर दिया था।
करीब 40 साल पहले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जिस्मानी तौर पर इस दुनिया को भले ही अलविदा कह गए, लेकिन अपने कलाम की बदौलत आज भी फ़ैज़ लोगों के बीच जिंदा हैं। अंत में इश्क को बयां करती फ़ैज़ की एक नज़्म:
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
उम्मीद करते हैं 'इरशाद' के आज के अंक में फ़ैज़ का रूहानी सफ़र आपको पसंद आया होगा। दुनियाभर के तमाम मशहूर शायरों और नग़मानिगारों से जुड़ी ऐसी ही दिलचस्प जानकारियों के लिए हमारे साथ बने रहें।
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Suneet Singh author
मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया क...और देखें
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