Holi 2024: रंग, विरंग, रंगबाज़ी और होली के वास्तविक अर्थ को समझें!
Holi 2024: रंग की बात हो तो एक ही रंग की कितनी छटाएं हैं, यह जानना रोचक है। उदाहरण के लिए, स्वयं बसंत का रंग ‘बसंती’ है, जो पीले रंग की एक छटा है। बसंती से कुछ गाढ़ा पीला हो तो ‘सरसई’(सरसों-पीला), उससे अधिक गाढ़ा हो तो ‘कनेरी’ और उससे भी अधिक गाढ़ा हो जाए तो ‘हल्दी’ रंग कहलाता है।
रंग, विरंग, रंगबाज़ी और होली के वास्तविक अर्थ को समझें!
Holi 2024: रंग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु 'रंज्' से हुई है; जिसका अर्थ है, 'लाल-रंग' या 'रंगे जाने योग्य'। लाल चेहरे की लालिमा है, आभा है, सूर्य का रंग है तो वैराग्य (वि+राग+य = वैराग्य) का भी रंग है। मनोरंजन में यह रंज या ‘रंग’ मन को ‘रंगता’ है, वहीं ‘अनुरंजन’ में भक्ति के रंग में रंग जाने का बोध है। होली के अवसर पर प्रियतम या प्रियतमा के चेहरे को रंगीन-मिजाज होकर रंगें या शरारत में किसी और के चेहरे को रंगें; यह होगी ‘रंगबाज़ी’ या ‘रंगदारी’ ही।
यहां एक प्रश्न : होली ‘रंग-बिरंगी’ होती है या ‘रंग-विरंगी’? बाज़ार में ‘रंग-विरंगे’ गुब्बारे मिलते हैं या ‘रंग-बिरंगे’?? विचारणीय है कि ‘वि’ एक उपसर्ग है; जबकि ‘बि’ कोई उपसर्ग नहीं है। रंग में ‘वि’ उपसर्ग के योग से ‘विरंग’ शब्द बनेगा; जिसका अर्थ है– विशेष रंग। आजकल ‘विरंग’ को ही अज्ञानवश ‘बिरंग’ लिख दिया जाता है।
ध्यातव्य है कि रंगबाज़ी एक संकर शब्द है, जिसमें ‘रंग’ संस्कृत का है और ‘बाज़ी’ फ़ारसी-भाषा का। ‘बाज़ी’ को बाजी नहीं लिखा जा सकता; क्योंकि ‘बाज़ी’ का अर्थ है, खेल, तमाशा, कौतुक, कुतूहल, शर्त इत्यादि, जबकि बिना नुक़्ते के 'बाजी' का अर्थ है, बड़ी बहन या आपा।
रंज् कुल का ही एक शब्द है 'राग'। यह ‘राग’ आया संस्कृत के 'राग:' से। देखिए कि राग अधिक तो रंग भी अधिक, राग ख़त्म हुआ कि विरागी, बैरागी, बीतरागी हुए। हां, तब भी एक रंग रहेगा, जिसकी कुछ छटाएं हैं– डूबते सूर्य का बैरागी या जोगिया रंग, अग्नि का रंग, परिपाक का रंग, गेरुई रंग या नारंगी रंग।
रंग की बात हो तो एक ही रंग की कितनी छटाएं हैं, यह जानना रोचक है। उदाहरण के लिए, स्वयं बसंत का रंग ‘बसंती’ है, जो पीले रंग की एक छटा है। बसंती से कुछ गाढ़ा पीला हो तो ‘सरसई’(सरसों-पीला), उससे अधिक गाढ़ा हो तो ‘कनेरी’ और उससे भी अधिक गाढ़ा हो जाए तो ‘हल्दी’ रंग कहलाता है। इससे इतर पियराह, कनेरी, चम्पई, कुंदन इत्यादिक भी पीले-रंग या पीत-वर्ण की विविध छटाएं हैं। इसी प्रकार, सावन का अपना रंग भले ही ‘हरा’ माना जाता है, पर इसमें भी सबसे हलके को ‘अंगूरी’, उससे गाढ़े को ‘धानी’, चटकीले को ‘सुगापंखी’ कहा जाता है। इतना ही नहीं, यह हरा जब स्याहपन के साथ रहे तो ‘मूंगिया’ और नीलेपन के साथ ‘फ़ीरोज़ी’ (इसी को फिरोजी भी लिख दिया जाता है।) कहा जाता है। इसी प्रकार, अन्य सभी रंगों के साथ भी उनके आनुषंगिक रंगों का एक विविधवर्णी संसार है।
विचारणीय है कि होली की कोई भी चर्चा ब्रज के बिना अधूरी है। ‘ब्रज’ भगवान् श्रीकृष्ण के राग-रंग और रास की भूमि है; आध्यात्मिकता के रसधार की भूमि है। भाषिक रूप से देखें तो 'रस' से ही तो रास बना है। जहां रस का प्राचुर्य है, वहां 'रास' है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह के रूप में 'रास' का वर्णन है। कृष्ण के आकर्षण में जब गोपियां ब्रज में आती हैं तो रस-धार बहती है, जो ‘रास’ है। रास में ‘रस’ की धारा बहती है।
