(ओम तिवारी)
2014 में जब यूपीए सरकार सवालों के घेरे में थी, और कुछ ही महीने बाद देश में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार आई, तो मीडिया से मुखातिब होते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बड़े भावुक शब्दों में एक बात कही थी, उन्होंने कहा था, ‘मुझे लगता है मीडिया के मुकाबले इतिहास मेरे साथ थोड़ी नरमी बरतेगा’. यूपीए-2 के दौरान सरकार पर भ्रष्टाचार से लेकर नीतिगत गलत फैसलों के कई तरह के आरोप लगे. सवाल व्यक्तिगत तौर पर मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर नहीं उठाए जा रहे थे, लेकिन बतौर प्रधानमंत्री कई बातों की जवाबदेही उनकी ही बनती थी इसलिए मीडिया के प्रश्न लाजमी थे. उस दिन ऐसे ही सवालों के बीच इतिहास का जिक्र छेड़कर उन्होंने सबको हैरान तो कर दिया लेकिन ये एक ऐसी हकीकत है जिसे नकारा नहीं जा सकता था.
सुशासन बाबू को किस रूप में याद करेगा बिहार
एक राजनेता, खासकर सत्ता का सुख भोग चुके नेता के लिए, इतिहास बहुत मायने रखता है. क्योंकि जनकल्याण के दावे के साथ सियासत में उतरे राजनेता ने देश या समाज पर अपनी कैसी छाप छोड़ी, जनता उन्हें किस रूप में याद रखेगी, उनके फैसलों और आचरण से क्या भला और बुरा हुआ, इनकी समीक्षा समय के साथ इतिहास के हिस्सा बन जाती है. इसलिए हर राजनेता को अपने इतिहास की चिंता सताती है. मनमोहन सिंह को भरोसा था कि इतिहास बतौर पीएम उनके कार्यकाल को उतना बुरा नहीं बताएगा जितना उस समय मीडिया बता रही थी. लेकिन क्या नीतीश कुमार भी पूरे भरोसे के साथ ऐसा दावा कर सकते हैं? उनकी विरासत क्या होगी? 15 साल तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे (और आगे भी बने रहने के संकेत हैं) ‘सुशासन बाबू’ को इतिहास किस रूप में याद करेगा?
पिछले 15 साल में बिहार में क्या बदला
यकीन के साथ कहना मुश्किल है कि नीतीश कुमार को इतिहास में दर्ज होने वाली अपनी छवि की चिंता सताती होगी या नहीं. लेकिन उनके कार्यकाल की समीक्षा तो होगी. उनसे पहले रहे बिहार के मुख्यमंत्रियों से उनकी तुलना होगी, उनके कार्यकाल के दौरान देश के दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों के कामकाज से उनकी तुलना होगी. नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत का बड़ा हिस्सा इन्हीं आकलन पर निर्भर करता है. वायदों की झड़ी लगाकर, जातीय गणित बिठाकर और मौके के हिसाब से सियासी मोहरे चलकर चुनाव जीतना और सत्ता में बने रहना एक बात होती है, और धरातल पर सामाजिक और आर्थिक बदलाव होना दूसरी बात होती है, जिसका असर आने वाली पीढ़ियों तक दिखता है, लोगों के हाव-भाव, रहन-सहन, रीति-रिवाज और सोच में नजर आता है. विश्लेषण इस बात की होगी कि क्या नीतीश कुमार बिहार में जमीनी बदलाव लाने में कामयाब हो सके? पिछले 15 साल में बिहार में क्या बदला? इसे समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर गौर कर लेते हैं.
