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बिहार में बीते दिनों की बात हुई बूथ कैप्चरिंग लेकिन थमा नहीं पैसों का खेल 

श्वेता सिंह | सीनियर असिस्टेंट प्रोड्यूसर
Updated Sep 30, 2020 | 12:07 IST

Money Power in Bihar Elections: बिहार में लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव बूथ कैप्चरिंग से लेकर मतदाता को पैसे देकर वोट लेने की प्रथा जमाने से है।

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तस्वीर साभार:&nbspPTI
बिहार में बीते दिनों की बात हुई बूथ कैप्चरिंग लेकिन थमा नहीं पैसों का खेल। -प्रतीकात्मक तस्वीर

बिहार में विधानसभा का चुनाव होने वाला है। बिहार में चुनाव के दौरान वो घटनाएं हो जाती हैं, जो शायद पूरे साल नहीं होतीं। चुनाव के समय बिहार में नेता दर-दर वोट मांगने नहीं जाते बल्कि लोगों को पैसा बांटने जाते हैं। बिहार में चुनावी मौसम में चाहे जितना पुलिस बल लगा दिया जाए, सुरक्षा चाकचौबंध हो, लेकिन फिर भी प्रशासन की नाक के नीचे से बूथ लूटने के प्रयास और पैसे बांटने की घटनाएं घटित हो ही जाती हैं। आधुनिक युग में भले ही बूथ लूटने की घटनाएं कम हो गई हों, लेकिन आज भी पैसा पानी की तरह बहता है। चलिए सबसे पहले तो देखते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में किस पार्टी ने कितना पैसा बहाया।  

चुनाव खर्चे पर एडीआर द्वारा जारी रिपोर्ट कार्ड  

साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बड़ी पार्टियां ही नहीं छोटी पार्टियां भी जमकर पैसा खर्च कीं। चुनाव खत्म होने के बाद सभी राजनीतिक दलों ने एडीआर को अपने खर्चे का ब्यौरा दिया। इस रिपोर्ट के अनुसार कुल 15 राजनीतिक दलों ने 150.99 करोड़ खर्च किये। इसमें सबसे आगे रही बीजेपी। इन राजनीतिक पार्टियों के केंद्रीय मुख्यालय की तरफ से 130.45 करोड़ की आय जमा की गई और 126.19 करोड़ रुपए खर्च किये गए। इस रिपोर्ट के अनुसार केवल चुनाव प्रचार में यात्रा पर 59.32 करोड़ रुपए खर्च हुए, जबकि पार्टी उम्मीदवारों पर 46 करोड़ से अधिक खर्च हुआ। राजनीतिक पार्टियों ने मीडिया में प्रचार के लिए लगभग 41 करोड़ रुपए खर्च किये। चुनाव से पहले सार्वजनिक बैठकों पर लगभग 11 करोड़ खर्च किए गए और प्रचार सामग्री पर 22 करोड़ से अधिक खर्च किए गए।  

अब वोटर्स को आदर्श नहीं पैसा खींचता है  

कम से कम बिहार में चुनाव के समय ऐसा ही होता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। नेताओं को भी ये पता है, इसलिए भले ही वो चुनावी रैलियों में बड़े-बड़े वादे और आदर्श की बातें करते हैं, लेकिन रैली खत्म होते ही नोटों के बंडल वोटर्स तक पहुंचाए जाने लगते हैं। ये हम नहीं बल्कि हर चुनाव में आने वाले खबरों में पढ़ने को मिलता है। राज्य में एक आबादी ऐसी भी हो जो अपने क्षणिक सुख और चंद पैसों की खातिर अपने वोटों का सौदा करने से नहीं हिचकती।   

विकास नहीं नोट के लिए वोट 

पिछले कुछ सालों से विकास की राजनीति चली है, लेकिन बिहार का चुनावी इतिहास गवाह है कि यहां के लोगों को विकास से ज्यादा पैसा आकर्षित करता है। चुनाव से पहले नेता जनता की जेब भरते हैं और चुनाव के बाद उसी जनता के पैसे से वो अपनी जेब भरते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि जैसे बिहार के नेता और जनता में मिलीभगत है। दोनों एक-दूसरे की मनोदशा को बेहतर तरीके से समझते हैं। जनता को भी पता है कि जिस विकास के नाम पर आज नेता वोट मांग रहे हैं, वो चुनाव जीतते ही नोट के पीछे पड़ जाते हैं और राज्य का विकास भूल वो सिर्फ अपना 'विकास' करते हैं।  

बिहार में आज भी दबंगई चलती है   

चुनाव से पहले शांत दबंग चुनाव के दौरान ऐसे एक्टिव हो जाते हैं जैसे आजकल पूरे विश्व में कोरोना संक्रमण हुआ है। ये पूरी तरह से अपने फॉर्म में होते हैं और साम-दाम दंड भेद हर तरह से अपने पक्ष में चुनावी नतीजा चाहते हैं। विश्वास न हो तो बस एक बार बिहार का राजनीतिक इतिहास उठाकर पढ़ लीजिए। न जाने कितनी ही पार्टियां आज भी इन्हीं दबंगों या बाहुबलियों के बल पर चुनाव जीतती आई हैं। वो इन्हें वोट दिलाते हैं और नेता इन्हें संरक्षण।  

NDA गठबंधन विकास के मु्ददे पर लोगों से वोट मांग रहा है, तो नीतीश की खिलाफत करके चर्चा में आयीं पुष्पम प्रिया तो बिहार को यूरोप के देशों जैसा बनाने का दंभ भर रही हैं। वहीं नया और युवा बिहार का नारा लेकर चल पड़े हैं राजद के युवा नेता और लालू के सुपुत्र तेजस्वी यादव, लेकिन सच में ऐसा ही ये नेता सोचते, तो आज भी बिहार बदहाल नहीं होता। आज भी वहां सच में विकास के मुद्दे पर चुनाव होते और यूं पानी की तरह पैसा नहीं बहता।  
 

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