श्रीकृष्ण के चाचा थे अक्रूर, द्वारिका से चले जाने पर आ गयी थी दैविक आपदा
Akrura, uncle of shri krishna: बहुत ही पुण्यशाली थे अक्रूर जी। जहां रहते थे वहां कभी अकाल नहीं पड़ता था। अक्रूरजी को कंस ने भेजा था नंदगांव से श्रीकृष्ण को मथुरा लाने के लिए। महान भक्त अक्रूर का जीवन पूर्ण रूप से कैसे श्रीकृष्ण को समर्पित था आइये इस कथा में जानते हैं।
मुख्य बातें
- नंदगांव से मथुरा तक श्रीकृष्ण को अक्रूर ही लेकर गए थे
- कंस वध के बाद श्रीकृष्ण सबसे पहले अक्रूर के ही घर गए
- अक्रूर जी जहां रहते वहां कभी अकाल नहीं पड़ सकता था
Akrura, uncle of shri krishna: श्री भागवत पुराण में श्रीकृष्णावतार प्रसंग में बार− बार नाम आता है अक्रूर जी का। जो थे तो कंस की ओर से लेकिन भक्त थे भगवान श्रीकृष्ण के। श्रीकृष्ण को कंस तक ले जाने का माध्यम भी वे ही बने। लेकिन फिर भी उनकी गिनती भगवान के महान भक्तों में होती है। अक्रूर जी कौन थे और क्या था उनका श्रीकृष्ण से रिश्ता इस बारे में आइये जानते हैं क्या है कथा।
कौन थे श्रीअक्रूर जी
अक्रूर जी का जन्म यदुवंश में ही हुआ था। ये कुटुम्ब के नाते से वसुदेव के भ्राता और और श्रीकृष्ण के चाचा लगते थे। ये कंस के दरबार के एक दरबारी थे। जब अनेक उपाय करके भी कंस भगवान श्रीकृष्ण को नहीं मरवा सका तब उसने एक चाल चली। उसने एक धनुष यज्ञ रचा और उसमें मल्लों के द्वारा मरवा डालने के लिए गोकुल से गोप ग्वालों के सहित श्रीकृष्ण बलराम को बुलवाया। उन्हें आदरपूर्वक लाने के लिए अक्रूजी जी को ही भेजा गया। कंस की आज्ञा पाकर अक्रूर जी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि वो स्वयं अपने अराध्य के दर्शन करना चाहते थे। भगवान ने स्वतः ही कृपा करके ये संयोग जुटा दिया। प्रातःकाल मथुरा से रथ लेकर वे नंदगांव भगवान को लेने चले। मार्ग में श्याम सुंदर के चरण चिन्हों को देखकर उसी मिट्टी में लोटने लगे। जब श्यामसुंदर से मिले तो उन्हें हृदय से लगा लिया। जब अगले दिन प्रातः श्यामसुंदर और बलराम को मथुरा के लिए रथ से ले जाने लगे तो गोपियों ने उन्हें घेर लिया। बड़ी मुश्किल से आगे बढ़े तो मार्ग में यमुना स्नान के लिए रुके और जल में डुबकी लगायी। उसी दौरान भगवान श्यामसुंदर ने उन्हें तत्व ज्ञान करवाया। मथुरा में जब भगवान ने कंस का वध किया तो उसके बाद अक्रूरजी के घर पधारे थे। भगवान जब मथुरा को त्यागकर द्वारका पधारे तक अक्रूर जी भी उनके साथ ही गये। अक्रूर जी इतने पुण्यशील थे कि वे जहां रहते, वहां खूब वर्षा होती, अकाल नहीं पड़ता। किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते थे। एक बार वे जब किसी कारणवश द्वारका से चले गये तब द्वारका में दैविक और भाैतिक दुखों से प्रजा को बड़ा भारी मानसिक और शारीरिक कष्ट सहना पड़ा था। आखिर ने भगवान ने उनको ढुंढवाकर वापस बुलाया।
(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)
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