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'आत्महत्या करने वाला बुजदिल था'; क्या सुसाइड और डिप्रेशन पर नए सिरे से बात करने की जरूरत है?

Updated Jun 17, 2020 | 13:48 IST

Depression: बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने हमें मजबूर किया है कि हम एक बार फिर सुसाइड और डिप्रेशन पर खुलकर बात करें और नए सिरे से इस पर सोचें।

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डिप्रेशन एक गंभीर समस्या बनकर उभर रही है
मुख्य बातें
  • हमारे देश में सुसाइड और डिप्रेशन पर बहुत खुलकर बात नहीं हो पाती है
  • ज्यादातर लोग समझ नहीं पाते या बताते नहीं हैं कि वो डिप्रेशन से पीड़ित हैं
  • डिप्रेशन में आकर कई लोग आत्महत्या जैसा बड़ा घातक कदम उठा लेते हैं

नई दिल्ली: 34 साल के बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर ने सबको झकझोर कर रख दिया है। सुशांत के इस कदम से सिर्फ सिनेमा जगत ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्र या देश के अधिकतर लोग चौंक गए और हैरान रह गए। सुशांत के जीवन में ऐसा क्या हो रहा था या हो गया था कि उन्हें इतना बड़ा कदम उठाना पड़ा, ये अभी तक स्पष्ट नहीं है। लेकिन ये कहा गया कि वो लंबे समय से डिप्रेशन में थे और उनका इलाज भी चल रहा था। 

हमारे देश में जब भी इस तरह की खबर आती है कि किसी ने आत्महत्या कर ली है तो सबसे पहले देखा जाता है कि उसकी आर्थिक स्थिति कैसी थी? या क्या कोई उसे परेशान कर रहा था? या ऐसा कदम उठाने से पहले वो शख्स सुसाइड नोट छोड़ जाता है, जिसमें कारण होता है कि आखिर वो ऐसा क्यों कर रहा है, जिससे सभी कयासों पर विराम लग जाता है। सुशांत ने ऐसा कुछ नहीं किया, तो उनकी सुसाइड को लेकर खूब अलग-अलग तरह के कयास लग रहे हैं। 

कैसे उठा लिया सुसाइड जैसा बड़ा कदम?

सुसाइड गलत है, आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाना चाहिए, इसलिए कहते भी हैं कि ऐसा करने वाले बुजदिल होते हैं या जिंदगी से लड़ना नहीं जानते, वो जल्दी हार मान जाते हैं। लेकिन क्या सुशांत सिंह राजपूत के मामले ने हमसे एक बार फिर से इस पर सोचने और नए सिरे से बात करने को मजबूर नहीं किया है? क्या ये सोचने का समय नहीं आ गया है कि हर बार सिर्फ ये कहकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता कि सुसाइड करने वाले कमजोर होते हैं, जीवन में जल्दी हार मान जाते हैं? या उन्हें और लड़ना चाहिए था, अपनी समस्या किसी को बतानी चाहिए थी? इन सब बातों को गलत नहीं ठहराया जा सकता, ना इनके महत्व को कम किया जा सकता, लेकिन फिर भी एक बार खुलकर बात करने की जरूरत है कि आखिर वो इंसान जो जीवन में सबकुछ हासिल कर रहा था, सफल हो रहा था, आर्थिक रूप से मजबूत था, वो प्रभावी था, लेकिन आखिर ऐसी कैसी डिप्रेशन में वो चला गया कि उससे बाहर न निकल सका और इतना बड़ा कदम उठा लिया।

क्या हम भरोसा दे पाए हैं?

