Majrooh Sultanpuri Shayari: निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए..दिल के सारे तार छेड़ देंगे मजरूह सुल्तानपुरी के ये 21 शेर
Majrooh Sultanpuri Shayari: मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरार उल हसन खान था। 1 अक्तूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे मजरूह सुल्तानपुरी पेशे से हकीम थे। ये कौन जानता था कि आगे चलकर यही हकीम देश का इतना बड़ा उर्दू कवि Majrooh Sultanpuri Poetry) बन जाएगा और हिंदी सिनेमा को ऐसे नायाब गीत (Majrooh Sultanpuri Songs) देगा, जिसका कोई तोड़ नहीं होगा।
Majrooh Sultanpuri Shayari 2 line
Majrooh Sultanpuri Shayari in HIndi: शायद ही कोई ऐसा हो जो मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीत उन्हीं में ना खो जाए। मजरूह सुल्तानपुरी की कलम में ऐसा जादू था कि उन्होंने जो भी लिखा वो सीधे लोगों के दिल तक पहुंचा। सीधी भाषा और सटीक शब्दों के चुनाव ने मजरूह सुल्तानपुरी की नज्मों को घर-घर तक पहुंचाया। उन्हें लोगों का जितना प्यार मिला उतना शायद ही किसी और शायर को मिला हो। मजरूह सुल्तानपुरी ने हिंदी सिनेमा के लिए दर्जनों सुपरहिट गीत लिखे। उनके लिखे शेर आज भी लोगों के बीच खूब लोकप्रिय हैं। आइए डालते हैं मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे चंद मशहूर शेर:
Majrooh Sultanpuri best shayari
यूं तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फ़ा होते हैं
मिलने वाले कहीं उल्फ़त में जुदा होते हैं
हाल-ए-दिल मुझ से न पूछो मेरी नज़रें देखो
राज़ दिल के तो निगाहों से अदा होते हैं
आंचल में सजा लेना कलियां जुल्फों में सितारे भर लेना
ऐसे भी कभी जब शाम ढले तब याद हमें भी कर लेना
अब सोचते हैं लाएंगे तुझ सा कहां से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्तां से हम
बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये कांपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके
Majrooh Sultanpuri famous shayari
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तेरी आरज़ू भी खो देते
आज इस एक नज़र पर मुझे मर जाने दो
उस ने लोगों बड़ी मुश्किल से इधर देखा है
वो जो मुह फेर कर गुजर जाए
हश्र का भी नशा उतर जाए
वो लजाये मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर,
उड़ी जुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज मचल गये
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते
देख जिंदा से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख
Majrooh Sultanpuri ke sher
दिल की तमन्ना थी मस्ती में मंज़िल से भी दूर निकलते
अपना भी कोई साथी होता हम भी बहकते चलते चलते
ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना
थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुबह ओ शाम करें
कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा
कुछ बता तू ही नशेमन का पता
मैं तो ऐ बाद-ए-सबा भूल गया
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह
बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह
तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए
निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए
तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या मजरूह
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को
बता दें कि मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरार उल हसन खान था। 1 अक्तूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे मजरूह सुल्तानपुरी पेशे से हकीम थे। ये कौन जानता था कि आगे चलकर यही हकीम देश का इतना बड़ा उर्दू कवि बन जाएगा और हिंदी सिनेमा को ऐसे नायाब गीत देगा, जिसका कोई तोड़ नहीं होगा।
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मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें
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