Apr 27, 2024
तपती दोपहरी में हरे पेड़ के छांव की तरह हैं तहज़ीब हाफ़ी के ये शेर
Suneet Singhमैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ, पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे।
तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया, इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया।
ये एक बात समझने में रात हो गई है, मैं उस से जीत गया हूँ कि मात हो गई है।
वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं, वो पेड़ मुझ से कोई बात क्यूँ नहीं करता।
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ, समुंदरों से अकेले में बात करनी है।
मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर, ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है।
मैं जिस के साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ, वो मेरे साथ बसर रात क्यूँ नहीं करता।
तुझ को पाने में मसअला ये है, तुझ को खोने के वसवसे रहेंगे।
नींद ऐसी कि रात कम पड़ जाए, ख़्वाब ऐसा कि मुँह खुला रह जाए।
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