Disha Gyan: धार्मिक कामों में रखा जाता है दिशाओं का विशेष ध्यान, ये है इसकी वजह
Disha Gyan: देव कार्यों के लिए निश्चित है पूर्व दिशा तो यम देवता का होता है दक्षिण दिशा में वास। विविध प्रसंगों के लिए विविध दिशाएं निर्धारित की गयी हैं। आइये आपको बताते हैं किस संस्कार के लिए किस दिशा संबंधित कार्य करना रहता है शुभ। चलिए जानते हैं इनसे जुड़ी खास बातें।
- शास्त्र एवं खगोल विज्ञान में होती हैं दस दिशाएं
- हर दिशा के होते हैं अपने अलग देवता एवं महत्व
- विविध प्रसंगों में होता विविध दिशा का महत्व
Disha Gyan: चार मुख्य दिशा, चार उपदिशा और उर्ध्व यानि आकाश की ओर और अधाे यानि नीचे की ओर की दिशा मिलाकर कुल दस दिशाएं शास्त्राें के साथ खगोल विज्ञान में भी निहित हैं। बहुत बार सुना होगा कि देवा पूजा पूर्व दिशा, पितरों के निमित्त कर्म दक्षिण दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। लेकिन इसके पीछे की वजह से अधिकांश लोग अंजान ही रहते हैं।
सबसे पहले इसके पीछे के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझना जरूरी है। दिशाओं के बारे में विद्वानों का मत है कि पूर्व−पश्चिम दिशा का संबंध सूर्य आकर्षण से होता है। उत्तर−दक्षिण दिशा का नाता ध्रुवाें के चुंबकीय आकर्षण से है। देव कार्य के लिए पूर्व दिशा तय की गयी है। इसके पीछे कारण है कि ब्रह्ममुहूर्त से दोपहर तक सूर्य का आकर्षण रहने से ज्ञान तंतु विशेष रूप से एक्टिव रहते हैं। यम देवता का दक्षिण दिशा से संबंध होता है। पितरों का निवास दक्षिण दिशा की ओर होने से इनका आह्वान दक्षिण दिशा में स्थित होकर उत्तर की ओर मुख करके करते हैं। श्राद्ध करने वाले का मुख दक्षिण की ओर रहता है। सनातन धर्म में हर दिशा का एक देवता नियुक्त किया गया है, जिसे दिगपाल कहा जाता है।
दस दिशाएं और उनके देवता
- ईशान कोण दिशा− भगवान शिव
- उर्ध्व दिशा − ब्रह्म देव
- पूर्व दिशा− स्वामी गुरु और देवता इंद्र
- आग्नेय दिशा− अग्नि देव
- दक्षिण दिशा− यमराज
- नैऋत्य कोण− नैऋत्य देव
- पश्चिम दिशा− वरुण देव
- वायव्य कोण− वायु देव
- उत्तर दिशा− कुबेर
- अधाे दिशा− शेषनाग
किस कार्य के लिए निर्धारित है कौन सी दिशा
पठन, स्वाध्याय और योगा आदि के लिए उत्तर की ओर मुख रखना चाहिए। उत्तर की ओर हिमालय स्थित है इसलिए इस ओर मुख करके अध्ययन करने से ज्ञान की प्राप्ति होती है। विवाह में अक्षतारोपण के समय दूल्हे का स्थान पूर्व की तरह होने से उसकी सर्वांगीण प्रगति होती है। दुल्हन का स्थान पश्चिम कीे ओर किया जाता है। ताकि उसमें नम्रता, मृदुता जैसे कोमल गुण हों। गुरु दीक्षा ग्रहण करते समय साधक को पूर्व दिशा और गुरु की उत्तर दिशा होनी चाहिए। भवन निर्माण में दिशा ज्ञान की अनदेखी करने से वास्तु दोष उत्पन्न हो जाता है जोकि परिवार के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)
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