Apr 29, 2024

'ऐब भी करने को हुनर चाहिए..', किसी का भी मन मोह लेंगी मीर की ये शायरी

Suneet Singh

आए हो घर से उठ कर मेरे मकाँ के ऊपर, की तुम ने मेहरबानी बे-ख़ानुमाँ के ऊपर।

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जैसे बिजली के चमकने से किसू की सुध जाए, बे-ख़ुदी आई अचानक तिरे आ जाने से।

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शिकवा-ए-आबला अभी से 'मीर', है पियारे हनूज़ दिल्ली दूर।

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जाए है जी नजात के ग़म में, ऐसी जन्नत गई जहन्नम में।

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मेहर-ओ-मह गुल फूल सब थे पर हमें, चेहरई चेहरा हमें भाता रहा।

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काश उस के रू-ब-रू न करें मुझ को हश्र में, कितने मिरे सवाल हैं जिन का नहीं जवाब।

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शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में, ऐब भी करने को हुनर चाहिए।

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रोते फिरते हैं सारी सारी रात, अब यही रोज़गार है अपना।

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दावा किया था गुल ने तिरे रुख़ से बाग़ में, सैली लगी सबा की तो मुँह लाल हो गया।

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