- चुनावों में किसानों की एंट्री ने राजनीतिक दलों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं।
- पंजाब चुनाव में 117 में से 80 सीटें ऐसी हैं, जहां पर ग्रामीण मतदाता निर्णायक होते हैं।
- मालवा क्षेत्र में जिस पार्टी ने मतदाताओं को लुभा लिया उसके लिए सरकार बनाने का रास्ता साफ हो जाता है।
नई दिल्ली: आज से 35 साल पहले जब पंजाब राज्य का पुनर्गठन हुआ, और आधुनिक पंजाब का स्वरूप सामने आया, उस समय से राज्य की राजनीति कांग्रेस और अकाल दलों के बीच ही घूमती रही है। बीच-बीच में कम्युनिस्ट दलों ने थोड़ी ताकत दिखाई, लेकिन सरकारें , कांग्रेस और अकाली दल के नेतृत्व में ही बनती रही है। लेकिन इस बार के चुनाव अलग ही लेवल पर होते दिखाई दे रहे हैं।
पहले तो आम आदमी पार्टी की 2017 के चुनावों में असरदार एंट्री और फिर अब 2022 में नई उम्मीदों के रथ पर बैठे अरविंद केजरीवाल, दिल्ली के बाहर किसी राज्य में सत्ता हासिल करने का भरोसा जता रहे हैं। तो पिछले एक साल से देश की राजनीति के धुरी बने किसान, अब सीधे सत्ता में पहुंचने के लिए कमर कस चुके हैं।
वहीं अकाली दल-बसपा गठबंधन, कैप्टन अमरिंदर की नई पार्टी पंजाब कांग्रेस पार्टी-भाजपा गठबंधन और चन्नी के नेतृत्व में कांग्रेस भी सत्ता की कुर्सी के लिए ताल ठोक रहे हैं। पंजाब की राजनीति इस तरह के विविध समीकरण शायद ही कभी बने हों। ऐसे में 2022 का चुनाव अब त्रिकोणीय से भी आगे निकल चुका है। जहां अब एक-एक वोट के मायने हो गए हैं।
किसानों की एंट्री ने बदला समीकरण
अभी तक राजनीतिक दलों की यही कोशिश रही है, कि वह किसानों का समर्थन जुटाकर चुनावों की नैया पार कर ली जाय। चाहे कांग्रेस हो, या पार्टी का साथ छोड़कर कैप्टन अमरदिंर सिंह या फिर किसानों के नाम पर एनडीए से अलग होकर अकाली दल या आम आदमी पार्टी सभी को किसानों के समर्थन की उम्मीद थी। लेकिन खुद किसानों ने संयुक्त समाज मोर्चा बनाकर विधान सभा चुनावों में उतरने का ऐलान कर दिया है। इसके अलावा एक अन्य किसान नेता गुरूनाम सिंह चढूनी ने संयुक्त संघर्ष पार्टी बना ली है।
साफ है कि जिस किसानों का समर्थन पाने की उम्मीद राजनीतिक दलों ने लगा रखी थी, उससे उन्हें बड़ा झटका लगा है।
ग्रामीण इलाकों और मालवा में किसानों का मत असरदार
पंजाब की राजनीति में किसान बड़ा वोट बैंक हमेशा से रहे हैं और वह चुनावों में राजनीतिक दलों का भविष्य तय करते हैं। उसकी बड़ी वजह पंजाब की 70-75 फीसदी आबादी का डायरेक्टर और इन डायरेक्ट रुप से कृषि क्षेत्र से जुड़ा होना है। और राज्य की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 25 फीसदी है।
राज्य की कुल 117 विधान सभा सीटों में 35-40 सीटें शहरी क्षेत्र की है। जबकि करीब 80 सीटें ऐसी हैं, जहां पर किसान असर डालते हैं। और मालवा क्षेत्र, जहां पर करीब 70 सीटें हैं। वहां किसान बड़ा फैक्टर साबित होते रहे हैं। ऐसे में साफ है कि जब खुद किसान प्रतिनिधि पार्टी बनाकर चुनाव में उतर रहे हैं, तो किसानों के वोट बंटेंगे। सवाल उठता है कि इसमें किसको फायदा होगा और किसको नुकसान..
2017 में क्या थे हालात
अकाली दल से लेकर आम आदमी पार्टी को ग्रामीण मतदाताओं से समर्थन मिलता रहा है। इसी वजह से किसान आंदोलन को देखते हुए अकाली दल ने, भाजपा का सबसे पुराना साथी होते हुए भी, पार्टी से नाता तोड़ लिया। अकाली दल को 2012 में सत्ता में इसी समर्थन से मिली थी। वहीं 2017 में इसीलिए सत्ता भी गंवानी पड़ी थी। 2017 के चुनावों में उसे केवल 15 सीटें मिली थीं। जबकि उसकी साथी भाजपा केवल 3 सीटों पर जीत दर्त कर पाई थी। वहीं आम आदमी पार्टी को 20 सीटें मिली थी, उसमें उसे 18 सीटें मालवा क्षेत्र से मिली थी। जहां किसान निर्याणक भूमिका निभाते हैं।
दूसरी तरफ कांग्रेस ने अकाली दल को सत्ता से हटाकर बहुमत के साथ जीत हासिल की थी। उसे मालवा क्षेत्र में 40 सीटें जीती थीं। वहीं माझा में 25 विधानसभा में से 22 सीटें और दोआब में 23 में से 15 सीटों पर जीत हासिल हुईं थीं। पार्टी को 77 सीटें मिली थी।
लेकिन इस बार हालात अलग हैं। कैप्टन जिनकी अगुआई में कांग्रेस ने 2017 का चुनाव जीता था, वह कांग्रेस से अलग होकर भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। और भाजपा को कैप्टन के भरोसे ही ग्रामीण क्षेत्र में सेंध जमाने की उम्मीद है। अमरिंदर ने भी किसान आंदोलन हल होने की शर्त पर भी भाजपा से जुड़ने का ऐलान किया था। साफ है कि अमरिंदर भी भाजपा के साथ मिलकर किसानों का समर्थन जुटाने में लगे हुए हैं।