दुनिया भर के करोड़ों मेहनतकशों के लिए आज का दिन (1 मई) त्योहार से कम नहीं है। क्योंकि आज के ही दिन मजदूरों ने संघर्ष करके दमनकारी, शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करके काम के घंटे को आठ घंटे तक सीमित करने में सफल हुआ था। तब से एक मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस (Labour day ) के तौर पर मनाया जाता है। दुनिया में औद्योगिकरण की शुरुआत होने पर फैक्ट्रियां खोली गईं। प्रोडक्ट्स के निर्माण के लिए मजदूर रखे गए। लेकिन काम के घंटे तय नहीं थे। मजदूरों से 24 घंटों में 18 घंटों तक काम लिया जाता था। उन्हें कारखानों में ही रहने के लिए मजबूर होना पड़ता था। इससे मजदूरों को जीवन जीना मुश्किल हो गया। मजदूरों में असंतोष फैलने लगा। वे संगठित होने लगे। इसके बाद मालिकों के खिलाफ आवाज बुलंद होनी शुरू हो गई। शोषण के खिलाफ सबसे पहले 19वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका में मजदूरों ने आवाज उठानी शुरू की। उस समय अमेरिका में 16 से 18 घंटे काम करना आम बात थी।
सबसे पहले अमेरिका में शु्रू हुई थी शोषण के खिलाफ लड़ाई
लोगों को लगता है कि शोषण के विरूद्ध लड़ाई सबसे पहले रूस में हुई थी जब दास कैपिटल के रचनाकार कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों पर महान क्रांतिकारी नेता लेनिन ने निरंकुश जारशाही व्यवस्था के खिलाफ संधर्ष करना शुरू किया था। पर ऐसा नहीं है इससे बहुत पहले पूंजीवादी देश अमेरिका में संघर्ष शुरू हो गया था। यहां 1806 में फिलाडेल्फिया में मोचियों ने शोषण के खिलाफ हड़ताल शुरू कर दी थी। उनसे 20 घंटे तक काम कराया जा रहा था। फिर मजदूरों ने अपने शोषण के खिलाफ संगठन बनाने लगे। वर्ष 1827 में मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया पहली ट्रेड यूनियन बनी। उसके बाद दुनिया के देशों में काम के घंटे कम करने को लेकर संघर्ष शुरू हो गया।
मजदूरों ने पूंजीवादी गुलामी से मुक्त का लिया संकल्प
अमेरिका में 1884 में 'काम के घंटे 8 करो' का आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन में अमेरिका के नेशलन लेबर यूनियन की अहम भूमिका रही। इसकी स्थापना 1866 में हुई। मजदूरों ने पूंजीवादी गुलामी से मुक्त का संकल्प लिया। अमेरिका के सभी राज्यों में 8 घंटे के कार्य-दिवस करने के लिए संघर्ष शु्रू हुआ। काम के घंटे 8 को प्राप्त करना आसान नहीं था 1877 में पूरे अमेरिका काफी हड़तालें हुईं। इन हड़तालों को रोकने के लिए करखाने के मालिकों और सरकार ने सैनिकों का इस्तेमाल किया। हजारों मजदूरों ने डटकर मुकाबला किया। काम के घंटे 8 करो का आंदोलन पहली मई 1886 को चरम पर था। इसने अमेरिका के मजदूर वर्ग की लड़ाई के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया था।
फैक्ट्रियों के मालिकों और मजदूरों में हुए खूनी संघर्ष
उधर फैक्ट्रियों के मालिक भी चुप नहीं थे। आंदोलनों पर काबू पाने के लिए दमनकारी योजना बना रहे थे। शिकागो में सभी मजदूरों ने काम करना बंद कर दिया। आंदोलनों को कुचलने के लिए 4 मई को पुलिसिया कार्रवाई की गई। इस संघर्ष में कई मजदूर मारे गए। बमों से भी हमले हुए। जमकर खून खराब हुआ। मजदूर नेताओं को पकड़ लिया गया। उन्हें फांसी दे दी गई। कई नेताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया गया। फैक्ट्री मालिकों ने सरकार से साथ मिलकर फिलहाल आंदोलन पर काबू पा लिया।
आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम की उठी मांग
आंदोलन कुछ वर्षों के लिए जरूर थम गया। लेकिन मजदूर रूके नहीं फिर से अपने आंदोलन को नया रूप देने लगे। वर्ष 1888 में पहली मई को फिर काम के घंटे 8 करो के लिए नए सिरे से आंदोलन शुरू करने का संकल्प लिया गया। काम के घंटे को लेकर दुनिया भर में मजदूर संगठनों ने अपने-अपने देश में धरना प्रदर्शन आंदोलन की शुरूआत कर दी। मजदूर अपने मालिकों के सामने मांग उठाने लगे कि हमें 'आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन' चाहिए। आठ घंटे काम की मांग अमेरिका से निकलकर ऑस्ट्रेलिया, रूस, यूरोपीय देशों में भी उठने लगी। इसी दौरान कार्ल मार्क्स ने कहा था दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं पाने के लिए सारा संसार पड़ा है। धीरे धीरे यह मांगें करीब-करीब दुनिया के अधिकतर देशों की सरकारों ने स्वीकार किया।
भारत में पहली बार 1923 में मनाया गया मजदूर दिवस
आजादी के बाद भारत में भी लोकतांत्रिक सरकार बनी। मजदूरों के अधिकारों के लिए कानून बनाया गया और काम के घंटे 8 को लागू किया गया। भारत में पहली बार 1923 में मजदूर दिवस या मई दिवस मनाया गया। सबसे पहले चेन्नई में लेबर किसान पार्टी ने इस दिवस को मनाया। आगे चलकर यह दिवस अंतराष्ट्रीय मजदूर दिवस बन गया। जब दुनिया कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन में चली गई है तो सबसे अधिक मार मजदूरों पर ही पड़ा है। आने वाले समय मजदूरों के हितों सरकार क्या फैसला लेती है यह वक्त ही बताएगा।