May 1, 2024
'किसी चराग़ का अपना मकां नहीं होता..', रूह को छू लेंगे वसीम बरेलवी के ये शेर
Suneet Singhअपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे, तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे।
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा, किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता।
आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है, भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है।
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता, तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता।
वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से, मैं ए'तिबार न करता तो और क्या करता।
रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी, देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है।
वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाए, ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता।
आते आते मिरा नाम सा रह गया, उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया।
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ, कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ।
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