Rama Ekadashi Vrat Katha: यहां पढ़ें रमा एकादशी की व्रत कथा
Rama Ekadashi Vrat Katha (Kartik Ekadashi Vrat Katha): मान्यता है रमा एकादशी की व्रत कथा पढ़ने से व्यक्ति की सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। यहां देखें रमा एकादशी की व्रत कथा।
Rama Ekadashi Vrat Katha In Hindi
Rama
रमा एकादशी पूजा विधि और शुभ मुहूर्त यहां देखें
Rama Ekadashi Vrat Katha In Hindi (रमा एकादशी व्रत कथा)
हे राजन! प्राचीनकाल में मुचुकुंद नाम का एक राजा थे। जिसकी इंद्र, यम, कुबेर, वरुण और विभीषण के साथ मित्रता था। राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उसकी एक कन्या थी जिसका नाम चंद्रभागा था। जिसका विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन से हुआ। एक समय जब शोभन ससुराल आया हुआ था। उन्हीं दिनों रमा एकादशी भी आने वाली थी।
जब रमा एकादशी व्रत समीप आया तो चंद्रभागा के मन में अत्यंत सोच उत्पन्न हुआ कि मेरे पति कितने दुर्बल हैं और मेरे पिता की आज्ञा अति कठोर है। दशमी के दिन राजा ने ढोल बजवाकर सारे राज्य में घोषणा करवा दी कि एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। ढोल की घोषणा सुनते ही शोभन को अत्याधिक चिंता हुई और अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये! अब क्या करना चाहिए, मैं किसी प्रकार भी भूख सहन नहीं कर सकूंगा। ऐसा उपाय बताओ कि जिससे मेरे प्राण बच सकें, अन्यथा मेरे प्राण चले जाएंगे।
चंद्रभागा ने कहा हे स्वामी! मेरे पिता के राज में एकादशी के दिन कोई भी भोजन नहीं करता। यहां तक कि हाथी, घोड़ा, ऊंट, बिल्ली, गौ आदि भी अन्न, जल ग्रहण नहीं कर सकते, फिर मनुष्य को क्या ही है। यदि आप भोजन करना चाहते हैं तो किसी दूसरे स्थान पर चले जाएं, क्योंकि यदि आप यहां रहेंगे तो आपको अवश्य व्रत करना पड़ेगा। ऐसा सुनकर शोभन ने कहा हे प्रिये! मैं अवश्य व्रत करूंगा, जो भाग्य में होगा, वह देखा जाएगा।
इस प्रकार शोभन ने व्रत रख लिया और वह भूख व प्यास से अत्यंत पीड़ित होने लगा। जब सूर्य अस्त हो गया और रात्रि को जागरण का समय आया जो वैष्णवों को अत्यंत हर्ष देने वाला था, लेकिन शोभन के लिए अत्यंत दु:खदायी साबित हुआ। प्रात:काल होते-होते शोभन के प्राण निकल गए। तब राजा ने सुगंधित काष्ठ से उसका दाह संस्कार करवाया। परंतु चंद्रभागा ने अपने पिता की आज्ञा से अपने शरीर को दग्ध नहीं किया और शोभन की अंत्येष्टि क्रिया के बाद अपने मायके में ही रहने लगी।
रमा एकादशी व्रत के पुण्य प्रभाव से शोभन को मंदराचल पर्वत पर धन-धान्य से युक्त और शत्रुओं से रहित एक सुंदर देवपुर प्राप्त हुआ। एक समय मुचुकुंद नगर में रहने वाले एक सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ उधर से जा रहा था जहां शोभन रह रहा था और उसने शोभन को पहचान लिया, कि यह तो राजा का जमाई शोभन है वह उसके निकट गया। शोभन भी उसे पहचान कर अपने आसन से उठकर उसके पास आया और प्रणाम करके उसने उनकी कुशलता का प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल हैं। नगर में भी सब कुशल है, परंतु हे राजन! हमें आपको ऐसे देखकर आश्चर्य हो रहा है। कृप्या करके आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ।
तब शोभन ने कहा कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परंतु यह अस्थिर है। कृप्या ये स्थिर हो जाए ऐसा उपाय कीजिए। ब्राह्मण ने कहा हे राजन! यह स्थिर क्यों नहीं है और कैसे स्थिर हो सकता है? आप बताइए, फिर मैं अवश्य ही उपाय बताऊंगा। शोभन ने कहा कि मैंने इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है। इसलिए ये सब कुछ अस्थिर है। लेकिन यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को ये सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।
ऐसा सुनकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने नगर लौटकर चंद्रभागा से सब वृत्तांत कह सुनाया। ब्राह्मण के वचन सुनकर चंद्रभागा को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह ब्राह्मण से कहने लगी कि हे ब्राह्मण! ये सब बातें आपने प्रत्यक्ष देखी हैं या स्वप्न की बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण ने कहा हे पुत्री! मैंने महावन में तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा है। इतना ही नहीं देवताओं के नगर के समान उनका नगर भी देखा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह स्थिर नहीं है। किस प्रकार वह स्थिर रह सके सो उपाय करना चाहिए।
चंद्रभागा ने कहा हे विप्र! तुम मुझे वहां ले चलो। मैं अपने किए हुए पुण्य से उस नगर को स्थिर बना दूंगी। ब्राह्मण सोम शर्मा यह बात सुनकर चंद्रभागा को लेकर मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम पर गये। वामदेवजी ने सारी बात सुनकर वेद मंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक कर दिया। इस तरह से ऋषि के मंत्र के प्रभाव और एकादशी व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई।
इसके बाद वह बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पति के निकट गई। अपनी प्रिय पत्नी को देखकर शोभन अति प्रसन्न हुआ और उसे बुलाकर अपनी बाईं तरफ बिठा लिया। चंद्रभागा कहने लगी कि हे प्राणनाथ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण करें। अपने पिता के घर जब मैं आठ वर्ष की थी तब से विधिपूर्वक एकादशी का व्रत करती आ रही हूं। इस पुण्य के प्रताप से आपका यह नगर स्थिर हो जाएगा। इस प्रकार चंद्रभागा अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी। (रमा एकादशी व्रत कथा के बाद जरूर पढ़ें लपसी तपसी की कहानी)
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