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पंजाब चुनाव: रविदासी क्यों इतने अहम ? जानें 50 सीटों की दलित राजनीति

Updated Jan 18, 2022 | 18:07 IST

Punjab Assembly Election 2022: पंजाब में दलित समाज की 32 फीसदी आबादी है। इसमें रविदास समाज 20 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी रखता है। कांग्रेस ने चुनावों से पहले चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाकर बड़ा दांव चल दिया है।

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तस्वीर साभार:&nbspANI
पंजाब में दलित राजनीति चरम पर
मुख्य बातें
  • संत रविदास जंयती को देखते हुए चुनाव आयोग ने 14 फरवरी को पंजाब में होने वाले चुनाव की तारीख बदलकर 20 फरवरी कर दी है।
  • अकाली दल और बसपा गठबंधन ने 2022 के चुनावों के लिए डिप्टी सीएम पद दलित को देने का वादा किया है।
  • बसपा के संस्थापक कांशीराम ने पंजाब से ही अपनी दलित राजनीति शुरू की थी।

नई दिल्ली: पंजाब में अब 14 फरवरी को होने वाला मतदान अब 20 फरवरी को होगा। मतदान टलने की वजह संत रविदास जयंती है। 16 फरवरी को संत रविदास जयंती होने के कारण, सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग से एक स्वर में चुनाव टालने की अपील की थी। असल में चुनावी मौसम में करीब 80 लाख आबादी वाले दलित समाज की नाराजगी मोल लेने को कोई भी दल खतरा नहीं ले सकता था। 

117 सीटों वाली पंजाब विधानसभा की 23 सीटें दोआब क्षेत्र से आती हैं। जहां पर रविदास समाज के ही 10-12 लाख लोग रहते हैं। इसके अलावा पूरे पंजाब में दलित समाज की 32 फीसदी आबादी है। जो कि पूरे देश में किसी राज्य में सबसे ज्यादा रहने वाली दलित आबादी है। इस तरह करीब 45-50 सीटों पर दलित समाज का सीधा प्रभाव है। राज्य में 34 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। जो चतुष्कोणीय मुकाबले में राजनीतिक दलों के लिए काफी अहम रखता है।

रविदास जयंती का क्या है महत्व

हर साल संत रविदास जयंती के अवसर पर  लाखों दलित जाति के लोग पंजाब से बनारस जाते हैं। बनारस संत रविदास की जन्मस्थली और कर्मस्थली रही है। रविदासियों के सबसे बड़े डेरा सचखंड बालन की ओर से चलाई जाने वाली एक विशेष ट्रेन से भी  बड़ी संख्या में लोग बनारस पहुंचते हैं। 16 फरवरी को रविदास जंयती की वजह से बहुत से लोग 14 फरवरी को चुनावों में मौजूद नहीं रहते । इसीलिए कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, भाजपा सहित सभी दलों ने चुनाव टालने की बात कही थी।

पंजाब में 32 फीसदी के करीब दलित आबादी है। एक अनुमान के मुताबिक, इनमें से लाखों लोग हर साल वाराणसी जाते हैं। जाहिर है जब इतनी बड़ी आबादी चुनावों के दौरान अपने घरों में नहीं रहेगी तो उसका खामियाजा राजनीतिक दलों को ही उठाना पड़ेगा।

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कौन हैं रविदासिया 

पंजाब के डेरों में डेरा सचखंड साहिब बालन रविदासियों  का डेरा कहा जाता है। डेरा सच खंड की स्थापना 70 साल पहले संत पीपल दास ने की थी। जिनके करीब 15 लाख अनुयायी हैं। रविदासिया समाज की वजह से ही पंजाब में बड़े स्तर पर दलित आंदोलन चला। और समाज में छुआछूत और भेदभाव को खत्म करने का आंदोलन चलाया गया।

कांग्रेस ने खेला दलित कार्ड

 पिछले साल पंजाब कांग्रेस में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच कुर्सी के लिए खींचतान चल रही थी। उस वक्त कांग्रेस ने दलित वोटरों को लुभाने के लिए बड़ा दांव चला था। और दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया। साफ है कि कांग्रेस चन्नी के जरिए 32 फीसदी दलित वोट पर नजर गड़ाए हुए हैं। पार्टी को पिछले चुनावों में दलित प्रभाव वाले मांझा और दोआब क्षेत्र से  अच्छी खासी सीटें मिली थी। मांझा से कांग्रेस को 25 में से 22 सीटें और दोआब से 22 में से 15 सीटें मिलीं थीं।

अकाली दल ने भी डिप्टी सीएम का वादा किया

इस बार भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ रहे शिरोमणि अकाली दल (बादल गुट) ने बसपा के साथ गठबंधन किया है। साथ ही उसने वादा किया है कि अगर उसके गठबंधन की सरकार बनी तो डिप्टी सीएम दलित होगा। लेकिन कांग्रेस ने पहले ही दलित सीएम बनाकर,उसके दांव को कमजोर कर दिया है।

इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने अनुसूचित जाति सम्मान सभा की शुरूआत की है। साथ ही पार्टी दलितों को लुभाने के लिए मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य, छात्रवृत्ति का वादा कर रही है।

कांशीराम ने पंजाब से शुरू की थी दलित राजनीति

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशी राम पंजाब के होशियारपुर जिले के रहने वाले थे। उन्होंने पंजाब से ही अपनी दलित राजनीति शुरू की थी। लेकिन 32 फीसदी आबादी वाले दलित राज्य में बसपा, यूपी जैसा मुकाम नहीं बना पाई। पार्टी को 2017 के चुनावों में केवल 1.5 फीसदी वोट मिले थे। इसके पहले वह 1997 में अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ चुकी थी, उस वक्त उसे 7.5 फीसदी वोट मिले थे। इसकी बड़ी वजह यह रही है कि राज्य में दलित समाज भी मजहबी सिख, रविदासिया समाज, आधी धर्मी और वाल्मिकी में बंटा हुआ है। अब देखना है कि 2017 का चुनाव में दलित मतदाता किस तरह वोट देता है।

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