वो शायर जिसने राष्ट्रपति को गलत उर्दू पर टोका तो कैंसिल हो गया सीमेंट एजेंसी का परमिट, नेहरू ने रोका फिर भी चले गए पाकिस्तान

Josh Malihabadi (जोश मलीहाबादी): भाषा को लेकर जोश इतने संजीदा थे कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी नहीं बख्शा था। दरअसल हुआ ये था कि जोश ने अपनी एक किताब पंडित नेहरू को गिफ्ट की तो उधर से जवाब मिला कि मैं आपका मशकूर हूं। यहां जोश ने तुरंत नेहरू को टोका और कहा कि मशकूर गलत शब्द है, आपका कहना चाहिए कि मैं आपका शाकिर हूं।

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जोश मलीहाबादी: वो शायर जिसने गलत उर्दू पर किसी को नहीं छोड़ा

Josh Malihabadi Life Story: उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब तीस किलोमीटर दूर मलीहाबाद नाम की जगह है। यह जगह पूरी दुनिया में अपने दशहरी आमों के लिए मशहूर है। लेकिन इस बात को पूरे यकीन से कहना थोड़ा मुश्किल है कि देश की सरहद के पार मलीहाबाद को उसके आमों के लिए जाना जाता है या उस शायर के लिए जिसे ‘शायर-ए-इंक़लाब’ कहा गया। हम बात कर रहे हैं जोश मलीहाबादी की। इसी मलीहाबाद कस्बे में जन्म हुआ था शायर जोश मलीहाबादी का। जोश के वालिद ने उन्हें शब्बीर अहमद हसन खां नाम दिया था।

शब्बीर अहमद हसन खां क्यों कहलाए जोश मलीहाबादी

शब्बीर अहमद हसन खां ने जब शायरी की दुनिया में कदम रखा तो अपना नाम जोश मलीहाबादी कर लिया। दरअसल जोश उनका तखल्लुस था और मलीहाबाद में पैदा होने के कारण वह जोश मलीहाबादी कहलाए। हालांकि मलीहाबाद के लोग सालों तक इसी ऊहापोह में रहे कि जोश मलीहाबादी पर गर्व करें या फिर गुस्सा दिखाएं। दरअसल हुआ ये था कि आजादी के 10-11 साल बाद तक भारत में रहने के बाद जोश पूरे परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए थे।

गलत उर्दू पर किसी को नहीं बख्शा

जोश का कहना था कि भारत में उर्दू का कोई भविष्य नहीं है। हालांकि पाकिस्तान जाकर भी जोश बहुत कुछ हासिल ना कर पाए। उन्हें बाद में एहसास हुआ कि पाकिस्तान में तो उर्दू मर रही है, लेकिन कम से कम भारत में उससे दिखावटी इश्क तो किया जा रहा है। उर्दू को लेकर वह इतने संजीदे थे कि गलत उर्दू पर किसी को भी टोक दिया करते थे। फिर सामने हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हों या फिर पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खां।

जब जोश ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति को टोका

जोश मलीहाबादी के पोते फ़र्रुख़ जमाल ने अपनी किताब में लिखा है कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खां की मुलाकात जोश मलीहाबादी से हुई। अयूब खां ने उन्हें ख़ुश करने के लिए कहा कि आप बहुत बड़े आलम हैं। अपनी तारीफ में कहे ये शब्द सुनकर जोश ने राष्ट्रपति अयूब खां को टोक दिया। उन्होंने कहा सही लफ़्ज़ आलिम है न कि आलम। इतना सुन जनरल अयूब नाराज़ हो गए। इस वाकये के बाद उन्होंने सरकार के संबंधित मंत्री को आदेश दे दिया कि जोश को दी गई सीमेंट एजेंसी उनसे वापस ले ली जाए। ऐसा ही हुआ भी।

प्रधानमंत्री नेहरू को भी गलत उर्दू के लिए टोका

भाषा को लेकर उनकी सनक इस हद तक थी कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी नहीं बख्शा था। दरअसल हुआ ये था कि जोश ने अपनी एक किताब पंडित नेहरू को गिफ्ट की तो उधर से जवाब मिला कि मैं आपका मशकूर हूं। यहां जोश ने तुरंत नेहरू को टोका और कहा कि मशकूर गलत शब्द है, आपका कहना चाहिए कि मैं आपका शाकिर हूं। जोश मलीहाबादी की जीवनी यादों की बारात में इस वाकये का बखूबी जिक्र है।

जोश ने उर्दू के सबसे बेहतरीन नगमानिगारों में से एक कहे जाने वाले साहिर लुधियानवी को तो सरेआम गलत उर्दू के लिए टोक दिया था। दरअसल साहिर ने अपनी मशहूर नज़्म ताजमहल में मात्र एक शब्द गलत बोल दिया था।

पाकिस्तान क्यों चले गए जोश ?