दरअसल, यहां ये समझने और स्वीकार करने की जरूरत है कि क्या हमने अभी तक सुसाइड और डिप्रेशन जैसे मसलों को बहुत गंभीरता से लिया है? क्या हमारा समाज इसके लिए कभी तैयार हुआ है कि वो किसी तनावग्रस्त व्यक्ति को ये भरोसा दे सके कि वो सामने आए और खुलकर अपनी बात रखे और उसे सभी का समर्थन मिले? क्या हम ये भरोसा दे पाए हैं कि अगर कोई आगे आकर ये कहता है कि हां, मैं डिप्रेशन में हूं और सुसाइड की सोच रहा हूं तो हम उससे कहें कि नहीं तुम कमजोर नहीं हो, तुम कायर नहीं हो, बस थोड़े परेशान हो। जिंदगी से जंग तुम भी लड़ सकते हो, बताओ क्या बात है। हो सकता है कि पढ़ने में ये सब बहुत आसान लग रहा हो, लेकिन वास्तविकता में शायद उतना ही मुश्किल है। 

हर साल 8 लोग कर रहे सुसाइड

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया में 26 करोड़ से ज्यादा लोग डिप्रेशन के शिकार हैं और इसमें हर उम्र के लोग हैं। कई लोगों को पता ही नहीं चलता है कि वो डिप्रेशन में हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि डिप्रेशन के चरम में जाकर इंसान आत्महत्या करने जैसा कदम उठाता है। ये भी सामने आया है कि हर साल करीब 8 लाख लोग सुसाइड करते हैं। 15 से 29 साल के बीच के लोगों में मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण आत्महत्या है। 

भारत में 5 में से 1 लोग तनावग्रस्त!

वहीं अगर भारत की बात करें तो WHO के अनुसार, भारत में सबसे ज्यादा तनावग्रस्त लोग हैं, यानी भारत पहले स्थान पर है, जहां के लोग सबसे ज्यादा डिप्रेशन में हैं। 2015 में भारत में 5 करोड़ लोग डिप्रेशन से पीड़ित थे और ये वो लोग थे जिन्होंने ये स्वीकारा कि वो तनाव में हैं। कई तो इस बारे में बात ही नहीं करते। खुदकुशी करने वालों में सबसे ज्यादा युवा हैं। एक रिसर्च में अनुमान लगाया गया था कि 2020 तक भारत में हर 5 में से एक शख्स मानसिक बीमारी का शिकार होगा।

संकोच करना छोड़ना होगा

समझने की बात ये है कि ज्यादातर लोग इस पर बात ही नहीं करते। वो अंदर ही अंदर घुटते हैं लेकिन किसी मनोचिकित्सक या डॉक्टर के पास नहीं जाते, जबकि इसका इलाज संभव है। हमारे देश में एक धारणा है कि अगर कोई ये कहेगा कि वो डिप्रेशन में है तो लोग उसे पागल समझेंगे, कमजोर मानेंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। ये बाकी सामान्य बीमारियों की तरह ही है, जो किसी को भी अपनी चपेट में ले सकती है। बात करने, डॉक्टर से सलाह-मशविरा करने और अपनी समस्या किसी के सामने रखने से डिप्रेशन को खत्म किया जा सकता है। इसलिए ये कहा जा सकता है कि डिप्रेशन और सुसाइड पर हमें फिर से सोचने और पुरानी धारणाओं को एक तरफ रखते हुए नए सिरे से बात करने और सोचने की जरूरत है।

संवाद से दूर होगी समस्या
 
ये सभी की जिम्मेदारी है कि वो अपने आसपास के लोगों या अपनों की हरकतों पर नजर रखें। अगर किसी के व्यवहार में बदलाव आ रहा है तो उसे समझने या उससे बात करने की कोशिश करें कि कहीं वो डिप्रेशन में तो नहीं है। कोई इंसान एकदम से उदास तो नहीं रहने लगा, कहीं उसका सामान्य गतिविधियों में तो रुझान कम नहीं हो गया, कहीं वो अकेले तो नहीं रहने लगा, कहीं बात तो कम नहीं कर रहा। ऐसे कई लक्षण से जिससे हम पता लगा सकते हैं कि हम या कोई अन्य तनाव में तो नहीं है। संवाद करके, उसकी समस्या को समझकर या डॉक्टर की सलाह लेकर इसे दूर किया जा सकता है।

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