विकास की रेस में पिछड़ता गया बिहार
सबसे पहले बात प्रति व्यक्ति राज्य विकास दर की. 1991 में जब भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार की शुरुआत हुई बिहार की प्रति व्यक्ति आय 2,660 रुपये थी, जबकि पूरे देश की प्रति व्यक्ति आय 5,365 रुपये थी और तुलनात्मक आकलन के लिहाज से देखें तो तमिलनाडु की प्रति व्यक्ति आय उस वक्त 4983 रुपये थी. वहीं 2004-05 में, नीतीश कुमार के नवंबर 2005 में मुख्यमंत्री बनने से पहले, बिहार की प्रति व्यक्ति आय 7,914 रुपये थी तो देश की 24,143 रुपये और तमिलनाडु की 30,062 रुपये थी, यानी कि देश के मुकाबले बिहार की जो प्रति व्यक्ति आय 1990-91 में 49 फीसदी तक थी वो 2004-05 में घटकर 33 फीसदी रह गई. 15 साल बाद 2019-20 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय 46,664 रुपये हुई तो पूरे देश की प्रति व्यक्ति आय 1.34 लाख रुपये और तमिलनाडु की 2.18 लाख रुपये तक पहुंच गई, यानी देश के मुकाबले बिहार की प्रति व्यक्ति आय इतने बड़े अंतराल के बाद भी देश के 34% पर अटकी रही, जबकि तमिलनाडु का आंकड़ा पूरे देश के आंकड़े से आगे बढ़ता चला गया. इससे आप पिछले 15 सालों में बिहार के विकास का अंदाजा लगा सकते हैं.
गरीबी की हालत ऐसी है कि पटना को छोड़कर बिहार के सभी जिलों में 35% से ज्यादा लोग गरीब हैं. जबकि पूरे देश का औसत 27.51% है. इसके अलावा देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र छात्र-शिक्षक और डॉक्टर-जनसंख्या का अनुपात जिन राज्यों में सबसे खराब है उनमें बिहार भी शामिल है. एक रिपोर्ट के मुताबिक जहां 2011 में पांचवी क्लास में पढ़ने वाले बिहार के 50 फीसदी बच्चे ही दूसरी क्लास की किताबें पढ़ पाते थे, 2018 तक ये आंकड़ा भी गिरकर 41 फीसदी तक पहुंच गया. आज बिहार की 52.47% आबादी निरक्षर है.
राज्य में साल 2018-19 में 15 से 29 साल की उम्र के दायरे में बेरोजगारों की तादाद 31 फीसदी थी, जबकि देश का आंकड़ा 17 फीसदी था. जो मनरेगा स्कीम बिहार में गरीबी, बेरोजगारी और पलायन को रोकने में काम आ सकती थी राज्य सरकार उसके इस्तेमाल में भी पिछड़ती नजर आई. 2019-20 में सिर्फ 20,445 परिवारों को इस स्कीम के तहत काम मिला जो कि इस रोजगार की इच्छा दिखाने वाले परिवारों की संख्या का सिर्फ 0.5% था. वहीं पूरे देश का आंकड़ा इस दौरान 7% रहा.
बिहार में थी अपराध की बहार
अब बात अपराध की. बिहार में नीतीश राज से पहले यानी 2004 में अपहरण की 2566 घटनाएं दर्ज हुईं तो 2019 तक इसकी तादाद बढ़कर 10,925 तक पहुंच गई. 2004 में बलात्कार के 1063 मामले दर्ज किए गए तो 2019 में ये आंकड़ा भी बढ़कर 1450 तक पहुंच गया. हालांकि हत्या और डकैती जैसे मामलों में जरूर कमी आई है. पूरे देश की बात करें तो एनसीआरबी के मुताबिक (2018 के तुलनात्मक डाटा के हिसाब से) बिहार अपराध के दर्ज मामलों में चौथे स्थान पर है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने पहले कार्यकाल में नीतीश कुमार ने बिहार के विकास के लिए खूब काम किए. राज्य में तेज रफ्तार में सड़कें बनीं, बिजली का नेटवर्क बढ़ा और अपराध पर काबू करने के अलावा सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी जनकल्याणकारी योजनाओं पर जोर दिया. यही वजह थी कि जनता ने उन्हें दोबारा शासन का मौका दिया. लेकिन इसके बाद राज्य में ‘सुशासन सुस्त’ पड़ गया. विकास की रफ्तार कम होती चली गई, प्रतीकवाद का प्रचलन बढ़ गया और नीतीश कुमार का ज्यादातर वक्त सियासत में बीतने लगा. कभी नरेन्द्र मोदी को लेकर बीजेपी से अलगाव, तो कभी आम चुनाव में करारी हार पर इस्तीफे का ड्रामा और येन-केन-प्रकारेण दोबारा सीएम की कुर्सी हथियाना, कभी भ्रष्टाचार के बहाने गठबंधन के साथी आरजेडी से पल्ला झाड़कर फिर से बीजेपी का दामन थामना और मोदी से दूरी रखने की ‘नैतिकता’ को भूल जाना, 2013 के बाद ‘सुशासन कुमार’ ज्यादातर अपनी कुर्सी और भविष्य सुरक्षित करते नजर आए.
