- वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को 508 ईसा पूर्व हुआ था शंकराचार्य का जन्म।
- चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना कर, शंकराचार्य ने 32 साल की उम्र में बद्रीनाथ में ली थी सामाधि।
- आठ साल की उम्र में लिया था सन्यास, कंठस्थ थे चारों वेद।
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रामचरित मानस में लिखी एक चौपाई ज्ञान की पंथ कृपाण की धारा यानि ज्ञान को प्राप्त करना दो धारी तलावार पर चलने जैसा होता है। ज्ञानार्जन के लिए व्यक्ति को हर सीमा को लांघना पड़ता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के भीतर भी एक ऐसा ही जिज्ञासु हुआ, जिसका नाम था शंकर। आज पूरा विश्व उन्हें आदि गुरु शंकराचार्य के नाम से जानता है।
केरल के एक घोर निर्धन ब्राम्हण परिवार में जन्में शंकराचार्य ने आठ वर्ष की उम्र में गृहस्थ जीवन को त्यागकर सन्यासी का जीवन अपना लिया। शंकराचार्य आठवीं सदी के भारतीय हिंदु दार्शनिक और धर्म शास्त्री थे। जिनकी शिक्षाओं का हिंदु धर्म के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। आदि गुरु शंकराचार्य को भगवान शंकर का साक्षात् रूप माना जाता है, जिन्होंने हिंदु धर्म के अनुष्ठान और प्रचार प्रसार के लिए अपना पूरा जीवन व्यतीत किया। ऐसे में आइए आदि गुरु शंकराचार्य के बारे में रोचक तथ्य जानते हैं।
वह अद्वैत वेदांत विश्वविद्यालय में एक निपुण प्रवक्ता थे। दर्शनशास्त्र पर उनकी शिक्षा ने हिंदु धर्म के विभिन्न संप्रदायों को काफी प्रभावित किया और आधुनिक भारतीय विचारों के विकास में यागदान दिया है। आपको बता दें शंकराचार्य जी ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर हिंदु धर्म और भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अविरल धारा में पिरो दिया था।
आदि शंकराचार्य के जन्म से जुड़ी कथा
आदि शंकराचार्य को भगवान शंकर का स्वरूप माना जाता है। उनके जन्म को लेकर कहा जाता है कि ब्राम्हण दंपति के विवाह के कई साल तक उन्हें संतान प्राप्त नहीं हुआ। संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने भगवान शंकर की अराधना की, उनकी कठिन तपस्या को देख भगवान शिव उनके सपने में आए और वरदान मांगने को कहा। ब्राम्हण दंपत्ति ने भगवान शिव से ऐसी संतान की प्राप्ति का वरदान मांगा जो दीर्घायु हो और उसकी प्रसिद्धि तीनों लोक में फैले। इस पर शिव जी ने कहा कि सर्वज्ञ और दीर्घायु दोनों संभव नहीं है या तो तुम्हारी संतान दीर्घायु होगी या सर्वज्ञ। इसे सुन ब्राम्हण दंपत्ति ने सर्वज्ञ संतान का वरदान मांगा। वरदान देने के बाद भगवान शिव ने खुद बाल रूप में ब्राम्हण के यहां जन्म लिया और उनका नाम शंकर रखा गया।
आठ साल की उम्र में कंठस्थ थे चारों वेद
शंकराचार्य के जन्म के बाद ही कम उम्र में उनके पिता का निधन हो गया। लेकिन ज्ञान के प्रति जिज्ञासा ने उन्हें दार्शनिक और धर्मशास्त्री बना दिया। आठ वर्ष की उम्र में उन्हें चारों वेद कंठस्थ हो गए थे और उन्होंने गृहस्थ जीवन को त्यागकर सन्यासी का जीवन अपना लिया था। बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने शास्त्रों का ज्ञान हासिल कर सोलह वर्ष में ब्रम्हसूत्र भाष्य रच दिया था।
चारों पीठों की स्थापना की
आदि गुरु शंकराचार्य ने हिंदु धर्म के प्रचार प्रसार में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया। उन्होंने देश के चारो कोने में मठों की स्थापना कर हिंदु धर्म का परचम बुलंद किया। शंकराचार्य ने सबसे पहले दक्षिण भारत में ‘वेदांत मठ’ की स्थापना की, जिसे प्रथम मठ ‘ज्ञान मठ’ कहा जाता है।
दूसरे मठ की स्थापना उन्होंने पूर्वी भारत जगन्नाथपुरी में की इसे गोवर्धन मठ कहा जाता है। इसके बाद द्वारकापुरी में शंकराचार्य जी ने तीसरे मठ ‘शारदा मठ’ की स्थापना की, इस मठ को कलिका मठ कहा जाता है। तथा चौथे मठ की स्थापना उन्होंने बद्रीकाश्रम में की, जिसे ज्योतिपीठ मठ कहा जाता है। इस तरह शंकराचार्य ने चारों दिशाओं का भ्रमण कर हिंदु धर्म का प्रचार प्रसार किया।