Majrooh Sultanpuri: उस 'घायल' शायर का वो गीत जिसे सुन बौखला गई थी नेहरू सरकार, दो साल जेल में रहे पर झुके नहीं
Majrooh Sultanpuri: मजरूह सुल्तानपुरी अपने गानों को नौटंकी कहा करते थे। सियासत के साथ उनका हमेशा 36 का आंकड़ा रहा। लेकिन, मार्क्स और लेनिन को पढ़ने वाले मजरूह सियासतदानों के आगे कभी न झुके। जब मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने गीतों के जरिए सत्ता से सवाल किया तो जेल की सलाखों के पीछे भी पहुंचे।
Majrooh Sultanpuri (मजरूह सुल्तानपुरी)
Majrooh Sultanpuri Poem Lyrics against Jawahar Lal Nehru: हाल ही में संसद के शीतकालीन सत्र में संविधान पर चर्चा हो रही थी। पक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर संविधान के साथ खिलवाड़ करने के संगीन आरोप लगा रहे थे। इसी बीच देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा में दावा किया कि संविधान की धज्जियां उड़ाने की शुरुआत आजादी के तुरंत बाद उस वक्त की कांग्रेस सरकार के वक्त से ही शुरू हो गई थी। निर्मला अपने इस भाषण में उस घटना का जिक्र कर रही थीं जब देश के एक मशहूर फनकार को पंडित जवाहर लाल नेहरू पर लिखे गीत के कारण जेल में डाल दिया गया था। आइए जानते हैं क्या था वह पूरा मामला:
हिंदुस्तान में एक से बढ़कर एक फनकार हुए हैं। कुछ ने अपने गीतों से लोगों के दिल जीते तो कुछ अपनी शायरी और गजलों से हमेशा के लिए अमर हो गए। 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के मुस्लिम राजपूत परिवार में एक बालक पैदा हुआ। मां-बाप ने इस बालक का नाम रखा असरार उल हसन खान। असरार के पिता पुलिस में अफसर थे। वो चाहते थे कि उनका बेटा हकीम बने। बेटे असरार ने डाक्टरी की पढ़ाई की और बन गया हकीम। लेकिन लोगों की नब्ज देखकर दवाइयां देने वाले असरार उल हसन के दिल में तो शेर-ओ-शायरी बसती थी। सो वह आगे चलकर शायर बन गए। शायर बनकर उन्होंने बॉलीवुड को एक से बढ़कर नायाब गीत दिए। उनके लिखे गीत आज भी सुने-सुनाए जाते हैं। ये वही डॉक्टर हैं, जिन्हें दुनिया मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जानती है।
मजरूह का हिंदी अर्थ है घायल। उनके गीतों में घायल दिलों की आवाज बखूबी सुनाई देती थी। जब उन्होंने मोहब्बत पर लिखा तो वह गीत आशिकों के लिए गीता कुराण बन गए तो वहीं जब मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने गीतों के जरिए सत्ता से सवाल किया तो जेल की सलाखों के पीछे भी पहुंचे। जिस काल कोठरी में अच्छे-अच्छे अपराधी पसीना छोड़ देते हैं उसके आगे मजरूह झुके नहीं। वो चाहते तो माफी मांग कर मामले से निकल सकते थे लेकिन उन्होंने इसे अपनी शान के खिलाफ समझा और दो साल सलाखों के पीछे बिताए।
मजरूह सुल्तानपुरी अपने गानों को नौटंकी कहा करते थे। सियासत के साथ उनका हमेशा 36 का आंकड़ा रहा। लेकिन, मार्क्स और लेनिन को पढ़ने वाले मजरूह सियासतदानों के आगे कभी न झुके। सन् 1947 में जब हिंदुस्तान ने गुलामी की बेड़ियां तोड़ आजादी हासिल की तो चारों ओर जश्न का माहौल था। शहर-शहर, गांव-गांव आजादी का जश्न मनाया जा रहा था। इस जश्न में मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बहुत ऊंचा बांस का कलम बनाया और उसे ही हाथों में ले सड़कों पर झूमते रहे। मजरूह का मानना था कि आजाद मुल्क में कलम की आजादी सबसे ज्यादा जरूरी है। शोषितों के लिए धड़कने वाला मजरूह का दिल इस नए आजाद मुल्क में समानता के अधिकार के लिए जंग चाहता था।
मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को अपने अंदर समेटे मजरूह सुल्तानपुरी ने आजादी के बाद एक दिन मजदूरों की एक सभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर एक गीत सुना दिया। गीत था-
"मन में जहर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा,
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए,
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए,
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए।"
अपने इस गीत में मजरूह सुल्तानपुरी ने पंडित नेहरू को कॉमनवेल्थ का दास और हिटलर का चेला तक कह दिया। ये बात तब की सत्ता को चुभ गई। इस घटना से नेहरू सरकार इस कदर नाराज हुई कि सुल्तानपुरी, बलराज साहनी सहित कई बड़े नामों को जेल में डाल दिया गया था। मजरूह सुल्तानपुरी के सामने माफी मांगने की शर्त पर जेल से रिहा करने की शर्त रखी गई। लेकिन वो नहीं माने और अगले दो साल तक जेल में ही रहे। जेल में ठूंसकर भी जब सत्ता को चैन ना आया तो उसने मजरूह सुल्तानपुरी के इस गाने पर ही बैन लगा दिया।
जेल में रहकर भी मजरूह सुल्तानपुरी के अंदर जो क्रांति की आग थी वह कम ना हुई। उन्होंने जेल में रहते हुए एक से बढ़कर एक गीत लिखे। जेल में रहने के दौरान ही उनकी बड़ी बेटी हुई। परिवार पर आर्थिक संकट आ गया। तब राज कपूर ने मजरूह का लिखा 'दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई' खरीदा और परिवार को उस वक्त हजार रुपये दिए इसके ऐवज में। गाना ब्लॉकबस्टर साबित हुआ। आज भी सुनने वाले इस गीत में खोकर रह जाते हैं।
ये कहना किसी भी तरह से गलत ना होगा कि उनके शब्दों में इंसानी भावनाओं को छूने की बेमिसाल क्षमता थी। उनके कई गाने ऐसे हैं, जिन्हें सुनते हुए ये एहसास भीतर तक बैठ जाता है मानो वो सुनने वालों के साथ संवाद कर रहे हों और आज भी कई पीढ़ियों को पार करते हुए एक अनंत छाप छोड़ते हैं।
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया- बता दें कि यह मशहूर शेर भी मजरूह सुल्तानपुरी की कलम से ही निकला था। यह शेर देश के हर उस व्यक्ति को याद है, जो शेरो-शायरी का शौक रखते हैं। जोश भरने के लिए इसका इस्तेमाल समय-समय पर कई लोगों ने किया है।
मजरूह सुल्तानपुरी हिंदी सिनेमा के पहले ऐसे गीतकार थे जिन्हें प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दोस्ती फिल्म के गीत- चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे के लिए उन्हें पहला फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। 24 मई, 2000 को वह इस आभासी दुनिया से विदा हो गए। 80 वर्ष की उम्र में निमोनिया का अटैक आया और वह हमेशा के लिए रुखसत हो गए। करीब 5 दशक तक हिंदी सिनेमा पर अपने गीतों के जरिए राज करने वाले मजरूह सुल्तानपुरी आज भी अपने लिखे नगमों में जिंदा हैं और हमेशा रहेंगे।
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मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें
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