Purnima Vrat Katha In Hindi: आज है मार्गशीर्ष पूर्णिमा, यहां पढ़ें इसकी पौराणिक व्रत कथा

Aghan (Margashirsha) Purnima 2023 Vrat Katha: अगहन (मार्गशीर्ष) पूर्णिमा 26 दिसंबर, मंगलवार को मनाई जाएगी। इस दिन भगवान सत्यनारायण की पूजा की जाती है। जानिए मार्गशीर्ष पूर्णिमा का महत्व और व्रत कथा।

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Purnima Vrat Katha In Hindi

Aghan (Margashirsha) Purnima 2023 Vrat Katha In Hindi: पूर्णिमा व्रत कथा अनुसार द्वापर युग में एक बार माता यशोदा ने अपने पुत्र भगवान श्री कृष्ण से कहा – हे कृष्ण! तुम संसार के रचियता और पालनहार हो, आज मुझे कोई ऐसा उपाय बताओ जिसे करने से स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति हो। साथ ही उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएं। तब श्रीकृष्ण ने कहा – हे माता! मैं आपको एक अचूक उपाय विस्तार से बताता हूं। स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति के लिए बत्तीस पूर्णमासियों का व्रत करना चाहिए।

इस धरती पर एक राजा थे जिनका नाम चन्द्रहास था वे अनेक प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण ‘कातिका’ नाम की नगरी पर राज करते थे। उसी नगरी में एक धनेश्वर नाम का ब्राह्मण था जिसकी स्त्री अति सुशील और रूपवती थी। उस ब्राह्मण के घर में धन-धान्य आदि की कमी नहीं थी। लेकिन उसकी कोई संतान न होने की वजह से वह दुखी रहता था। एक दिन उस नगरी में एक तपस्वी आया। वह तपस्वी उस ब्राह्मण के घर को छोड़कर सभी घरों से भिक्षा लेता और अपना पेट भरता। एक दिन तपस्वी भिक्षान्न को प्रेमपूर्वक खा रहा था कि ब्राह्मण धनेश्वर ने योगी को यह सब कार्य करते देख लिया।

धनेश्वर योगी सेके पास जाकर बोला – महात्मन् ! आप सभी घरों से भिक्षा लेते हैं लेकिन मेरे घर कभी नहीं आते, मैं इसका कारण क्या हैजान सकता हूं? योगी ने कहा कि निःसन्तान के घर की भीख पतितों के अन्न के तुल्य होती है और ऐसे में जो भी पतितों का अन्न खाता है वह भी पतित हो जाता है। चूंकि तुम निःसन्तान हो इसलिए मैं तुम्हारे घर की भिक्षा नहीं लेता हूं। योगी की इस बात से धनेश्वर को बहुत दुख हुआ और वह योगी के पैरों पर गिर पड़ा।कहने लगा – हे महाराज! कृप्या करके मुझको पुत्र प्राप्ति का उपाय बताइये। मैं पुत्र न होने के कारण बेहद दुखी रहता हूं। सबकुछ होते हुए भी मैं खुश नहीं हूं। आप मेरे इस दुख को दूर करने का उपाय बताएं। यह सुनकर योगी कहने लगे – हे ब्राह्मण! तुम चण्डी की आराधना करो।

योगी के कहे अनुसार धनेश्वर ने वन में जाकर चण्डी की उपासना की और उपवास किया। चण्डी ने सोलहवें दिन उसे सपने में आकर दर्शन दिए और कहा – हे धनेश्वर! तेरे पुत्र होगा, लेकिन वह सोलह वर्ष की आयु तक ही जीवित रहेगा। लेकिन यदि तुम दोनों स्त्री-पुरुष बत्तीस पूर्णमासियों का व्रत करोगे तो वह दीर्घायु प्राप्त करेगा। प्रातःकाल तुम्हें इस स्थान के समीप ही एक आम का वृक्ष दिखेगा, उस पर चढ़कर एक फल तोड़कर शीघ्र ही अपने घर जाना और वह फल अपनी स्त्री को खिला देना। ऋतु-स्नान के बाद वह स्वच्छ होकर भगवान शंकर का ध्यान करके उस फल को खा लेगी। तब शंकर भगवान् की कृपा से उसको गर्भ हो जायगा।

धनेश्वर ने ठीक वैसा ही किया और उसकी स्त्री गर्भवती हो गई। देवी जी की असीम कृपा से उन्हें एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम उन्होंने देवीदास रखा। दुर्गा जी की आज्ञानुसार उसकी माता ने बत्तीस पूर्णमासी का व्रत रखना प्रारम्भ कर दिया था। सोलहवां वर्ष लगते ही देवीदास के माता-पिता को चिन्ता होने लगी कि कहीं उनके पुत्र की इस वर्ष मृत्यु न हो जाए। धनेश्वर ने देवीदास के मामा को बुलाया और कहा कि देवीदास एक वर्ष तक काशी में जाकर विद्याध्ययन करे ऐसी हमारी इच्छा है। इसके साथ में तुम चले जाओ और एक वर्ष के बाद इसको वापस लौटा लाना। इस तरह देवीदास को एक घोड़े पर बैठकर अपने मामा के साथ काशी के लिए निकल पड़ा।

