Surdas ke Dohe: श्री कृष्ण की भक्ति में सूरदास ने की कई मधुर रचनाएं, यहां देखें सूरदास के दोहे हिंदी में और उनका अर्थ, भावार्थ
Surdas ke Dohe in Hindi: महान कवि और संत सूरदास जी ने श्री कृष्ण की भक्ति में अपना जीवन समर्पित किया था। इसी भक्ति रस में डूबे उनके दोहे भी बहुत प्रचलित हैं। माना जाता है कि श्री कृष्ण ने उनकी आंखों की रोशनी लौटाई थी लेकिन वह जीवन भर 'सूरदास' ही बने रहे। यहां देखें सूरदास के दोहे हिंदी में अर्थ सहित। और पढ़ें
Surdas ke Dohe in Hindi: सूरदास के दोहे हिंदी में
Surdas ke Dohe with meaning in Hindi
1: चरन कमल बन्दौ हरि राई
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई
सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई।।
अर्थ – उपरोक्त दोहे में सूरदास जी कहते हैं कि जिस व्यक्ति पर भगवान श्री कृष्ण की कृपा हो जाए तो उसका जीवन सफल हो जाता है। जीवन से सारे दुख और कष्ट आदि नष्ट हो जाते हैं। अगर लंगड़े पर प्रभु कृपा कर दें, तो वह चलना क्या बड़े-बड़े पर्वतों को भी लांघ सकता है। अंधे पर कृष्ण की कृपा हो जाए तो वह अपनी आंखों से इस सुंदर दुनिया का दृश्य देख सकता है। भगवान की कृपा से गूंगे भी बोल उठते हैं और दुखी और गरीबों का जीवन भी खुशियों से भर जाता है। ऐसे परम दयालु देव श्री कृष्ण के चरणों में सूरदास बार-बार नमन करते हैं।
2: मैया री मोहिं माखन भावै
मधु मेवा पकवान मिठा मोंहि नाहिं रुचि आवे
ब्रज जुवती इक पाछें ठाड़ी सुनति स्याम की बातें
मन-मन कहति कबहुं अपने घर देखौ माखन खातें
बैठें जाय मथनियां के ढिंग मैं तब रहौं छिपानी
सूरदास प्रभु अन्तरजामी ग्वालि मनहिं की जानी
अर्थ – उपरोक्त दोहे में कृष्ण और यशोदा के बीच की वार्ता को सूरदास जी ने वर्णन किया है। इसके अनुसार, अपनी मैया यशोदा से श्री कृष्ण कह रहे हैं कि मुझे मेवा, मिष्ठान, पकवान और मधु कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मुझे केवल माखन ही पसंद है। इस वार्ता को एक ग्वालिन छुपकर सुन रही थी और मन ही मन सोच रही थी कि हे कृष्णा! तुमने कभी अपने घर से माखन खाया है। मेरे घर से ही तो तुम सदैव माखन चुरा के खाते हो। उपरोक्त रचना में सूरदास जी का आशय है कि श्रीकृष्ण भगवान अंतर्यामी है। बिना कुछ कहे ही वह मन की बात समझ जाते हैं। जिस तरह वे उस ग्वालिन के मन की बात जान गए थे।
3: जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लाये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥
अर्थ- ज्ञान का संदेश लेकर आए उधो से गोपियां कहती हैं- हे उधो! ज्ञान का प्रचार करने के उद्देश्य से तुम जो यहां आए हो, तुम्हारा ये व्यापार यहां नहीं चल पाएगा तुम्हे वापस लौट जाना होगा। जिनका सौदा आप लेकर आए हैं उन्हें यह बिल्कुल भी रास नहीं आने वाला है। आखिर तुम्हीं बताओ, कौन मूर्ख मीठे अंगूरों के बजाय कड़वे नीम की निम्बौरी खाना पसंद करेगा। कौन है जो अनमोल मोती को मूली के पत्तों की जगह देगा। इस पंक्ति में सूरदास जी का आशय है कि कौन साकार ईश्वर श्री कृष्ण को छोड़कर निराकार ब्रह्म की आराधना करेगा।
4: अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गुंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै।।
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै।।
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पदगावै।।
