Mahabharat Ki kahaniyan: भगवान कृष्ण ने दानवीर कर्ण को कब और क्यों दिए थे 3 वरदान, जानिए महाभारत का ये अहम प्रसंग
Lord Krishna Boon to Karna: महाभारत के युद्ध में कई महान योद्धाओं ने अपनी वीरता दिखाई, लेकिन सूर्यपुत्र कर्ण की दानशीलता और संघर्ष आज भी याद रखे जाते हैं। महाभारत के युद्ध में कर्ण ने अपने अंतिम समय में भगवान श्रीकृष्ण से तीन वरदान मांगे थे। ऐसे में चलिए जानते हैं उन वरदानों के बारे में।

सूर्यपुत्र कर्ण
कर्ण महाभारत काल के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों में से एक थे। कर्ण पांच पांडवों के सबसे बड़े भाई थे जो कि माता कुंती और सूर्य देव की संतान थे। भगवान परशुराम कर्ण के गुरु थे जिन्होंने स्वयं उनकी श्रेष्ठता को स्वीकार किया था। कर्ण का जीवन अन्याय से गुजरा था, क्योंकि जन्म से क्षत्रिय होने के बावजूद उनका पालन-पोषण सूत वंश में हुआ और समाज ने उनके साथ हमेशा भेदभाव किया।

भगवान कृष्ण से वरदान
महाभारत के युद्ध में जब कर्ण अर्जुन से पराजित होकर मृत्यु शय्या पर थे, तब भगवान कृष्ण ब्राह्मण के वेश में उनसे दान मांगने आए। अपनी दानवीरता दिखाते हुए, कर्ण ने अपने सोने के दांत तक दान कर दिए। उनकी इस उदारता से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने उन्हें तीन वरदान मांगने का अवसर दिया।

पहला वरदान
कर्ण ने अपने जीवन में बहुत अन्याय सहा था। समाज ने उन्हें सूत पुत्र कहकर अपमानित किया, जबकि वे जन्म से क्षत्रिय थे। उन्होंने पहला वरदान ये मांगा कि भविष्य में किसी भी व्यक्ति को जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव का शिकार न होना पड़े। ये वरदान समाज में समानता और न्याय की उनकी गहरी भावना को दर्शाता है।

दूसरा वरदान
महारथी कर्ण ने भगवान कृष्ण से दूसरा वरदान ये मांगा कि जब भी वे पुनर्जन्म लें तो उसी राज्य में जन्म लें जहां से उनका नाता रहा था। ये उनके भगवान कृष्ण के प्रति गहरे सम्मान और प्रेम को दर्शाता है। कर्ण दुर्योधन के प्रति अपनी निष्ठा होने के बावजूद भी भगवान कृष्ण के लिए आदर और श्रद्धाभाव रखते थे।

तीसरा वरदान
कर्ण ने तीसरा और अंतिम वरदान ये मांगा कि उनका अंतिम संस्कार किसी ऐसे स्थान पर किया जाए, जहां कभी कोई पाप या अधर्म न हुआ हो। लेकिन युद्ध के बाद ऐसा कोई स्थान नहीं बचा था। तब भगवान कृष्ण ने अपने हाथों पर ही कर्ण का अंतिम संस्कार किया और उनकी अस्थियां कर्ण प्रयाग में प्रवाहित कीं।

धर्म और कर्म का प्रतीक
कर्ण के जीवन और उनके अंतिम वरदानों से पता चलता है कि वे केवल एक योद्धा ही नहीं, बल्कि सच्चे धर्म और कर्म के प्रतीक थे। उन्होंने हमेशा अपने सिद्धांतों का पालन किया और अंत तक अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुए।

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