गुरुवार 30 सितंबर को भवानीपुर विधानसभा उपचुनाव के लिए होने वाला मतदान पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए ‘अहम’ चुनाव है। इस चुनाव के नतीजे का असर ममता का राजनीतिक भविष्य तय करेगा। ममता हारी जिसकी उम्मीद कम है तो ऐसे में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गवानी पड़ सकती हैं। यहां भाजपा ममता बनर्जी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है। पार्टी ने ममता के मुकाबले प्रियंका टिबरीवाल को मैदान में उतारा है। ममता बनर्जी ने इस साल की शुरुआत में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान नंदीग्राम से चुनाव लड़ा था, लेकिन शुभेंदु अधिकारी से हार गईं। राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने चुनाव के दौरान वोटिंग में गड़बड़ी और हिंसा की आशंका जताई है। खासकर भवानीपुर में बीते दिनों राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिलीप घोष पर हुए हमले के बाद से लगातार इस मुद्दे को उठा रही है।
ममता बनर्जी के लिए इस उपचुनाव के मायने
अप्रैल-मई में हुए चुनाव में नंदीग्राम सीट शुभेंदु अधिकारी से हारने के बावजूद उनकी पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में चुना। उन्होंने पांच मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन संविधान के मुताबिक उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के छह महीने के भीतर पांच नवंबर तक विधानसभा का सदस्य होना जरूरी है। ऐसे में ममता ने दूसरी बार के लिए कोई चांस न लेते हुए भवानीपुर को चुना, क्योंकि ये उनकी पारंपरिक सीट रही है। ममता बनर्जी ने 2011 और 2016 में भवानीपुर से जीत हासिल की थी। राज्य में विधान परिषद नहीं होने से भवानीपुर उपचुनाव शायद उनके राजनीतिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव है। अगर वह जीत जाती है, तो उन्हें राज्य विधासनभा की सदस्य बनने का मौका मिलेगा। वो बंगाल की मुख्यमंत्री बनी रहेंगी।
क्या है भवानीपुर सीट का इतिहास
यह सीट टीएमसी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गई है क्योंकि साल 2011 से 2019 के बीच जो चुनाव हुए, उसमें भाजपा लगातार यहां मजबूत होती और टीएमसी का वोट शेयर घटता गया। 2011 में ममता यहां 54 हजार वोटों के अंतर से जीती थीं, लेकिन 2016 में यह कम होकर 25 हजार पर आ गया। वहीं 2011 में भाजपा को जहां इस सीट पर केवल 5078 वोट मिले थे, लेकिन 2014 पार्टी को 47 हजार वोट मिले थे। ममता यदि चुनाव जीत गईं तो वे भाजपा के खिलाफ ज्यादा आक्रमक हो सकती हैं। 2021 अप्रैल वाले चुनाव में भवानीपुर विधानसभा सीट से टीएमसी ने शोभनदेव चट्टोपाध्याय को चुनावी मैदान में उतारा था। उन्होंने भाजपा के रुद्रनिल घोष को शिकस्त दी। चट्टोपाध्याय ने 21 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। चट्टोपाध्याय ने ममता की खातिर अपनी सीट छोड़ दी। भवानीपुर विधानसभा सीट पर पहली बार साल 1952 में वोट डाले गए थे, जिसमें कांग्रेस के प्रत्याशी को जीत मिली थी। साल 1967 के चुनाव के बाद इस सीट को समाप्त कर दिया गया। बाद में 2011 में ये सीट अस्तित्व में आई और टीएमसी ने इस पर कब्जा जमा लिया।
ममता ने खुद संभाला मोर्चा
चुनाव जीतने के लिए ममता बनर्जी और टीएमसी ने यहां पूरा जोर लगा दिया है। चुनाव प्रचार में एक जनसभा में ममता ने लोगों से भावुक अपील भी की। उन्होंने कहा कि मेरे लिए एक-एक वोट जरूरी है। अगर आप यह सोचकर वोट नहीं करेंगे कि दीदी (ममता) तो पक्का जीतेंगी तो यह बड़ी भूल होगी। बारिश हो या तूफान आ जाए, घर पर मत बैठे रहना, वोट डालने जरूर जाना। वरना मैं मुख्यमंत्री नहीं रहूंगी और आपको नया मुख्यमंत्री मिलेगा। उपचुनाव में हार के बाद ममता के सामने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई और विकल्प नही बचेगा।
राज्य में विधान परिषद होता तो ममता की राह आसान हो जाती
संविधान के मुताबिक कोई भी व्यक्ति किसी राज्य में मंत्री पद की शपथ ले सकता है, लेकिन छह महीने के भीतर उसे किसी विधानसभा क्षेत्र से चुनकर आना होगा। अगर राज्य में विधान परिषद है तो वो विधान परिषद के सदस्य के रूप में भी चुना जा सकता है। जैसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ भी शपथ लेने के वक्त किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। बाद में दोनों विधान परिषद के सदस्य बने। पश्चिम बंगाल में विधान परिषद नहीं है जिसकी वजह से ममता की राह कठिन हो गई। इसलिए उनके लिए भवानीपुर उपचुनाव जीतना ज्यादा जरूरी है। बंगाल में 1969 में विधान परिषद खत्म कर दी गई थी। ऐसे में ममता को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए छह महीने के भीतर किसी सीट से विधानसभा चुनाव जीतना अनिवार्य है। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के साथ भी यही समस्या आई थी। चूंकि राज्य में विधानसभा चुनाव होने में एक साल बचा था इसलिए उपचुनाव की संभावना बहुत कम रह गई रही थी और राज्य में विधान परिषद नहीं होने के कारण यहां से भी उनके चुन कर आने का विकल्प नहीं था। लिहाजा उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
विधान परिषद के गठन का वादा किया था
ममता जब पहली बार 2011 में राज्य की मुख्यमंत्री बनी थीं तो तभी उन्होंने विधान परिषद के गठन का वादा किया था। इस चुनाव में भी उन्होंने जिन नेताओं के टिकट काटे तो उनसे विधानसभा चुनाव के दौरान विधान परिषद के गठन का वादा किया था। नंदीग्राम सीट से मिली हार के बाद मई में सत्ता संभालने के बाद उन्होंने विधान परिषद की अहमियत को समझा और उसके गठन के लिए उनकी कैबिनेट ने इसकी मंजूरी दी। कैबिनेट की मंजूरी के बाद इसे राज्यपाल को भेजा गया। जुलाई में बिल को विधानसभा में भी पारित करा लिया गया है। राज्य सरकार संसद की मंजूरी के लिए केंद्र को भेजेगी। लेकिन केंद्र और बंगाल सरकार के बीच जारी टकराव के बीच संसद से इस बिल को पास करवाना ममता के लिए बड़ी चुनौती होगी।
इन राज्यों में है विधान परिषद
वर्तमान में छह राज्यों आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में विधान परिषद हैं। अनुच्छेद 370 हटाए जाने से पहले जम्मू-कश्मीर में भी विधान परिषद थी। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट ने विधान परिषद को खत्म करने का फैसला लिया।