अर्थ – सूरदास जी इस रचना के माध्यम से यह कह रहे हैं कि संसार में कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें आप चाह कर भी दूसरों को नहीं समझा सकते हैं। कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिन्हें केवल महसूस किया जा सकता है, इस तरह के आनंद को केवल हमारा मन ही समझ सकता है। अर्थात् जिन चीजों से हमें परम आनंद की अनुभूति होती है, जरूरी नहीं की सामने वाले भी उसके महत्व को समझेंगे। यदि किसी गूंगे को स्वादिष्ट मिठाई खिला दी जाए तो, उसका स्वाद गूंगा चाह कर भी दूसरों को बयां नहीं कर सकता। उपरोक्त दोहे में सूरदास जी का आशय यह है कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में केवल श्री कृष्ण की ही गाथा गाई है। उनकी लीला का वर्णन करते समय सूरदास जी को जिस प्रकार की परम आनंद की अनुभूति होती है, उसे दूसरा कोई दूसरा नहीं समझ सकता।
5: गुरू बिनु ऐसी कौन करै।
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै।
भवसागर तै बूडत राखै, दीपक हाथ धरै।
सूर स्याम गुरू ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरे।।
अर्थ – सूरदास भगवान श्री कृष्ण को अपना गुरु मानते हैं और उनकी महिमा का महत्व बताते हुए सूरदास जी कहते हैं कि गुरु के बिना इस अंधकार में डूबे संसार से बाहर निकालने वाला दूसरा और कोई भी नहीं होता। अपने शिष्यों पर गुरु के अलावा ऐसी कृपा कौन कर सकता है। संसार के मोह माया के विशाल समुद्र से एक सच्चा गुरु ही अपने शिष्य को बचाता है। ज्ञान जैसी संपत्ति को गुरु अपने शिष्य को सौंपता हैं, ताकि मानव कल्याण हो सके। ऐसे गुरु को सूरदास जी बार-बार नमन करते हैं। कवि कहते हैं कि उनके गुरु श्री कृष्ण ही उन्हें इस संसार सागर में उनकी नैया पार लगाते हैं।
6: हमारे निर्धन के धन राम।
चोर न लेत, घटत नहि कबहूॅ, आवत गढैं काम।
जल नहिं बूडत, अगिनि न दाहत है ऐसौ हरि नाम।
बैकुंठनाम सकल सुख-दाता, सूरदास-सुख-धाम।।
अर्थ – सूरदास जी इस दोहे में कह रहे हैं कि संसार में जिनका कोई नहीं होता उनके श्रीराम हैं। राम नाम एक ऐसा अनोखा खजाना है जिसे कोई भी प्राप्त कर सकता है। धन-संपत्ति तो खर्च हो जाने पर वह कम हो जाता है, लेकिन राम नाम एक ऐसा अनमोल रत्न है, जिसे कितनी बार भी पुकारा जाए तो उसका महत्व कभी नहीं घटता। ये अनमोल रत्न ना तो चुराया जा सकता है, ना ही इसके मूल्य को कभी घटाया जा सकता है। राम रूपी अनमोल रत्न ना तो आग में जलता है और न ही गहरे पानी में डूबता है। यानी इस संसार में मात्र एक ही चीज सत्य है, जिसे कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता और वह है, राम नाम।
7: हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।
अर्थ – कृष्ण ने जब योग का संदेश अपने मित्र ऊधो के द्वारा गोपियों तक पहुंचाया तब गोपियों ने कृष्ण को चतुर बताते हुए कहा कि अब श्री कृष्ण ने राजनीति का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। गोपियां कहती है कि श्री कृष्ण बचपन से ही बहुत चतुर थे। इसलिए उन्होंने आज भी अपनी चतुराई से हमारे हाल जानने के लिए अपने मित्र को भेजा है। ऐसा लग रहा है जैसे श्री कृष्णा ब्रजभूमि छोड़कर बदल गए हैं। गोपियां इस बात से बेहद दुखी होती हैं कि श्रीकृष्ण स्वयं नहीं आए। गोपिया ये तक कहती हैं कि अब उन्हें कृष्णा से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि अब उनके हृदय में हमारे लिए कोई प्रेम नहीं है। श्री कृष्ण ने हमारे साथ घोर अन्याय किया है। क्योंकि राजधर्म के मुताबिक, प्रजा को सताना एक अन्याय ही है।
8: मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ।।
कहा करौन इहि के मारें खेलन हौं नहि जात
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात।।
गोरे नन्द जसोदा गोरीतू कत स्यामल गात