नीतीश कुमार के सामने विकल्प
यहां गौर करने की बात ये है कि बिहार की सत्ता पर इतने लंबे समय तक काबिज रहने वाले नीतीश कुमार हमेशा किसी ना किसी बैसाखी के सहारे ही रहे. अकेले अपने दम पर कभी सरकार बनाने की हालत में नहीं रहे. जहां कर्पूरी ठाकुर और लालू यादव (तमाम आरोपों और विवादों के बावजूद) जैसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सामाजिक बदलाव के लिए हमेशा जाने जाएंगे. इंजीनियरिंग की डिग्री वाले नीतीश कुमार सोशल इंजीनियरिंग को अंजाम देने में नाकाम करे, हमेशा सियासी गणित पर जोर दिया, राजनीतिक बिसात पर अपना ज्यादातर वक्त शह और मात के खेल में बिताया. महिला कल्याण संबंधी कुछ योजनाओं को छोड़ दें तो उनकी विरासत किसी बड़े सामाजिक बदलाव की कभी नहीं रही.
नीतीश कुमार के पास अपना इतिहास दुरुस्त करने का रास्ता तो बचा है लेकिन ये बीजेपी के रहम-ओ-करम से ही मुमकिन होगा. क्योंकि ये मौका उन्हें तभी तक हासिल है जब तक उनके पास मुख्यमंत्री की कुर्सी है. फिलहाल तो बीजेपी ने साफ कर दिया है कि वो बिहार के सीएम बने रहेंगे. लेकिन तीसरे नंबर की पार्टी होकर सरकार का नेतृत्व करना टेढ़ी खीर से कम नहीं होता. सियासत में इतने लंबे अनुभव के बाद नीतीश कुमार को इतना तो पता है कि गठबंधन का साथी अगर आंकड़ों में भारी पड़ता हो तो सत्ता में भी हावी रहता है. विधानसभा में एक तरफ उनके सामने आरजेडी जैसा मजबूत विपक्ष होगा तो दूसरी तरफ 31 ज्यादा विधायकों के साथ गठबंधन का साथी बीजेपी उनके सिर पर सवार होगा. जो ‘मोदी राज’ के दौरान ही बिहार में बीजेपी का सीएम बनाने की ताक में बैठा मौका और दस्तूर का इंतजार कर रहा होगा. ऐसे में ज्यादा संभावना है कि नीतीश कुमार अपनी सियासी विरासत तैयार करने के बजाय एक बार फिर भविष्य संवारते ही नजर आएं.
फैसला अब सबके सामने
आगे जो दिख रहा है उसका संकेत चुनावी परिणाम के बाद वो खुद दे चुके हैं. रैलियों में आखिरी चुनाव की डुगडुगी पीटने वाले नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ होते ही अपने बयान से पलट गए. कहा उन्होंने आखिरी चुनाव नहीं इस चुनाव की आखिरी रैली की बात की थी. जाहिर है नीतीश अभी लंबी पारी खेलने की उम्मीद बांध चुके हैं. इसलिए उम्मीद के मुताबिक उन्होंने अपने तरकश में कई बाण भी जरूर रखेंगे होंगे. लेकिन सियासत के खेल में ऊंट कब किस करवट बैठ जाए किसको पता है. नीतीश जिस पार्टी का नेतृत्व करते हैं उसका इतिहास भी काफी ऊबड़ खाबड़ रहा है. एक बार बाजी हाथ से निकल गई तो नीतीश अपनी छवि दुरुस्त करने का आखिरी मौका भी चूक जाएंगे. फिर तमाम काबिलियत के बाद भी इतिहास उन्हें एक सत्तालोलुप राजनेता के रूप में ही याद करेगा.
डिस्क्लेमर: टाइम्स नाउ डिजिटल अतिथि लेखक है और ये इनके निजी विचार हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।
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