लखनऊ के स्वाद की शान हैं ये कबाब, 100 से ज्यादा मसाले होते हैं इस्तेमाल लेकिन नाम आज भी हैं राज

जब बात जायकेदार खानों की हो तो लखनऊ का टुंडे कबाब इस लिस्ट में सबसे ऊपर होता है। टुंडे कबाब का स्वाद काफी अनोखा है। इसी अनोखे स्वाद को चखने के लिए लोग देश-विदेश से आते हैं। ऐसे में जानिए कैसे हुई टुंडे कबाब की शुरुआत और नाम के पीछे का रोचक इतिहास।

history of Tunday Kabab

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ ने सियासत के क्षेत्र में तो कई बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं। लेकिन अब इस शहर की पहचान अपने जायकेदार फूड्स के लिए की जाती है। कभी लखनऊ की पहचान नवाबों के शहर (City Of Nawabs) के रूप में की जाती थी। यहां के जायकेदार फूड्स, ऐतिहासिक इमारतें विश्व प्रसिद्ध हैं। जब बात जायकेदार खानों की हो तो लखनऊ का टुंडे कबाब इस लिस्ट में सबसे ऊपर होता है। टुंडे कबाब का स्वाद काफी अनोखा है। इसी अनोखे स्वाद को चखने के लिए लोग देश-विदेश से आते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अगर लखनऊ गए और आपने वहां का टुंडे कबाब नहीं खाया तो मतलब आपका लखनऊ जाना बेकार हुआ। इसकी दीवानगी ऐसी है कि लोग ना केवल विदेशों से आकर इसका स्वाद चखते हैं बल्कि इसे पैक करवाकर भी ले जाते हैं। नॉनवेज फूड्स में टुंडे कबाब के स्वाद की बादशाहत आज भी कायम है। अब जरा सोचिए जिस जायकेदार खाने ने 100 साल से बादशाहत कायम कर रखी है तो उसका इतिहास कैसा होगा। आज इस आर्टिकल में हम आपको टुंडे कबाब के इतिहास और कैसे ये फूड दुनियाभर के लोगों की जुबान की स्वाद बना इसके बारे में बताने जा रहे हैं।

Tunday Kabab making

कैसे पड़ा टुंडे नाम

दरअसल हाजी मुराद अली जिन्होंने टुंडे कबाब की शुरुआत की पतंग उड़ाने के बेहद शौकीन थे। एक बार पतंग उड़ाते उड़ाते उनका हाथ डैमेज हो गया जिसके बाद उन्हें अपना हाथ कटवाना पड़ा। एक हाथ ना होने की वजह से उन्हें लोग टुंडा कहकर बुलाने लगा। फिर क्या था इसे उन्होंने पहचान बना दी। यहां से टुंडे कबाब का सफर शुरू हो गया जो आज पूरी दुनिया भर में मशहूर है।

Story behind name of tunday

कहां से हुई शुरुआत

टुंडे कबाब का इतिहास काफी पुराना है। लखनऊ में इसकी शुरुआत 1905 में हुई थी। लेकिन इसकी असल शुरुआत इससे भी एक सदी पहले हुई। हाजी मुराद अली के पुरवज भोपाल के नवाब के खानसामा हुआ करते थे। भोपाल के नवाब खाने पीने के बेहद शौकीन हुआ करते थे, लेकिन उम्र के साथ उनके दांत झड़ गए जिसकी वजह से उन्हें खाने पीने में बड़ी दिक्कत होने लगी। लेकिन नवाब साहब और उनकी बेगम खाने पीने की बहुत ज्यादा शौकीन थे जिसकी वजह से ये कबाब ईजाद किया गया। कबाब को खाना बेहद आसाना था। बिना दांत वाले भी इसे आसानी से खा सकते थे। वहीं नवाब साहब और बेगम साहिबा के पेट का ख्याल रखते हुए इसमें मीट के अलावा पपीते का भी इस्तेमाला किया गया। पपीते को मिलाकर पकाने से कबाब मुंह में तुरंत घुल जाता और पाचन से जुड़ी समस्याएं भी दूर करता। इसके बाद हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया और अकबरी गेट के पास गली में छोटी सी दुकान शुरू कर दी गई। कहा जाता है कि इन कबाबों में 100 से ज़्यादा मसालों का इस्तेमाल किया जाता है।

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