चुटकी दै-दै ग्वाला नचावत हँसत-सबै मुसकात।।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत।।
अर्थ – सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण के बाल रूप के एक संदर्भ का वर्णन करते हुए कहते हैं, कि श्री कृष्ण बचपन में बलराम की शिकायत करते हुए अपनी माता यशोदा से कहते हैं, कि दाऊ भैया मुझे ऐसा कहकर चिढ़ाते रहते हैं कि कान्हा तुम्हें कहीं बाहर से मोल लेकर मंगवाया गया है, तुम इस घर के नहीं हो। मुझे दाऊ भैया हर दिन चिढ़ाते हैं, जिसकी वजह से मैं खेलने भी नहीं जा रहा हूं। दाऊ भैया यह भी कहते हैं कि यशोदा मैया और नंद बाबा दोनों ही गोरे रंग के हैं लेकिन तुम तो सांवले हो। आखिर तुम्हरे मैया बाबा कौन है? ऐसा कहकर वो रोज ग्वालों के साथ खेलने चले जाते हैं और नाचते हैं। हे मैया! आप मुझे मेरी ग्लतियों पर डांटती रहती हैं, लेकिन दाऊ भैया को आप कभी कुछ भी नहीं कहती हैं। बाल कृष्ण के मुख से इतने मीठे वचन सुनकर मैया मन ही मन बस मुस्कुराती है। मैया को मुस्कुराता हुआ देख कान्हा उनसे कहते हैं- हे मैया! गौ माता की कसम खाकर कहिए की मैं आपका ही पुत्र हूं।
9: बूझत स्याम कौन तू गौरी,
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी।
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी,
सुनत रहति स्त्रवननि नन्द ढोता करत फिरत माखन दधि चोरी।।
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी।।
अर्थ- उपरोक्त सूरदास के दोहे कृष्णलीला पर है। जिसमें ब्रज में एक अनजानी सखी को देख श्री कृष्ण उनसे पूछते हैं कि मैंने तुम्हें पहले यहां कभी नहीं देखा है, तुम कहां रहती हो? और कौन हो? तुम्हारी माता कौन है? तुम्हारी बेटी मेरे साथ खेलने क्यों नहीं आती? श्री कृष्णा उस गोपी से लगातार प्रश्न करते हैं, जिसे वह शांत होकर सुनती रहती है। कृष्ण कहते हैं कि एक सखी और हमें खेलने के लिए मिल गई है। सूरदास जी अपनी रचना में श्रृंगार रस का भाव डालते हुए श्री कृष्ण, राधा और गोपियों के बीच हुए वार्ताओं को अद्भुत तरीके से पेश करते हैं।
10: मुखहिं बजावत बेनु
धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु।।
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु।।
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु।।
अर्थ: जिस पवित्र भूमि पर भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया, उसे वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं कि जिस धरती पर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं और बांसुरी बजाते हैं, ऐसे स्वर्ग रूपी ब्रजभूमि की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। ब्रजभूमि में समस्त दुखों को भूलकर मन शांत हो जाता है। यहां भगवान श्री कृष्ण के स्मरण से मन में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है। सूरदास जी अपने मन को समझाते हुए यह भी कहते हैं कि हे मन! तू इस मायावी संसार में इधर उधर क्यों भटकता है, तू सिर्फ वृंदावन में रहकर अपने श्री कृष्ण की स्तुति कर। ब्रजभूमि में रहकर ब्रज वासियों के जूठे बर्तनों से जितना भी अन्न प्राप्त हो, उसे ग्रहण करके संतोष कर और बस श्री कृष्ण की भक्ति में अपना जीवन सार्थक कर। जिस जगह पर स्वयं परमात्मा ने जन्म लिया हो उस पवित्र भूमि की बराबरी तो स्वयं कामधेनु भी नहीं कर सकती हैं।
11: धेनु चराए आवत
आजु हरि धेनु चराए आवत।
मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत।।
जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत।
आपुन टेर लेत ताही सुर हरषत पुनि पुनि भाषत।।
देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग।
सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग।।
अर्थ: सूरदास जी ने इस पंक्ति के माध्यम से श्री कृष्णा की लीला का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पहले दिन जब अपने मित्रों के संग कान्हा वन में गायों को चराने जाते हैं, तो पितांबरी धारण कर हाथ में बांसुरी लिए हुए श्री कृष्ण गायों के साथ बहुत ही अच्छे लग रहे हैं। उनके मुकुट में लगा मोर का पंख बहुत ही सुशोभित दिख रहा है। जिस प्रकार ग्वालें गायों को चराते हुए आगे बढ़ रहे हैं वह देखने लायक है। इस सुंदर दृश्य को बृजवासी के साथ नंद बाबा, यशोदा मैया और रोहिणी दूर से ही देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। गायों को चराने के पश्चात कान्हा जब पुनः लौटते हैं, तो मैया यशोदा अपने लल्ला को गले से लगाकर उनकी बलैया लेती हैं।
12: गाइ चरावन जैहौं
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं।।
ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।
तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति।।
प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।
तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ।।
तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक।।
अर्थ: उपरोक्त सूरदास के दोहे में भगवान श्री कृष्ण के बाल हठ को बताया गया है। अन्य ग्वालो द्वारा गायों को चराते देख एक दिन श्री कृष्ण अपनी मैया के सामने इस बात पर अड़ गए, कि उन्हें भी गाय चराने वन में जाना है और उन्हें वृंदावन के वनों से स्वयं अपने हाथों से स्वादिष्ट फलों का सेवन भी से करना है। नन्हे कृष्णा से मैया यशोदा कहती है कि हे कन्हैया अभी तू तो बहुत छोटा है। अपने नन्हे पैरों से तू इतना दूर कैसे चल पाएगा। और लौटते समय संध्या भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु वाले ही गायों को चराते हैं और संध्या को घर लौटते हैं। गायों को चरवाने के लिए कड़ी धूप में पूरे वन में घूमना पड़ता है। तेरा शरीर तो अभी पुष्प के समान कोमल है। तू भला कड़े धूप कैसे सहन कर पाएगा? इस तरह यशोदा मैया के समझाने के बाद भी बाल कृष्ण अपनी हठ पर अड़े रहे और मैया की सौगंध खाते हुए कहने लगे कि तेरी कसम मैया मुझे धूप और भूख नहीं सताती है। मुझे गायों को चराने के लिए कृपया जाने दो।
13: चोरि माखन खात
चली ब्रज घर घरनि यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात।।
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
.कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ।।
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम।।
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि।।
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार।।
अर्थ: पूरे ब्रज में यह बात फैल गई है कि अपने मित्रों के साथ मिलकर कृष्ण माखन चोरी करके खाते हैं। सभी गोपियां एक साथ मिलकर यह चर्चा कर रही हैं। तभी एक कहती है, कि मैंने अभी-अभी कान्हा को अपने घर में देखा। दूसरी कहती है कि कृष्ण मेरे घर में प्रवेश कर ही रहे थे, मुझे सामने देख भाग गए। इतने में एक गोपी कहती है कि यदि कान्हा मुझे मिल जाए, तो मैं आजीवन उन्हें स्वादिष्ट माखन खिलाऊं। सभी ग्वालिन लकने लगी कि यदि कृष्ण उन्हें मिल जाए तो वह उसे कहीं और जाने नहीं देगी। अन्य सखियां यह भी कहने लगी कि अगर कृष्ण मेरे हाथ लग जाए तो मैं तो उन्हें बांधकर अपने पास रख लूंगी। उनकी एक झलक पाने के लिए भी गोपियां व्याकुल रहती हैं।
14: कबहुं बोलत तात
खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।।
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।
.कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।।
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।
सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।।
अर्थ- राग रामकली में रचित सूरदास के इस दोहे में भगवान श्री कृष्णा के बाल कृणाओं का वर्णन है। एक बार कान्हा माखन खाते-खाते रूठ गए और रोने लगे, जिसके कारण उनकी आंखें भी लाल हो गई। माखन खाते हुए श्री कृष्ण कभी अपने घुटनों के बल पर मिट्टी में चलते तो कभी अपने नन्हें नन्हें पैरों पर खड़े होकर चलने का प्रयास करते, जिससे पैरों की पैजनिया झनझन बजने लगती। लीला करते हुए कान्हा कभी स्वयं अपने बालों को खींचते और आंखों से आंसू निकालते तो कभी तोतली मधुर बोली से कुछ बोलने की कोशिश करते। कृष्ण की इन प्यारी शरारतों को देख यशोदा मैया उन्हें एक क्षण के लिए भी अपने से दूर करने के लिए तैयार नहीं होती। इस तरह भगवान कृष्ण के प्रत्येक लीलाओं का आनंद यशोदा उठाती हैं, जिसे सूरदास जी ने इस दोहे मेवे प्रस्तुत किया है।
15: अरु हलधर सों भैया
कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया।।
ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया।।
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।।
अर्थ: उपरोक्त पंक्ति में सूरदास जी ने बालकृष्ण से संबंधित मधुर प्रवृत्तियों का चित्रण किया है। यह पंक्ति उस क्षण की है जब नन्हे कृष्ण अपनी माता को मैया मैया, नंद बाबा को बाबा बाबा और अपने बड़े भाई बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे। इतनी छोटी उम्र में अपनी तोतली बोली से शब्दों का उच्चारण करने लगे और थोड़े शरारती भी हो गए। एक दिन नटखट कृष्ण खेलते-खेलते दूर चले जाते हैं, तब यशोदा मैया उन्हें नाम से पुकार कर कहती हैं, लल्ला दूर मत जा नहीं तो गाय तुझे मारेगी। नन्हे कृष्ण की ऐसी लीलाओं को देख सभी गोपियां आश्चर्यचकित रह जाते हैं और बृजवासी नंद बाबा तथा यशोदा मैया को बधाइयां देते हैं।
16: भई सहज मत भोरी
जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।
नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी।।
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी।।
मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी।।
लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।।
अर्थ: भगवान श्री कृष्ण बाल रूप में अतिसुंदर लगते हैं। साथ ही बड़े शरारती भी, जिसके कारण गोपियां उनकी शिकायत यशोदा मां से कर देती हैं। एक बार श्री कृष्ण ने किसी घर से माखन चुरा कर खा लिया तो, ग्वालिन यशोदा मैया से शिकायत करने उनके घर तक पहुंच गई। गोपी कहने लगी, एरि यशोदा तेरा लल्ला मेरे घर मटकी से माखन चुराकर खा रहा था। मैंने उसे देखा तो मैं शांत भाव से उसकी लीला का आनंद उठा रही थी। लेकिन बाद में जब मैंने मटकी देखा तो उसमें से सारा मक्खन खत्म हो चुका था। इसके बाद मैंने कान्हा को पकड़ लिया जिसके पश्चात वह मेरे पैरों पर गिर कर शिकायत न करने की याचना करने लगा। उसकी आंखों में आंसू भर आए, तो मेरा भी हृदय पिघल गया और मैंने उसे छोड़ दिया।
17: हरष आनंद बढ़ावत
हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।।
बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत।
कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत।।
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।।
दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।।
