सिर्फ तलवार के दम पर भारतीय सेना ने तोप से लैस तीन देशों को दिया था हरा, 106 साल पहले दिखाई थी ऐसी बहादुरी
आजादी के बाद दुनिया तो भारतीय सेना का लोहा देख ही चुकी है, पाकिस्तान को 4 बार हरा चुकी है। जो चीन कभी धमकाता था, गलवान के बाद उसकी भी हालत खराब है। भारतीय सेना का पराक्रम आजादी से पहले भी कम नहीं था। आजादी से पहले भारत के जबांजों ने वो कारनामा कर दिखाया था, जो अमेरिका और ब्रिटेन का सपना था। भारतीय सेना ने तलवार और लाठी से ऑटोमन साम्राज्य यानी जर्मनी, ऑस्ट्रिया और हंगरी की सेना को हरा दिया था, जो तोप से लैस थे, आधुनिक हथियारों से लैस थे। इस पराक्रम को आज भी पूरी दुनिया सलाम करती है।
हाइफा की लड़ाई (Battle of Haifa)
हाइफा की लड़ाई 23 सितंबर 1918 को लड़ी गई एक निर्णायक लड़ाई थी, जिसमें ब्रिटिश सेना के मुख्य रूप से भारतीय सैनिकों ने ओटोमन साम्राज्य और उनके जर्मन सहयोगियों की सेनाओं को हराया था। यह लड़ाई प्रथम विश्व युद्ध के सिनाई और फिलिस्तीन अभियान के दौरान हुई कई लड़ाइयों में से एक थी।
आजादी से पहले भारतीय सेना का पराक्रम
भारत के स्वतंत्रता-पूर्व सैन्य इतिहास में शायद सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक हाइफा की लड़ाई है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों ने वर्तमान इजरायल में हाइफा को ओटोमन्स के शासन से मुक्त कराने में निभाई गई भूमिका है। इस युद्ध के बारे में इतिहास के पन्नों में जो दर्ज है वह जानकर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है एक तरफ जहां संयुक्त सेना की तरफ से गोले और बारूद बरस रहे थे वहीं दूसरी तरफ भारतीय कैवलरी फौज के पास तलवारें, डंडे और भाले थे।
दुनिया की अंतिम घुड़सवार सेना की सबसे बड़ी लड़ाई
पूरी दुनिया जब आधुनिक हथियारों के खौफ से जूझ रही थी। हर तरफ मंजर ये था युद्ध तोप और बंदूकों के दम पर लड़ी जा रही था। तब भारत के जांबाज घुड़सवारों ने युद्ध के मैदान में इन तोप और गोलों का डंडों और तलवार के दम पर ऐसा मुकाबला किया कि पूरी दुनिया उनके इस पराक्रम का आज भी यश गान करती है। 23 सितंबर 1918 यानी 106 साल पहले का यह संघर्ष तब से लेकर आज तक दुनिया को यह बताता रहा है कि भारतीय सेना के पराक्रम के आगे किसी की कुछ भी नहीं चलती। दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हाइफा शहर पर ऑटोमन साम्राज्य यानी जर्मनी, ऑस्ट्रिया और हंगरी का संयुक्त कब्जा था। इसी शहर को संयुक्त सेना के कब्जे से छुड़ाने के लिए भारतीय सेना के जवानों ने अपना पराक्रम दिखाया था। यह लड़ाई पूरी दुनिया की अंतिम घुड़सवार सेना की सबसे बड़ी लड़ाई के तौर पर आज भी याद किया जाता है।
मित्र राष्ट्रों के लिए काफी अहम था हाइफा
हाइफा शहर की भूमिका इसलिए मित्र राष्ट्रों के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि उनकी सेनाओं के रसद पहुंचाने का समुद्री रास्ता इसी शहर से होकर जाता था। ऐसे में भारतीय सैनिक जो ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से इस शहर पर कब्जे के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनमें से 44 वीरों ने वीरगति को प्राप्त की लेकिन, इस शहर को जीतकर इसे संयुक्त सेना के कब्जे से आजाद जरूर करा दिया।
भारतीय सेना के पास था सिर्फ तलवार, भाला और डंडा
इस युद्ध के बारे में इतिहास के पन्नों में जो दर्ज है वह जानकर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है एक तरफ जहां संयुक्त सेना की तरफ से गोले और बारूद बरस रहे थे वहीं दूसरी तरफ भारतीय कैवलरी फौज के पास तलवारें, डंडे और भाले थे। लेकिन, इन वीरे सैनिकों ने माउंट कैरमल की पथरीली पहाड़ों पर अपनी बहादुरी से इसका डटकर मुकाबला किया और संयुक्त सेना को खदेड़कर इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बहुत कठिन थी लड़ाई
ये एक ऐसी लड़ाई थी जहां युद्ध के मैदान तक चढ़ाई की वजह से ही जाना मुश्किल था। ऊपर से घोड़ों पर सवार भारतीय सेना के जवान ऐसे सैनिकों से लोहा ले रहे थे जो ऊपर बैठे थे और उनके पास गोला, बारूद, तोप और मशीन गन थे। इसके बाद भी भारतीय सूरमाओं का हौसला कहां टूटने वाला था वह आगे बढ़े और घोड़ों को लेकर युद्ध के मैदान तक पहुंच गए। फिर जमकर लड़ाई हुई और अंततः भारतीय जांबाजों ने हाइफा पर कब्जा जमा लिया।
मेजर दलपत सिंह कर रहे थे भारतीय सेना का नेतृत्व
मेजर दलपत सिंह जिन्होंने इस सेना का नेतृत्व किया था आज भी दुनिया उन्हें हीरो ऑफ हाइफा कहकर बुलाती है। मेजर दलपत सिंह इस जंग में अपनी सेना का विजय तो देख नहीं पाए और कैप्टन अमन सिंह बहादुर ने इस युद्ध में नेतृत्व करते हुए हाइफा पर भारतीय सैनिकों का कब्जा मुकर्रर किया।
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