Story of Avatar: तीसरा अवतार लेकर भगवान श्री विष्णु ने कराया था समुद्र मंथन, जानिए ये पौराणिक कथा

Story of Avatar: भगवान श्रीविष्णु ने लिये हैं 24 अवतार। इन अवतारों की श्रेणी में कच्छप अवतार है तीसरा। जगत के हित के लिए भगवान ने कराया था समुद्र मंथन। भगवान विष्णु क्यों लेना पड़ा था तीसरा अवतार, आइये जानते है इस पर आधारित कथा और क्या हुआ था उस वक्त।

Story of Avatar

जब श्रीविष्णु भगवान ने लिया था तीसरा अवतार

तस्वीर साभार : Times Now Digital
मुख्य बातें
  • श्री विष्णु भगवान ने लिया था तीसरा अवतार कच्छप के रूप में
  • दुर्वासा ऋषि के श्राप से तीनों लोक हो गए थी लक्ष्मी जी से हीन
  • समुद्र मंथन में मंदराचल पर्वत को रखा था भगवान ने पीठ पर

Story of Avatar: धार्मिक कहानियों, पुराणाें में समुद्र मंथन का जिक्र अवश्य ही आता है। जब देव और असुरों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था और समुद्र में से तमाम बहुमूल्य वस्तुएं प्रकट हुयीं। यहां तक कि विष और अमृत भी निकले। लेकिन क्या आपको पता है कि समुद्र मंथन जिस मंदराचल पर्वत के माध्यम से पूर्ण हुआ उस पर्वत को किसने अपनी पीठ पर स्थान दिया। वो पीठ स्वयं श्री नारायण भगवान विष्णु की थी, जिन्होंने कच्छप के रूप में अवतार लेकर समुद्र मंथन पूर्ण कराया था। आइये आपको बताते हैं भगवान के इस तीसरे अवतार की पूरी कहानी।

कच्छप अवतार की कथा

दुर्वासा ऋषि के शाप से तीनों लोक श्रीलक्ष्मी रहित हो गए। तब इंद्रादि ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ भगवान विष्णु के आश्रय में पहुंचे। भगवान ने युक्ति बताते हुए कहा कि दैत्य और दानवों के साथ संधि करके क्षीर सिंधु यानि समुद्र को मथने का उपाय करें। मंदारचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ। मंथन करने पर पहले कालकूट विष निकलेगा, उसका भय न करना और फिर अनेक रत्न निकलेंगे, उनका लोभ न करना। अंत में अमृत निकलेगा, उसे मैं युक्ति से तुम लोगों को पिला दूंगा। देवताओं ने जाकर दैत्यराज बलि महाराज से संधि कर ली। देवता और दैत्य मंदराचल पर्वत को लेकर चले लेकिन थक गए। तब भगवान ने प्रकट होकर उसे उठाकर गरुड़पर रखकर सिंधु तट पहुंचे। वासुकी अमृत के लोभ से रस्सी बने। जब समुद्र मंथन होने लगा, तब देवता और असुरों के पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे किसी तरह का आधार न होने के कारण मंदराचल समुद्र में डूबने लगा। यह देखकर भगवान विष्णु ने कहा कि सबसे पहले प्रथम पूज्य देव गणेश जी का पूजन करें।

इधर देवताओं और दैत्यों ने गणपति पूजन किया उधर भगवान विष्णु ने विशाल और विचित्र कच्छप का अवतार ले लिया और समुद्र में प्रवेश करके अपनी एक लाख योजनवाली पीठ पर मंदराचल पर्वत को उठा लिया। इसके बाद बड़े वेग से देवताओं और असुरों ने बड़े वेग से समुद्र का मंथन किया।

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काफी देर तक जब अमृत नहीं निकला तो भगवान ने सहस्त्रबाहु होकर स्वयं ही दोनों ओर से मथना आरंभ किया। समुद्र से सबसे पहले कालकूट विष प्रकट हुआ, उससे तीनों लोग जलने लगे। उसे देवाधिदेव महादेव ने अपने कंठ में धारण किया। फिर और भी रत्न निकले। कामधेनु गाय को ऋषियों ने स्वीकार किया। उच्चैः श्रवा नामक अश्व को दैत्यों ने लिया। इसी तरह अन्य रत्न आदि समुद्र मंथन में निकले। अंत में अमृत कलश हाथ में लिये हुए धन्वन्तरिजी प्रकाट हुए। दैत्यों ने उनसे अमृत कलश छीन लिया। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारणकर दैत्यों से छल से अमृत कलश ले लिया और देवताओं को पिला दिया। देवताओं की पंक्ति में सूर्य और चंद्रता के मध्य एक राहु नामक दैत्य वेष बदलकर आ बैठा। उसे अमृत पिलाया ही जा रहा था कि चंद्रमा और सूर्य ने भेद बता दिया। तुरंत ही भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन कुछ अमृत बूंदे उसे मिल चुका था। इसलिए सिर कटने पर भी वह मरा नहीं। उसे ग्रहों में स्थान दिया गया। राहु अब भी सूर्य चंद्रमा से बदला लेने के लिए उनके पर्व अमावस्याऔर पूर्णिमा पर आक्रमण करता है, जिसे ग्रहण कहते हैं।

(डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्स नाउ नवभारत इसकी पुष्टि नहीं करता है।)

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