अर्थ: सूरदास के इस दोहे में बालकृष्ण की उस लीला का वर्णन है जब वो अपने ही घर के आंगन में प्रसन्न चित्त होकर मन ही मन गुनगुना रहे हैं। कृष्ण अपने नन्हें पैरों पर थिरकते और स्वयं मन ही मन प्रसन्न हो रहे होते हैं। कभी वे दूर खड़ी गायों को अपने पास बुलाते, तो कभी अपने नंद बाबा को पुकारते। वो कभी बाहर निकल कर घर में वापस आ जाते, तो कभी अपने नन्हे हाथों से शरीर पर मक्खन लगाने लगते। कभी अपने ही प्रतिबिंब को अपने हाथों से मक्खन खिलाते। श्री कृष्ण के इन शरारतों को यशोदा मैया दूर खड़ी देखकर मन ही मन हर्षित हो रही होती हैं।
18: कबहुं बढ़ैगी चोटी
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी।।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी।।
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी।।
अर्थ: बाल कृष्ण दूध पीने में हमेशा आनाकानी करते और मैया के कहने पर भी दूध नहीं पीते थे। लेकिन एक दिन यशोदा ने कृष्ण को लालच देकर कहती हैं कान्हा तू प्रतिदिन कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी बलराम के जैसे लंबी और मोटी हो जाएगी। इस बात से प्रलोभित होकर श्री कृष्ण प्रतिदिन बिना नाटक किए कच्चा दूध पीने लगे। कुछ समय बाद कान्हा अपनी मैया से पूछते हैं कि मैया तूने तो बोला था कि कच्चे दूध से मेरी छोटी सी चुटिया दाऊ भैया से भी लंबी और मोटी हो जाएगी। लेकिन मेरे बाल तो पहले जैसे ही हैं। इसके लिए तू मुझे प्रतिदिन स्नान करवाकर बालों को संवारती थी और चोटी भी गूंथती थी। इसके अलावा कच्चा दूध भी पिलाती थी और माखन रोटी भी नहीं देती थी। इतना कहकर श्री कृष्ण मैया से रूठ जाते हैं। उपरोक्त रचना में सूरदास जी कहते हैं बलराम और भगवान श्री कृष्ण की जोड़ी तीनों लोकों में अद्भुत है।
19 : ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥
अर्थ- श्री कृष्ण के कहने पर जब ऊधौ मथुरा जाते है और निराकार ब्रह्म के विषय में गोपियों से वार्ता करते हैं, तो कृष्ण की भक्ति में डूबी गोपियां उल्टा उन्हें ही सच्चे ज्ञान की अनुभूति करा देती हैं, जिसका वर्णन सूरदास जी ने उपरोक्त पंक्ति में किया है। गोपियां कहती हैं, ऊधौ यह भाग्य और कर्म का खेल बड़ा ही अनोखा है। जिस तरह सागर नदियों के मधुर जल से भरा रहता है, लेकिन फिर भी समुद्र का जल खारा ही होता है। बिना गुण वाले बगुले को प्रकृति ने श्वेत रंग दिया है। लेकिन गुणों से परिपूर्ण और मधुर आवाज वाली कोयल को काले रंग का बना दिया है। इस सृष्टि में कई मूर्ख लोगों को प्रकृति ने राज सिंहासन दिया है, तो वही बुद्धिशाली लोगों को गरीब बना दिया। इस प्रकार गोपियां कृष्ण से मिलने के लिए तड़प जाहिर कर रही हैं।
20: निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥
अर्थ- भगवान श्री कृष्ण का संदेश देने बृज गए ऊधौ और गोपियों के बीच वार्ता का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं, कि जब उद्धो ब्रज भूमि में प्रवेश करते हैं तो उनकी नजर जल की एक धारा पर पड़ी, वह जल नहीं बल्कि अश्रु थे, जो श्री कृष्ण से बिछड़ने के दुख में गोपियों के बहते थे। पूछने पर गोपियां कहती हैं, बृज वासियों के लिए वर्षा ऋतु के अलावा दूसरा कोई भी मौसम नहीं होता। हमारी आंखों से अश्रु बहने के कारण काजल स्थिर नहीं रह पाता। आंसुओं को पोछते पोछते गालों और नेत्रों के नीचे काले धब्बे पड़ गए हैं। चारों तरफ केवल अश्रु की धाराएं बह रही हैं। हे कृष्ण! उदासी के कारण व्रजभूमि डूबता जा रहा है। तुम स्वयं आकर इसकी सुरक्षा क्यों नहीं करते।
21: जसुमति दौरि लिये हरि कनियां।
