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Bihar Caste Census: जाति जनगणना से विकसित राज्य बनेगा बिहार?

मनीष चौधरी | Deputy News Editor
Updated Jun 08, 2022 | 13:38 IST

Caste based census : बिहार सरकार का मानना है कि अगर राज्य के पास जातियों की संख्या की ठीक-ठीक जानकारी होगी तो विकास की योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी । उस आखिरी व्यक्ति तक विकास की योजनाएं ठीक ढंग से पहुंच पाएंगी जो अब तक विकास की मुख्यधारा से दूर है ।

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तस्वीर साभार:&nbspPTI
जाति जनगणना से विकसित राज्य बनेगा बिहार?

क्या जाति जनगणना से बिहार की समस्याओं का समाधान हो जाएगा? बिहार में किस जाति के कितने लोग रहते हैं, अगर इसकी गिनती हो जाती है तो क्या बिहार विकसित राज्यों की श्रेणी में आ जाएगा? ये सवाल इसलिए क्योंकि बिहार सरकार ने 500 करोड़ रुपए खर्च करके राज्य में जाति जनगणना कराने का फैसला ले लिया है। वो बिहार जो स्वास्थ्य सेवाओं में देश में नीचे से दूसरे नंबर पर है, जहां के लोगों को बेहतर इलाज के लिए देश के दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। वो बिहार जो शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में 20 बड़े राज्यों में 19वें नंबर है, जहां 10वीं के बाद छात्र उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली, पुणे, बेंगलुरु जैसे शहर चले जाते हैं। वो बिहार जहां उद्योग धंधे के अभाव में लोगों को काम करने के लिए दिल्ली, मुंबई, सूरत जैसे शहरों में पलायन करना पड़ता है। वो बिहार जो प्रति व्यक्ति आया में देश में आखिरी नंबर पर है, उस बिहार में सरकार की प्राथमिकता जाति जनगणना है। और ऐसा नहीं है कि सिर्फ सरकार जाति जनगणना कराना चाहती है बल्कि विपक्ष और सभी दलों ने जाति जनगणना को आम सहमति से चुना है। ऐसे में सोचिए कि बिहार में सरकार और राजनीतिक दलों के लिए पहले नंबर का काम क्या है विकास या कुछ और?

जाति जनगणना पर बिहार सरकार का तर्क

दरअसल बिहार सरकार का मानना है कि अगर राज्य के पास जातियों की संख्या की ठीक-ठीक जानकारी होगी तो विकास की योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। उस आखिरी व्यक्ति तक विकास की योजनाएं ठीक ढंग से पहुंच पाएंगी जो अब तक विकास की मुख्यधारा से दूर है। बिहार में 15 साल लालू यादव और राबड़ी देवी की सरकार रही और करीब 16 साल से कुछ ज्यादा समय से नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री हैं लेकिन दोनों दलों को ये समझने में तकरीबन 32 साल लग गए कि जातियों को गिने बिना विकास नहीं हो सकता है। तो 32 साल से विकास पर ये फॉर्मूला क्यों नहीं लगा पाए, ये समझना मुश्किल है।

बिहार में जाति जनगणना की राजनीति क्या?

देश के किसी राज्य में जातियों पर इतनी राजनीति नहीं होती है जितनी बिहार में होती है । इसलिए बड़े पैमाने पर लोगों के बीच ये धारणा है कि जातियों की जनगणना के पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनीति है, जबकि सच्चाई ये है कि विकास की योजनाओं से इसका कुछ भी लेना देना नहीं है। दरअसल पिछले कुछ समय में संघ और बीजेपी की कोशिशों की वजह से सामान्य वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति-जनजातियों के बीच की दूरी कम हुई है। राजनीतिक तौर पर बीजेपी को इसका फायदा हुआ और क्षेत्रीय दलों के वोट बैंक में इससे सेंध लगी है। जातियों की गिनती से संभव है कि सामान्य वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच संसाधानों के बंटवारे के मुद्दे पर दरार बढ़े। जो समाज के लिए तो ठीक नहीं है लेकिन वोट बैंक की राजनीति के लिए ये बिल्कुल सटीक हो सकती है। कुछ राजनीतिक दलों को इससे बड़ा फायदा भी हो सकता है।

जाति जनगणना पर बीजेपी की मजबूरियां

दरअसल पिछले साल कई राजनीतिक दल नें देश में जाति आधारित जनगणना की मांग की थी। इस मुद्दे पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता विपक्ष तेजस्वी यादव, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले भी थे। केंद्र सरकार ने जाति जनगणना की इनकी मांग को ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि जनगणना का फॉर्मेट तैयार है और अब काफी देर हो जाने की वजह से इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता है। हांलाकि केंद्र सरकार ने ये जरूर कह दिया कि अगर कोई राज्य अलग से जाति जनगणना कराना चाहे तो वो करा सकते हैं। दिल्ली में जाति जनगणना पर बीजेपी ने क्षेत्रीय दलों की राजनीति को फ्लॉप कर दिया तो नीतीश और तेजस्वी ने बिहार में बीजेपी को घेर लिया  अब बीजेपी ये नहीं दिखना चाहती थी कि वो जातियों की गिनती की विरोधी है, इसलिए नीतीश कुमार ने जैसे ही बिहार में अलग से जाति जनगणना का प्रस्ताव दिया बीजेपी को तैयार होना पड़ा। वजह ये भी है कि पिछले कुछ सालों में बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए ओबीसी समुदाय के वोटों का बड़ा हिस्सा हासिल किया है। यूपी में तो बीजेपी की बड़ी जीत में ओबीसी समुदाय का बहुत ही अहम योगदान है। बीजेपी ओबीसी वोटों को खोना नहीं चाहती है इसलिए वो भी जातियों की गिनती पर राजी हो गई। लेकिन उसने यह राइडर जरूर लगा दिया कि जाति जनगणना में रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को नहीं गिना जाए।

क्या जातियों की गिनती से कुछ बदलेगा?

देश के बड़े और विकासित राज्यों जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में जातियों की गिनती नहीं हो रही है लेकिन वहां बनी योजनाओं की वजह से वो राज्य बिहार से 20 से 30 साल आगे हैं। इसलिए अगर बिहार में जातियों की गितनी हो भी जाती है तो विकास के मामले में बिहार कोई नया आयाम छू लेगा, ये दूर-दूर तक नहीं दिखता है। हां, एक बार फिर से जातियों की राजनीति जरूर शुरू हो जाएगी।

आखिरी बार जातियों की गिनती कब?

देश में आखिरी बार 1931 में जाति जनगणना हुई थी। इसके बाद किसी सरकार ने जाति जनगणना नहीं कराई। 1951 में जब केंद्र सरकार के पास जाति जनगणना का प्रस्ताव आया था तो उस समय के उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसे देश के सामाजिक ताने बाने के लिए खतरा बताया था और जाति जनगणना से इनकार कर दिया था। इसके बाद से समय-समय पर ऐसी मांग होती रही लेकिन किसी भी सरकार ने सरदार पटेल की भावनाओं के विपरीत जाने का फैसला नहीं लिया।

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