लखनऊ में 'रावण' के साथ नहीं जलेंगे 'कुंभकरण' और 'मेघनाद' के पुतले, वजह है बेहद खास

Kumbhakaran and Meghnad effigies: पुतले जलाने की परंपरा करीब तीन सदी पहले शुरू की गई थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक संतों द्वारा दोनों परंपराओं का संचालन किया गया। लखनऊ के नवाब भी रामलीला देखने जाया करते थे। विद्रोह के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा समारोह को आगे बढ़ाया गया।

Ravana effigies

प्रतीकात्मक फोटो

तस्वीर साभार : IANS

Kumbhakaran and Meghnad effigies burn: उत्तर प्रदेश में 300 से अधिक वर्षो के बाद ऐशबाग रामलीला समिति ने इस दशहरे पर रावण के साथ कुंभकरण और मेघनाद के पुतले जलाने की प्रथा को बंद करने का निर्णय लिया है।आयोजकों ने कहा, इसका कारण यह है कि सभी रामायण ग्रंथों में उल्लेख है कि कुंभकरण और मेघनाद ने रावण को भगवान राम के खिलाफ लड़ने से रोकने की कोशिश की थी, वह भगवान राम को विष्णु का अवतार मानते थे, लेकिन जब रावण ने उनकी सलाह नहीं मानी तो उन्हें युद्ध में भाग लेना पड़ा।

यह विचार सबसे पहले ऐशबाग दशहरा और रामलीला समिति के अध्यक्ष हरिश्चंद्र अग्रवाल और सचिव आदित्य द्विवेदी ने पांच साल पहले रखा था, लेकिन अन्य सदस्यों ने इसे इस आधार पर खारिज कर दिया कि तीनों का पुतला जलाना 300 साल पुरानी परंपरा का हिस्सा है।

द्विवेदी ने कहा, 'रामचरितमानस और रामायण के अन्य संस्करणों से पता चलता है कि रावण के पुत्र मेघनाद ने उनसे कहा था कि भगवान राम विष्णु के अवतार थे और उन्हें उनके खिलाफ युद्ध नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर, रावण के भाई कुंभकरण ने उन्हें बताया कि सीता जिसे लंका के राजा ने अपहरण कर लिया था, वह कोई और नहीं, बल्कि जगदंबा है और अगर वह उन्हें मुक्त नहीं करता है, तो वह अपने जीवन में सब कुछ खो सकता है। हालांकि, रावण ने उनके सुझावों को नजरअंदाज कर दिया और उन्हें लड़ने का आदेश दिया। इसलिए, हमने मेघनाद और कुंभकरण के पुतले नहीं जलाने का फैसला किया है।'

अग्रवाल ने बताया, "काफी बहस और चर्चा के बाद हम इस साल सभी सदस्यों को यह समझाने में सफल रहे कि इस परंपरा को खत्म करने की जरूरत है।"माना जाता है कि रामलीला और दशहरा समारोह 16वीं शताब्दी में ऋषि-कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा ऐशबाग में शुरू किया गया था।

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