Holi 2024: हरम में यूं होली खेलते थे जहांगीर, शराब में डुबो देते थे बाबर, कुछ ऐसी होती थी मुगलों की होली

Holi in Mughal Era: मुगल काल में होली को लेकर क्या माहौल था इसे 13वीं सदी में अमीर खुसरो की लिखी इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- खेलूंगी होगी, खाजा घर आए, धन-धन भाग हमारे सजनी, खाजा आए आंगन मेरे।

Mughals Holi

अपने हरम में होली खेलते जहांगीर की यह पेंटिंग काफी मशहूर है।

Holi 2024: रंगों के त्योहार होली इस साल 25 मार्च को मनाया जाएगा। 24 मार्च को होलिका दहन है। होली हिंदुओं का बहुत बड़ा त्योहार माना जाता है। इस दिन लोग एक दूसरे को रंग लगाते हैं और मौज मस्ती करते हैं। होली को लेकर मान्यता है कि भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त प्रहलाद को हिरण्यकश्यप ने मारने की कई तरह से कोशिश की। हालांकि वह ऐसा कर नहीं पाया। हिरण्यकश्यप के बचने की खुशी में ही होली खेली गई थी।

मुगल काल और होलीइस तरह की भ्रांतियां समाज में फैलाई जाती है कि जब मुगल भारत में आए तो उन्होंने हिंदुओं का बहुत दमन किया। कहा जाता है कि मुगलों ने हिंदुओं के तीज-त्योहारों पर पाबंदी लगाई और जबरन इस्लाम भी कबूल करवाया। हालांकि इतिहास इससे अलग है। इतिहास में दर्ज है कि मुगल भी हिंदुओं के इस महापर्व होली के रंग में रंग जाया करते थे और बड़े धूमधाम से मनाते थे। औरंगजेब को आप अपवाद मान सकते हैं।

मुगल काल की रचनाओं में भी होलीमुगल काल में होली को लेकर क्या माहौल था इसे 13वीं सदी में अमीर खुसरो की लिखी इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- खेलूंगी होगी, खाजा घर आए, धन-धन भाग हमारे सजनी, खाजा आए आंगन मेरे। 16वीं शताब्दी में इब्राहिम रसखान (1548-1603) ने लिखा है- आज होरी रे मोहन होरी काल हमारे आंगन गारी दई आयो सो कोरी अब के दूर बैठे मैया ढिंग निकासो कुंज बिहारी। उसी दौर में मुगल बादशाह जहांगीर ने तुजुक-ए-जहांगीरी में लिखा है- एक दिन है होली और माना जाता है कि यह साल का आखिरी दिन है। इस दिन से एक दिन पहले लोग गलियों में आग जलाते हैं। हिंदुओं में अपने मृतकों को जलाने का एक स्थापित रिवाज है, साल की आखिरी रात को आग जलाना पुराने साल को जलाने का एक रूपक है, जैसे कि यह एक लाश थी।

होली पर शराब में नहला देता था बाबरमुगल बादशाह बाबर 1519 में भात आया था। उसने यहां जब हिंदुओं को होली खेलते देखा तो दंग रह गया था। तारीख-ए-हिन्दुस्तान नाम की अपनी किताब में मशहूर इतिहासकार मुंशी जकाउल्ला ने लिखा है कि बाबर ने देखा कि हिंदुस्तानियों के लिए होली रंगों का महापर्व है और यहां के लोग पानी से भरी हौदियों में रंग डालकर उसमें लोगों को फेंक देते हैं। बाबर होली से इतना प्रभावित हुआ कि वह भी इस त्योहार को मनाने लगा। हालांकि बाबर हौदियों में रंग और पानी की जगह शराब भरवा देता था और उसमें लोगों को फेंका जाता था।

अकबर की होलीअकबर जब हिंदुस्तान में मुगलिया सल्तनत का बादशाह बना तो वह भी होली के आकर्षण से अछूता नहीं रहा। इस बात की तस्दीक अकबर की जीवनी लिखने वाले अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा है- होली से अकबर का लगाव इतना हो गया था कि वह सालभर ऐसी चीजें इकट्ठा कराते थे जिससे रंगों का छिड़काव और पानी को दूर तक फेंका जा सके। अकबर होली के दिन अपने महल से बाहर निकलकर खास-ओ-आम के साथ रंग खेलते थे।

हरम में होली खेलते थे जहांगीरजब जहांगीर के सिर हिंदुस्तान के बादशाह का ताज सजा तो उसने भी होली से खुद को अछूता नहीं रखा। अपने हरम में रानियों के साथ होली खेलते जहांगीर की एक पेंटिंग भी मौजूद है। इतिहासकार इरफान हबीब लिखते हैं कि जहांगीर शाही पिचकारी से होली खेलते थे। मुगल शासक अपने दरबारियों के साथ होली खेला करते थे। वह हरम में, घर में, अपनी बीवियों के साथ खूब रंग खेला करते थे। होली के दिन दरबार में संगीत की खास महफिल सजती थी जिसमें जहांगीर जरूर मौजूद रहता था।

शाहजहां के काल में शाही हुई होलीशाहजहां को भी होली से बहुत प्यार था। अपने शासनकाल में शाहजहां ने होली को काफी भव्य बनाया। शाहजहां के राज में होली को नाम मिला- ईद-ए-गुलाबी। खुशी को दर्शाने के लिए ईद शब्द का प्रयोग होता है और होली रंगों का पर्व है इसलिए शायद इसे गुलाबी ईद कहा गया। शाहजहां के ही काल में होली आब-ए-पाशी भी कहा जाता था। होली का उत्सव शाहजहां के काल में शाही उत्सवों में शामिल था।

आज भी गाई जाती है बहादुर शाह जफर के लिखी होरीजब सत्ता बहादुर शाह जफर के हाथों में आई तो मुगलिया दरबार में होली के रंग और निखर कर आए। 1844 में जाम-ए-जहानुमा नाम के एक उर्दू अखबार में लिखा गया था कि बहादुर शाह जफर के शासन में दिल्ली के लाल किले में होली पर जश्न का माहौल होता था। टेसू के फूलों से रंग बनाए जाते थे और बादशाह अपने परिवार के साथ होली खेलते थे। होली के मौके पर किले के पीछे यमुना के घाट पर मेला भी लगता था। इस मेले में भयंकर भीड़ जुटती थी। बहादुर शाह जफर के लिखे होली के फाग आज भी गाए जाते हैं:

क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी

देख कुंवर जी दूंगी गारी

भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात

थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत

बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं

आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं

शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी

मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।

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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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