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यूपी में मायावती को अखिलेश दे रहे हैं झटके पर झटका, बसपा लेगी बदला ?

Updated Aug 30, 2021 | 18:46 IST

उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुकाबले समाजवादी पार्टी अपने को सबसे मजबूत विपक्षी दल साबित करने में लगी हुई है। पिछले एक साल में बसपा के कई नेता मायावती का साथ छोड़कर अखिलेश यादव के पास चले गए हैं।

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2019 के लोकसभा चुनावों में अखिलेश यादव और मायावती ने हाथ मिलाया था
मुख्य बातें
  • पिछले 8 महीने में कई नेताओं ने छोड़ा बसपा का साथ, हाल ही में पूर्व मंत्री अंबिका चौधरी समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए।
  • पिछले डेढ़ साल में बसपा ने 11 बागी विधायकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की है।
  • भाजपा को हराने के लिए 2017 में सपा और 2019 में बसपा के साथ गठबंधन किया था, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।

नई दिल्ली: बीते शनिवार (28 अगस्त) को जब समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव बहुजन समाज पार्टी के दो नेताओं की समाजवादी पार्टी में वापसी करा रहे थे, तो मंच के पीछे एलसीडी पैनल पर "22 में बाइसिकल" तेजी से प्लैश हो रहा था। यह फ्लैश पार्टी को उम्मीद को दिखाता है। उसे लगता है कि इस समय भाजपा की विचारधारा से सहमति नहीं रखने वाले लोगों के लिए समाजवादी पार्टी ही विकल्प है और इसी वजह से बड़ी संख्या में लोग समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर रहे हैं।  इस कवायद का सबसे ज्यादा नुकसान बहुजन समाजवादी पार्टी को उठाना पड़ रहा है।

मुख्तार अंसारी के भाई  और अंबिका चौधरी साइकिल पर

शनिवार को पूर्वांचल की सियासत में खासा प्रभाव रखने वाले  बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी के बड़े भाई सिब्कातुल्लाह अंसारी अपने समर्थकों के साथ सपा में शामिल हो गए। उनके साथ बसपा नेता अंबिका चौधरी ने भी सपा में घर वापसी कर ली है। सिब्कातुल्लाह अंसारी  मोहम्मदाबाद विधानसभा क्षेत्र से 2007 में सपा और 2012 में कौमी एकता दल से विधायक रहे। 2017 में बसपा से मैदान में उतरे थे लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसी तरह पुराने सपाई और पूर्व मंत्री अंबिका चौधरी ने फिर से सपा का हाथ थाम लिया है। चौधरी 1993 से 2007 तक बलिया के फेफना सीट पर जीत दर्ज करते आए हैं। साल 2012 में भाजपा प्रत्याशी से हार गए थे। जबकि 2017 में उन्होंने सपा से टिकट नहीं मिलने पर नाराज होकर बसपा का दामन थाम  लिया था। लेकिन उन्हें भाजपा प्रत्याशी से फिर हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद उन्होंने बसपा से इस्तीफा दे दिया था। पंचायत चुनाव के दौरान उनके बेटे आनंद चौधरी ने सपा की सदस्यता ली थी और वह जिला पंचायत अध्यक्ष बन गए तभी से अंबिका चौधरी के सपा में लौटने की चर्चा थी।

पिछले 8 महीने में कई नेताओं ने छोड़ा बसपा का साथ

बहुजन समाज पार्टी के नेताओं का पार्टी छोड़ दूसरे दलों का साथ थामने का सिलसिला नया नहीं है। जनवरी 2021 से ही कई सारे नेताओं ने पार्टी का साथ छोड़ा है। बीते जुलाई में दो बार विधायक रहे डॉ. धर्मपाल सिंह ने सपा में वापसी कर ली है। वह 2017 में बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे। वहीं बसपा में एक समय वरिष्ठ नेताओं में शुमार कुंवरचंद वकील भी सपा में शामिल हो गए। इसी तरह जनवरी में  बसपा नेता सुनीता वर्मा, पूर्व मंत्री योगेश वर्मा सहित कई नेता बसपा छोड़ समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए थे।