धनेश्वर ने अपने पुत्र की दीर्घायु के लिए भगवती दुर्गा की आराधना और पूर्णमासियों का व्रत करना शुरू कर दिया। इस प्रकार बराबर बत्तीस पूर्णमासी का व्रत पूरा किया। कुछ समय बाद मामा और भान्जा किसी नगर में रात बिताने के लिए ठहरे हुए थे, उस दिन उस गांव में एक ब्राह्मण की कन्या का विवाह होने वाला था। जिस धर्मशाला में वर और उसकी बारात ठहरी हुई थी, वहीं देवीदास और उसके मामा भी ठहरे हुए थे। संयोग से कन्या को तेल आदि चढ़ाकर मण्डप आदि का कृत्य किया गया तो लग्न के समय वर को धनुर्वात हो गया।

तब वर के पिता की नजर यह देवीदास पर पड़ी और उन्होंने सोचा कि ये मेरे पुत्र जैसा ही सुन्दर है, मैं क्यों न इसके साथ ही उस कन्या का लग्न करा दूं और बाद में विवाह के अन्य कार्य मेरे लड़के के साथ हो जाएंगे। ऐसा सोचकर वर का पिता देवीदास के मामा से जाकर बोला कि तुम थोड़ी देर के लिए अपने भान्जे को हमें दे दो और उसने अपनी योजना उन्हें बताई। तब उसका मामा कहने लगा कि जो कुछ भी मधुपर्क आदि कन्यादान के समय वर को मिले वह सब हमें दे दिया जाए। तो ही मेरा भान्जा इस बारात का दूल्हा बनेगा।

यह बात वर के पिता ने स्वीकार कर ली और इस तरह से देवीदास का विवाह उस कन्या के साथ हो गया। पत्नी के साथ वह भोजन न कर सका और अपने मन में सोचने लगा कि न जाने यह कैसी स्त्री होगी। लड़के को ऐसा करना सही नहीं लगा और उसके आंख में आंसू आ गए। तब वधू ने पूछा कि क्या बात है? आप इतने दुखी क्यों हैं? तब उसने सब बातें लड़की को बतला दी। तब कन्या कहने लगी कि अब हमारी शादी हो गई है। देव, ब्राह्मण और अग्नि के सामने मैंने आपको ही अपना पति बनाया है इसलिए अब आप ही मेरे पति हैं। अब मैं आपकी ही पत्नी रहूंगी, किसी अन्य की नहीं।

तब देवीदास ने कहा – ऐसा मत करिए क्योंकि मेरी आयु कम है, मेरे बाद आपकी क्या गति होगी इन बातों पर जरूर विचार कर लें। परन्तु वह दृढ़ विचार वाली थी, बोली कि जो आपकी गति होगी वही मेरी गति होगी। इसके बाद देवीदास और उसकी पत्नी दोनों ने भोजन किया और शेष रात्रि वे सोते रहे। प्रातःकाल देवीदास ने अपनी पत्नी को एक अंगूठी दी, एक रूमाल दिया और बोला – हे प्रिये! इसे लो और संकेत समझकर स्थिर चित्त हो जाओ। यदि मैं जीवित रहा तो अवश्य वापस आऊंगा वरना समझ लेना मेरी मृत्यु हो गयी है। प्रातःकाल जब शादी के कार्य पूरा होने के बाद सब बाराती मण्डप में आए तो कन्या ने अपने पिता से कहा कि यह मेरा पति नहीं है और पूरी बात अपने पिता को बता दी। बारात वापस चली गई।

इस प्रकार देवीदास काशी चला गया। कुछ समय बात काल से प्रेरित होकर एक सर्प रात्रि के समय देवीदास को डसने के लिए वहां पर आया परन्तु व्रत के प्रभाव से उसको काट न सका। क्योंकि पहले ही उसकी माता ने बत्तीस पूर्णिमा का व्रत पूरा कर लिया था। इसके बाद मध्याह्न के समय स्वयं काल वहां आकर देवीदास के शरीर से उसके प्राणों को निकालने का प्रयत्न करने लगा जिससे वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसी समय पार्वती जी के साथ श्रीशंकर जी वहां पर आ गए। उसको मूर्छित दशा.में देखकर पार्वती जी ने भगवान् शंकर से कहा हे महाराज! ये वही बालक है जिसकी माता ने बत्तीस पूर्णिमा का व्रत किया था, जिसके प्रभाव से इसका मृत्यु दोष कट गया। भवानी के कहने पर भगवान् शिव जी ने उसको प्राण दान दे दिया।

उधर उसकी स्त्री उसकी प्रतीक्षा कर रही थी जब सोलहवां वर्ष व्यतीत हो गया तो देवीदास भी अपने मामा के साथ काशी से चल दिया और वो कुछ दिन बाद अपनी पत्नी के घर पहुंच गया। लड़की के पिता ने खूब धन के साथ अपनी पुत्री को उसके साथ विदा किया।

श्रीकृष्ण भगवान कहने लगे कि इस प्रकार धनेश्वर द्वारा बत्तीस पूर्णिमाओं का व्रत रखने से उसकी पुत्र को लंबी आयु की प्राप्ति हुई। अत: जो भी स्त्रियां ये व्रत को करती हैं, वे जन्म-जन्मान्तर में वैधव्य का दुख नहीं भोगतीं और सदैव सौभाग्यवती रहती हैं। यह व्रत पुत्र-पौत्रों को देने वाला तथा सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला माना गया है।

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    TNN अध्यात्म डेस्क author

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