राधा क्या है? राधा शब्द की व्युत्पत्ति 'राध्' धातु से है, जिसमें मनाने और प्रसन्न करने का भाव है। राधा कृष्ण को प्रसन्न कर सकीं और हम ‘राधे-राधे’ कहकर कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। 'राध्' धातु से ही ‘आराधन’ शब्द बना है। [आ + राध् + ल्युट् = आराधन]
हमने भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से देखा कि 'राध्' से राधा शब्द की व्युत्पत्ति है, जिससे आराधना आदि शब्द बने हैं; परंतु विचारणीय है कि साहित्यिक अर्थ में राधा 'धारा' का विलोम है; विपर्यय है। राधा–धारा–राधा। जो धारा के विपरीत बहे, वह राधा है। ‘राधा’ अति-विशिष्ट है। उसका प्रेम विशिष्ट है। राधा ‘कृष्ण’ के कर्षण में कर्षित होती है, खिंचती है; लेकिन बांधना या मांगना नहीं जानती। राधा केवल कृष्ण की हुई; जबकि कृष्ण सबके हुए। कृष्ण का अर्थ ही है, जो सबको अपनी ओर खींचे। अस्तु, राधा के हृदय का विस्तार अपार है; क्योंकि उसका प्रेम ससीम नहीं, असीम है। वह कृष्ण को नहीं बांधती। वह प्रेम को नहीं बांधती, उसे मुक्त कर देती है। राधा की कोई मांग नहीं, कोई बंधन नहीं; इसलिए विराट् हो गई। प्रेम में विराट् (विराट अशुद्ध है।) होने का प्रतिदान यह हुआ कि प्रेमी 64 कलाओं से पूर्ण योगिराज (योगीराज अशुद्ध है।) कृष्ण हुए; ‘राधा’ उनसे भी पहले स्मरण में आती है– 'राधे-कृष्ण'। होली के संदर्भ में ही देखें तो राधा के कारण ही बरसाने वाली होली का अन्य होलियों से श्रेष्ठ स्थान है।
'होली' शब्द की चर्चा करें तो यह 'होलिका' से व्युत्पन्न हुआ है। 'होलिका' के अर्थ की कई व्याख्याओं में एक के अनुसार यह विनाशिका-शक्ति है। होलिका या विनाशिका शक्ति जब 'प्रह्लाद' या 'विशिष्ट आह्लाद' को अपने आग़ोश में लेती है तो उसे समाप्त नहीं कर सकती; अपितु स्वयं समाप्त हो जाती है। मान्यता है कि हिरण्यकशिपु अपने पुत्र भक्त प्रह्लाद को मारना चाहता था। उसकी बहन होलिका ‘प्रह्लाद’ को लेकर अग्नि में प्रविष्ट हुई। होलिका जल गई, प्रह्लाद सुरक्षित रहे। ज्ञातव्य है कि प्रह्लाद 'आह्लाद' की विशेष अवस्था है जो ज्ञान की अग्नि में तप कर प्राप्त होती है। वस्तुतः, होलिका का इस तरह होम हो जाना और प्रह्लाद का अक्षुण्ण रह जाना ही होली का संदेश है। इस अर्थ में होली ‘बुराई पर अच्छाई की जीत’ का त्योहार है। मन के मैल को, कालुष्य को दूर कर सबका स्वागत करने एवं नव-आरम्भ करने का त्योहार है– होली।
वेद और पुराण में होलिका शब्द का अर्थ इससे भिन्न अग्नि की "रक्षिका"शक्ति से है। पुराण में वर्णन मिलता है–
सर्वदुष्टापहो होमः सर्वरोगोपशान्तये ।
क्रियतेऽस्यां द्विजैः पार्थ तेन सा होलिका स्मृता ।।
– इससे पता चलता है कि 'होम' से सम्बन्धित होने के कारण 'होलिका' अस्तित्व में आया। कालांतर में इस 'होलिका' से संबद्ध होने के कारण अग्नि में सेंके गये चने, गेहूँ, यव आदि अन्नों का नाम भी 'होला' हो गया।
इस व्याख्या के अनुसार 'ढुंढा' राक्षसी के भय से बाल-बन्धुओं का परित्राण करने के लिये ही 'होलिका-महोत्सव' का आरंभ हुआ। भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह 'ढुंढा' 'धुंध' का ही रूप है। ऐसे में मानना होगा कि 'अज्ञानता का धुंध' ही 'ढुंढा राक्षस' है। बालकों के अज्ञान को मिटाने वाला और उन्हें 'प्रह्लाद' बनाने वाली अग्नि ही 'होलिका' है।
कमलेश कमल हिंदी के चर्चित वैयाकरण एवं भाषा-विज्ञानी हैं। भाषा और साहित्य से संबद्ध विभिन्न संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन करते रहे हैं। संप्रति– आईटीबीपी में जन संपर्क अधिकारी हैं. (आलेख में प्रस्तुत विचार इनके निजी हैं)
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