डेढ़ साल में 11 लोगों को मायावती ने पार्टी से निकाला

बसपा ने जिन 11 बागी विधायकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की है। उनमें असलम राईनी, असलम अली चौधरी, मुज्तबा सिद्दिकी, हाकिल लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल, वंदना सिंह, लालजी वर्मा, रामचल राजभर, रामवीर उपाध्याय और अनिल सिंह शामिल हैं। इस बार पार्टी ने विधान सभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया है। नए राजनीतिक समीकरण पर समाजवादी पार्टी के एक नेता कहते हैं "देखिए लोगों को पता है कि अगर प्रदेश में भाजपा कोई हरा सकता है, तो वह केवल समाजवादी पार्टी है। ऐसे में लोग हमारे साथ जुड़ रहे हैं। अब बस कुछ दिनों की बात है। उत्तर प्रदेश में हमारी सरकार आएगी, पंचायत चुनावों में इसकी झलक दिख चुकी है। जहां तक बसपा की बात है तो वहां क्या हाल है सबको पता है।"

2019 का चुनाव सपा-बसपा लड़े थे साथ चुनाव

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विवेक कुमार टाइम्स नाउ डिजिटल से कहते हैं "2017 में अखिलेश यादव ने कांग्रेस से गठबंधन, उसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा, इसके बाद 2019 लोक सभा चुनावों में उन्होंने बसपा से गठबंधन किया और उसमें भी हार गए। ऐसे में 2022 के विधान सभा चुनाव उनके नेतृत्व का टेस्ट होंगे। जहां तक बसपा की बात है तो उसके वोटों की संख्या में कोई बड़ी कमी नहीं आई है। 2012 में उसे 1.96 करोड़ वोट मिले थे तो 2017 में उसे 1.92 करोड़ वोट मिले। जबकि समाजवादी पार्टी को 2012 में 2.10 करोड़ वोट मिले जबकि 2017 में वह घटकर 1.89 करोड़ पहुंच गया। ऐसे में दोनों पार्टियों के सामने चुनौती है कि वह 2022 में कैसे अपनी जमीन मजबूत करते हैं।" 

2019 में सपा से ज्यादा बसपा को फायदा

2019 के लोकसभा चुनावों में जब सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था तो उस वक्त अखिलेश से ज्यादा मायावती को फायदा मिला था। चुनावों में जहां भाजपा को 63 सीटें मिली थी, वहीं बसपा को 10 और समाजवादी पार्टी को 5 सीटें मिलीं थी। इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनावों में सपा और कांग्रेस का गठबंधन कुछ कमाल नहीं कर पाया था। और समाजवादी पार्टी को 47 और बसपा को 19 सीटें मिली थीं। समाजवादी पार्टी में बसपा के नेताओं के जाने और भाजपा पर होने वाले असर पर पश्चिमी यूपी के भाजपा सांसद टाइम्स नाउ डिजिटल से कहते हैं "चुनाव के पहले नेताओं का आना-जना लगा रहता है, जिसे टिकट की संभावना नहीं दिखती है वह दूसरे दल की तरफ रुख कर लेता है। जहां तक भाजपा पर होने वाले असर की बात है तो विरोधी दलों ने हर तरह के गठबंधन बनाकर देख लिए हैं। चाहे सपा-बसपा का गठबंधन हो या फिर सपा-कांग्रेस का गठबंधन, उन्हें भाजपा के आगे मुंह की खानी पड़ी है। और आगे भी उनका यही हश्र होगा।"

बसपा को 2007 जैसी उम्मीद

वहीं बहुजन समाज पार्टी 2022 में 2007 जैसी परिणामों की उम्मीद कर रही है। उसने एक बार फिर ब्राह्मण वोटर पर दांव लगाया है। और ब्राह्मण-दलित वोटरों के भरोसे सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है। साल 2007 में बसपा ने 403 में से  86 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे थे और 41 सीटों पर उसे जीत हासिल हुई थी। और बसपा ने 403 में से 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इस बार फिर पार्टी वरिष्ठ बसपा नेता सतीश चंद्र मिश्र को आगे कर रणनीति को लागू करने में लगी हुई है। हालांकि इस बार और उस बार में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पार्टी ने 2007 में एक साल पहले ही अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए थे। जबकि इस बार पार्टी में असमंजस की स्थिति बनी हुई है।

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