- उपेंद्र कुशवाहा ने दिए महागठबंधन छोड़ने के संकेत
- चिराग पासवान ने सीट बंटवारे को लेकर नीतीश की मुश्किलें बढ़ा दी हैं
- नीतीश और कुशवाहा की आंखमिचौली एक दशक पुरानी
नई दिल्ली: बिहार में चुनावी तारीखों का एलान हो चुका है। तीन चरणों में होने वाले इस चुनाव का परिणाम 10 नवंबर को आ जाएगा। राजनीतिक बिसात पर सभी पार्टियां अपना दांव खेलने के लिए तैयार हैं। एक तरफ जहाँ एनडीए के में सीट बंटवारे को लेकर चर्चा जोरों पर हैं वहीं महागठबंधन में इस बात की सुगबुगाहट नजर नहीं आती है। लेकिन गुरुवार को राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने अपने बयान से बिहार की राजनीति में खलबली मचा दी। उपेंद्र कुशवाहा ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि महागठबंधन में चल रहे हालात पर विचार करने के बाद पार्टी ने मुझे फैसला लेने का अधिकार दिया है। कोई भी फैसला राज्य और साथियों के हितों को ध्यान में रखते हुए लिया जाएगा।
पार्टी कार्यकर्ताओं से क्या बोले कुशवाहा ?
राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी की वर्किंग कमेटी की मीटिंग में बोलते हुए कुशवाहा ने कहा कि 'सबलोग पूरी मजबूती के साथ खड़े रहें और रहते तब भी जिस नेतृत्व को राष्ट्रीय जनता दल ने खड़ा किया उसके पीछे रह कर बिहार में परिवर्तन करना नामुमकिन है'। आगे उन्होंने कहा कि यह सीट का मामला नहीं है यह बिहार के हितों का मामला है। बिहार की जनता एक ऐसा नेतृत्व चाहती है जो नीतीश कुमार के बराबर खड़ा हो सके। कुशवाहा के इस बयान के बाद बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह खबर दौड़ने लगी के रालोसपा महागठबंधन को अलविदा कहने वाली है। कुशवाहा की पार्टी के इतिहास पर अगर नजर डालें तो इस बात की पूरी संभावना है।
पहले भी आंखमिचौली खेल चुके हैं कुशवाहा
उपेंद्र कुशवाहा ने 2013 में राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी का गठन किया था। पार्टी की शुरुआत ही नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल कर हुई थी। 2007 में उपेंद्र कुशवाहा को जेडीयू से निष्कासित कर दिया गया। कोयरी जाती को राजनीतिक हिस्सेदारी दिलाने के नाम पर 2009 में उन्होंने राष्ट्रीय समता पार्टी बनाई। लेकिन 2009 में ही कुशवाहा वापिस नीतीश के पाले में चले गए और अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय कर लिया था। 4 जनवरी 2013 को नीतीश कुमार पर पार्टी के अंदर तानाशाही का आरोप लगाते हुए कुशवाहा ने जेडीयू को अलविदा कह दिया। लेकिन उन्होंने एनडीए का साथ नहीं छोड़ा। उस समय वो राज्यसभा सांसद थे। 2013 में ही रालोसपा का गठन किया और 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की तरफ से तीन सीटों पर अपने उम्मीदवार को उतारा और तीनों में कामयाबी हासिल की।
एनडीए ने कुशवाहा को राज्यमंत्री, मानव संसाधन मंत्रालय का पद दिया। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में 23 सीटों पर लड़ने वाली कुशवाहा की पार्टी को केवल 2 सीटों पर जीत मिली। इसके बाद कुशवाहा की पार्टी में आपसी मतभेद भी हुए और पार्टी दो गुट में बंट गई। 2018 में रालोसपा ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। 2019 में यूपीए में शामिल हो कर 5 सीटों पर चुनाव लड़ा और मोदी लहर में सभी सीट हार गए।
चिराग पासवान ने बढ़ाई नीतीश की मुश्किलें
एक तरफ जहाँ महागठबंधन में अभी नेतृत्व पर मतभेद का दौर चल रहा है वहीं एनडीए में सीट बंटवारे को लेकर अंदरूनी घमासान जोरों पर है। रामविलास पासवान ने अपने बेटे चिराग पासवान को बिहार चुनाव में अपनी पार्टी का नेतृत्व करने के लिए खड़ा किया है। 2015 के चुनाव में 2 सीटों पर सिमट गई लोक जनशक्ति पार्टी चिराग के यूवा छवि के सहारे फिर से अपनी जमीन मजबूत करने में लगी है। बीजेपी आला कमान से नजदीकी के कारण चिराग गठबंधन में ज्यादा से ज्यादा सीट पाने की जुगत में हैं और इस बात ने नीतीश को परेशान कर रखा है। क्योंकि एलजेपी को अधिक सीट मिलने का मतलब है नीतीश की जेडीयू के सीट में कटौती। इस बात से नीतीश इतने खफा हैं कि जब उनसे गुरुवार को पत्रकारों ने रामविलास पासवान की सेहत को लेकर सवाल किया तो उन्होंने जवाब दिया के उन्हें इस बारे में मालूम नहीं है।
नीतीश के लिए कितना मुश्किल होगा कुशवाहा को गले लगाना
बिहार की राजनीतिक समझ रखने वालों को यह जरूर याद होगा कि नीतीश ने कुशवाहा से बंग्ला तक खाली करा लिया था। लेकिन इसके इतर नीतीश इस समय बिहार में भाजपा की मजबूत स्थिति की वजह से खासे दबाव में हैं। जितन राम मांझी को जरूरत से ज्यादा महत्व देना नीतीश की मजबूरी को दर्शाता है। नीतीश इस समय एनडीए में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं। इसके लिए वो छोटे दलों का सहारा ले सकते हैं। ऐसे में कुशवाहा की राह आसान नजर आती है। लेकिन इसका नुकसान भी नीतीश को ही सहना पर सकता है। नीतीश कुमार को जेडीयू के खाते कि कुछ सीटें गंवानी पर सकती हैं। लेकिन कुशवाहा को गले लगाने पर नीतीश एनडीए में फिर से अपनी दावेदारी मजबूत कर सकते हैं।
इन तमाम सवालों ने नीतीश को इस समय परेशानी में डाल रखा होगा। चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आएगी सियासी सरगर्मी बढ़ती जाएगी। इस बीच जनता को भी अपने लिए सही उम्मीदवार और सरकार को चुनने का फैसला करना है।