Phalgun Purnima Katha In Hindi: फाल्गुन पूर्णिमा पर पढ़ें होलिका और भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद की पौराणिक कथा
Phalgun (Falgun) Purnima Vrat Katha: हिंदू धर्म में फाल्गुन पूर्णिमा का विशेष महत्व माना जाता है। क्योंकि इस दिन होलिका दहन का त्योहार मनाया जाता है। यहां जानिए फाल्गुन पूर्णिमा व्रत कथा।
Phalgun Purnima Vrat Katha
Phalgun (Falgun) Purnima Vrat Katha: फाल्गुन पूर्णिमा हिंदू वर्ष का अंतिम दिन होता है। इसलिए इस पूर्णिमा का धार्मिक रूप से विशेष महत्व माना गया है। इस दिन होलिका दहन करने की भी परंपरा है। फाल्गुन पूर्णिमा पर कई लोग व्रत भी रखते हैं। मान्यता है इस दिन विधि विधान व्रत रखने और होलिका दहन करने से व्यक्ति के जीवन की सभी परेशानियों का अंत हो जाता है। यहां जानिए होलिका दहन की पावन कथा।
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फाल्गुन पूर्णिमा व्रत कथा (Falgun Purnima Vrat Katha)
फाल्गुन पूर्णिमा की व्रत कथा अनुसार महर्षि कश्यप की पत्नी और दक्ष पुत्री दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का जन्म हुआ। दोनों ही भाई बहुत बलशाली थे। दोनों ने देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। उनके अत्याचार से देवलोक में हाहाकार मच गया था। तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध कर दिया। अपने भाई की हिरण्याक्ष मृत्यु से क्रोधित हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु को अपना शत्रु मान बैठा। वह अपने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए भगवान ब्रह्मा की तपस्या में लग गया। उधर, हिरण्यकश्यप की अनुपस्थिति में देवताओं ने दैत्यों पर आक्रमण करके स्वर्ग पर पुनः अपना अधिकार जमा लिया। हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु उस समय गर्भवती थी, जिसे देवराज इंद्र ने बंदी बनाकर अमरावती ले जा रहे थे, तभी मार्ग में उन्हें देवर्षि नारद मिल गए।
नारद जी ने इंद्र से पूछा हे देवराज! आप इसे लेकर कहां जा रहे हैं? इंद्र ने कहा- हे देवर्षि! कयाधु गर्भवती है! इसके गर्भ में हिरण्यकश्यप की दुष्टात्मा का अंश है, जिसका वध करके मैं इसे छोड़ दूंगा। इस पर देवर्षि नारद जी बोले- इसके गर्भ में तो श्री नारायण का परम भक्त पल रहा है। नारद मुनि कि ये बात सुनकर देवराज ने कयाधु को छोड़ दिया।
फिर देवर्षि नारद हिरण्यकश्यप की पत्नी को अपने आश्रम में ले आए और बोले जब तक हिरण्यकश्यप की तपस्या पूरी नहीं हो जाती, तुम आराम से यहां रह सकती हो। तब से कयाधु देवर्षि नारद के आश्रम में रहने लगी और उनके दिव्य प्रवचनों का रसपान करती रही। इसका गर्भ में पल रहे शिशु पर भी बहुत गहरा प्रभाव हुआ। कुछ समय बाद कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया।
इधर, हिरण्यकश्यप ने अपनी तपस्या पूरी कई ली और प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे मनोवांछित वरदान दिया, जिसके बाद वो अपने राज्य वापस लौट आया। कयाधु भी प्रह्लाद को लेकर अपने पति हिरण्यकश्यप के पास आ गई। प्रह्लाद जब थोड़े बड़े हुए तो उनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया।
कहते हैं कि एक दिन जब हिरण्यकश्यप अपने समस्त मंत्रियों के साथ बैठे हुए थे, तभी प्रह्लाद अपने गुरु के साथ वहां आए, और पिता को प्रणाम किया। ये देखकर हिरण्यकश्यप अति प्रसन्न हुए और बोले; वत्स प्रह्लाद! तुमने अब तक की शिक्षा के दौरान कौन सी सबसे अच्छी बात सीखी है? कृप्या मुझे बताओ।
प्रह्लाद ने कहा: पिता श्री! मैंने अब तक सबसे अच्छी बात यह सीखी है, कि जो आदि, मध्य और अंत से रहित हैं, अजन्मा हैं, जगत के पालनहार हैं, दीन दुखियों के स्वामी हैं, उन श्री हरि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं। अपने पुत्र के मुख से श्री विष्णु भगवान की भक्ति से भरे ऐसे वचन सुनकर हिरण्यकश्यप क्रोधित हो गया। उसने प्रह्लाद के गुरु पर चीखते हुए कहा: अरे मूर्ख! तूने मेरे बालक को मेरे परम शत्रु का गुणगान करने की शिक्षा क्यों दी?
प्रह्लाद के गुरु ने कहा: दैत्यराज! आप क्रोध छोड़ दें! ये बातें मैंने आपके पुत्र को नहीं सिखाई। ये सुनकर हिरण्यकश्यप को आश्चर्य हुआ उसने अपने पुत्र से पूछा तुम्हें ये उपदेश, ये शिक्षा किसने दी है? प्रह्लाद बोले: हृदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो संपूर्ण संसार के उपदेशक हैं। उनके सिवाय कोई किसी को कुछ नहीं सिखा सकता।
ये सुनकर हिरण्यकश्यप के क्रोध का कोई ठिकाना नहीं रहा वो बोला: अरे मूर्ख! मेरे सामने ये विष्णु कौन है? तू क्यों बार-बार उसका नाम ले रहा है? क्या तू इसका परिणाम जानता है?
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को हर तरीके से समझाने की कोशिश की लेकिन प्रह्लाद के मन से भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा तनिक भी कम ना हुई। यह देखकर हिरण्यकश्यप और भी ज्यादा क्रोधिक हो गया और उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी, कि इस दुरात्मा को मौत के घाट उतार दो। दैत्यराज हिरण्यकश्यप की आज्ञा अनुसार सैनिकों ने प्रह्लाद पर तरह-तरह के अत्याचार किए तथा उन्हें मारने की कोशिश की परंतु भगवान विष्णु की कृपा से वो सब प्रह्लाद का बाल भी बांका न कर पाए।
हिरण्यकश्यप ने अंत में अपनी बहन होलिका को आदेश दिया, कि वो प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ जाए, क्योंकि होलिका को ऐसा वरजान था कि अग्नि से उसे कोई हानि नहीं होगी। अपने भ्राता के कहने अनुसार होलिका भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई। वहीं प्रह्लाद हाथ जोड़कर निरंतर प्रभु ध्यान में मग्न रहे और नारायण-नारायण करते रहे। हरिकृपा से प्रह्लाद बच गए किंतु होलिका उसी आग में जलकर भस्म हो गई।
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