Varun Mudra जीवन से दूर करना चाहते हैं तनाव तो आदत में शामिल कर लें ये वरुण मुद्रा बनाना

Varun Mudra: हाथाें से सदैव निकलती रहती है विशेष प्रकार की प्राण उर्जा या विद्युत चुंबकीय तरंगें। इसे जीवन शक्ति या ओरा भी कह सकते हैं। स्पर्श चिकित्सा में ये उर्जा छुपी होती है। वरुण मुद्रा इसी शक्ति का एक रूप है। लगातार स्वभाव में चिड़चिड़ापन या तनाव को नियंत्रित करने का वरुण मुद्रा है अचूक साधन।

Varun Mudra

इस तरह बनाते हैं वरुण मुद्रा

तस्वीर साभार : Times Now Digital
मुख्य बातें
− सबसे छोटी उंगली और अंगूठे को मिलाने से बनती है वरुण मुद्रा − स्वभाव के चिड़चिड़ेपन और तनाव को समाप्त करती है वरुण मुद्रा − दोनों हाथों की उंगलियां करती हैं शरीर के पंच तत्वाें का प्रतिनिधित्व

Varun Mudra: भारतीय मनीषियों के अनुसार, मानव हस्त की पांचाें उंगलियां अलग− अलग पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं। हर उंगली का संबंध एक तत्व विशेष से होता है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि प्रत्येक उंगली के सिरे से अलग− अलग प्रकार की उर्जा तरंगें निकलती रहती हैं। प्राचीन भारतीय ऋषियों की अद्भुत खाेज ही है मुद्रा विज्ञान। जिसके अनुसार पंच तत्वों की प्रतीक उंगलियों को परस्पर मिलाने, दबाने, मरोड़ने या विशेष प्रकार की आकृति बनाने से विभिन्न प्रकार के तत्वों में परिवर्तन, विघटन होने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उंगलियों की सहायता से बनने वाली मुद्राओं से शरीर के पंच तत्वों को घटाया− बढ़ाया जा सकता है

इस तरह करती हैं उंगलियां पंच तत्वों का प्रतिनिधित्व

अंगूठा− अग्नि तत्व

तर्जनी− वायु तत्व

मध्यमा− आकाश तत्व

अनामिका− पृथ्वी तत्व

कनिष्ठिका− जल तत्व

वरुण मुद्रा बनाने की विधि और लाभ

सबसे छोटी उंगली यानी कनिष्ठिका को अंगूठे के अग्रभाग से मिलाने पर वरुण मुद्रा बनती है। इस तत्व की कमी से जहां त्वचा में रूखापन आता है। वहीं स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन बन जाता है। एक अजीब सा तनाव हमेशा तन− मन में बना रहता है। जिसके कारण अपने सामाजिक ढांचे को भी व्यक्ति बिगाड़ लेता है। इसके विपरीत अर्थात जल तत्व की वृद्धि होने पर कल्पना की उड़ान व्यक्ति छूने लगता है। इस स्थति में प्रतिदिन कनिष्ठिका को पहले अंगूठे की जड़ में लगाकर फिर अंगूठे से कनिष्ठिका को दबाएं। रोजाना इस मुद्रा को कम से कम पांच से दस मिनट तक बनाकर पद्मासन लगाकर बैठें।

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वरुण मुद्रा आध्यात्मिक उन्नति देने में भी विशेष भूमिका निभाती है। ये विचलित मन को शांत कर देती है, जिससे व्यक्ति का मन ध्यान में लग पाता है। सदगुरु के सानिध्य में ही मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। इससे साधक प्रसुप्त अनंत संभावनाओं को जागत करने में सफल हो जाता है। इनसे सुप्त चक्रों में विशेष आघात होता है। मुद्रा प्रयोग लगातार करने से शरीर के सातों चक्र जाग्रत होने लगते हैं। चक्रों के जाग्रत होने से व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना प्रबल होती है। वो रोग से स्वास्थ्य की ओर बढ़ पाता है। क्योंकि षटचक्रों का संबंध सीधे तौर पर पंच तत्वों से होता है और मुद्राएं पंच तत्वों को संतुलित करती हैं।

डिस्क्लेमर : यह पाठ्य सामग्री आम धारणाओं और इंटरनेट पर मौजूद सामग्री के आधार पर लिखी गई है। टाइम्‍स नाउ नवभारत इसकी पुष्‍ट‍ि नहीं करता है।

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