“आजु गयौ मेरौ गाय चरावन, हौं बलि जाउं निछनियां॥
मो कारन कचू आन्यौ नाहीं बन फल तोरि नन्हैया।
तुमहिं मिलैं मैं अति सुख पायौ,मेरे कुंवर कन्हैया॥
कछुक खाहु जो भावै मोहन.’ दैरी माखन रोटी।
सूरदास, प्रभु जीवहु जुग-जुग हरि-हलधर की जोटी॥
अर्थ- सूरदास जी इस दोहे में भगवान श्री कृष्ण के प्रथम बार गाय चराने जाने का वर्णन करते हैं। जब बाल कृष्ण पहली बार गायों को चराकर वन से वापस घर लौटे तो यशोदा मैया ने पूछा कि आज गायों को चराने पहली बार गए थे, इसलिए मैं प्रसन्न हूं लेकिन क्या तुमने वन से मेरे लिए कोई फल- फूल साथ लाए हो? इतने देर के बाद तुम्हें देख बहुत प्रसन्न हूं। हे कृष्ण तुम्हें जो भी खाने का मन है मुझे बताओ। इसके बाद कृष्णा माखन रोटी खाने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
22: संदेसो दैवकी सों कहियौ।
`हौं तौ धाय तिहारे सुत की, मया करति नित रहियौ॥
जदपि टेव जानति तुम उनकी, तऊ मोहिं कहि आवे।
प्रातहिं उठत तुम्हारे कान्हहिं माखन-रोटी भावै॥
तेल उबटनों अरु तातो जल देखत हीं भजि जाते।
जोइ-जोइ मांगत सोइ-सोइ देती, क्रम-क्रम करिकैं न्हाते॥
सूर, पथिक सुनि, मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच।
मेरो अलक लडैतो मोहन ह्वै है करत संकोच॥
अर्थ- सूरदास का यह दोहा भगवान श्री कृष्ण के मथुरा वापस लौटते समय की है जब यशोदा मैया ने देवकी के लिए एक संदेश भेजा, जिसमें लिखा था कि मैं तो आपके पुत्र की दाई हूं। मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि सदैव बनाए रखना।आप तो सबकुछ जानती हैं। फिर भी मैं स्वयं अपनी तरफ से कह रही हूं कि आपके कृष्णा को सवेरे उठकर माखन रोटी खाना बहुत पसंद है। लेकिन तेल, उबटन और ठंडे पानी को देखते ही वह दूर भाग जाता है। लाख प्रलोभन देने के बाद भी नहाता नहीं। इतना ही नहीं कृष्णा मेरे घर को पराया समझकर संकोच भी करता है, जिसका दुख मुझे सदैव रहता है।
23 : उधो, मन न भए दस बीस
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
अर्थ- श्री कृष्णा जब अपने मित्र उधो को गोपियों के पास अपना संदेश देने भेजते हैं, तो व्रजभूमि में गोपियों ने ही सत्य का बोध करवा दिया। गोपियां कहती हैं कि हम सभी के पास सिर्फ एक ही मन है, जो बहुत पहले ही कृष्ण का हो चुका है। कृष्ण के चले जाने के बाद हम सभी का मन और शरीर काम करना बंद कर दिया है। हम केवल इसी आस में जिंदा हैं की श्री कृष्ण करोड़ों वर्षों तक जीवित रहें और फिर से हमें अपने दर्शन दें। उपरोक्त दोहे में सूरदास जी भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि वे इन गोपियों की इच्छाओं को जरूर पूरा करें।
24 : निरगुन कौन देश कौ बासी
निरगुन कौन देश कौ बासी।
मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।
कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥
पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥
अर्थ- कृष्ण के ख्यालों में डूबी हुई गोपियां ज्ञान का संदेश देने आए उधो से प्रश्न करती हैं कि हे उधो तुम तो बहुत ज्ञानी हो, जिस ब्रह्म का ज्ञान देने तुम आए हो क्या तुम बता सकते हो यह ब्रह्मा निवास कहां करते हैं? हम वास्तव में जानना चाहते हैं कि आखिर उस निर्गुण निराकार ब्रह्म के माता पिता कौन हैं? वो कैसे दिखते हैं? उनका पहनावा कैसा है? और उन्हें क्या पसंद है? हमारे इस जिज्ञासा को तुम व्यंग कतई मत समझना। गोपियों के प्रश्न को सुनकर उधो खुद को ठगा सा महसूस करने लगा और गोपियों के किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका।
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