जोश मलीहाबादी जन्म और मिजाज, दोनों तरीके से हिंदुस्तानी थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि वह पाकिस्तान के हो गए। दरअसल पाकिस्तान ने उन्हें भी उसी तरह से ठगा जैसे अल्लामा इकबाल को ठगा था। हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा लिखने वाले अल्लामा इकबाल के साथ जो हुआ वही हाल खुद को हिंदी बताने वाले जोश के साथ हुआ। जोश भले उर्दू की बदहाली को हिंदुस्तान से रुखसती का कारण बताते रहे लेकिन उनके करीबी जानते थे कि मामला क्या है।

दरअसल एक बार जोश अपने बेटों के साथ किसी मुशायरे के सिलसिले में कराची गए थे। वहां पर उनका ऐसा शाही इस्तकबाल हुआ और इतनी तरह के सब्जबाग दिखाए गए कि उनके परिवार ने अपना मन बना लिया कि पाकिस्तान ही बसना है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो जोश कभी नहीं चाहते थे कि वह पाकिस्तान जाएं लेकिन उनके बेटों ने मन बना लिया था। जोश की पत्नी का दबाव था कि जहां उनके बेटे और पोते रहेंगे वहीं वह भी रहेंगी। हुआ भी यही। साल 1958 में जोश हिंदोस्तान छोड़ पाकिस्तान चले गए।

नेहरू और कलाम की कोशिश हुई बेकार

जब नेहरू को पता चला कि जोश पाकिस्तान जाने की सोच रहे हैं तो उन्होंने बतौर प्रशंसक, साथी और भारतीय प्रधानमंत्री की हैसियत से खूब कोशिश की। नेहरू सरकार ने 1954 में जोश को पद्मभूषण से नवाजा और उनकी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद करा नोबेल पुरस्कार के लिए भेजने का खाका भी तैयार कर लिया। लेकिन जोश माने नहीं। नेहरू ने उनसे कहा कि एक बार वह मौलाना अब्दुल कलाम से बात कर लें। कलाम ने भी उन्हें समझाया लेकिन जब उन्होंने देखा कि जोश जाने पर अड़े हुए हैं तो उन्होंने साफ कह दिया कि जा रहे हो तो जाओ, लेकिन मेरे जीते जी दोबारा हिंदुस्तान लौट कर ना आना। हुआ भी ठीक ऐसा ही जोश पाकिस्तान जाने के बाद पहली बार मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के निधन के बाद ही आए।

आधी अधूरी रह गई आखिरी ख्वाहिश

पाकिस्तान के इस्लामाबाद में 1982 में जोश मलीहाबादी ने आखिरी सांस ली। तब के पाकिस्तानी वजीर-ए-आजम जनरल जिया ने उनके अंतिम संस्कार में शामिल होना तक जरूरी नहीं समझा। इस नाफरमानी पर भारत में जोश के चाहने वालों ने पाकिस्तान को खूब लानतें भेजीं। जनरल जिया को यह तक कह कर शर्मिंदा किया गया कि सदर साहब, अब कोई जोश से बड़ा आदमी तो आपके मुल्क की धरती पर दफ्न होने से रहा।

मरते दम तक जोश मलीहाबादी की यही आखिरी ख्वाहिश रही कि जब भी मेरा इंतकाल हो तो मैं भारत की मिट्टी में दफनाया जाऊं। मगर बंटवारे का खेल ऐसा था कि उनकी यह ख्वाहिश पूरी न हो सकी। उनके हिस्से बस यही आया कि इस्लामाबाद में मलीहाबाद की मिट्टी से उनकी कब्र बनाई गई।

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Suneet Singh author

मैं टाइम्स नाऊ नवभारत के साथ बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर जुड़ा हूं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बलिया के रहने वाला हूं और साहित्य, संगीत और फिल्मों में म...और देखें

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