- सूरदास को दी गई थी संत की उपाधि, भगवान कृष्ण के माने गए हैं बहुत बड़े भक्त।
- ब्रज भाषा में सूरदास लिखते थे दोहे, श्री कृष्ण की लीलाओं का करते थे अपने दोहों में उल्लेख।
- नेत्रहीन होकर भी सूरदास ने रचे मन मोह लेने वाले दोहे, आज भी श्री कृष्ण भक्ति में इन दोहों का होता है उच्चारण।
कवि सूरदास भक्ति काल के महान कवि माने गए हैं जिन्हें संत की उपाधि दी गई है। कहा जाता है कि हिंदी साहित्य में सूरदास एक बहुत बड़ा नाम है और उनकी रचनाएं बेहद सुंदर और सजीव हैं। संत सूरदास श्री कृष्ण के बहुत बड़े भक्त माने गए हैं। सूरदास जी की आश्चर्यचकित कर देने वाली बात यह है कि वह नेत्रहीन थे लेकिन अपनी भक्ति में उन्होंने अद्भुत और मधुर महाकाव्यों और दोहों की रचना की है। कहा जाता है कि संत सूरदास की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसकी मदद से वह उनकी लीलाओं को महाकाव्य और दोहों में उल्लेख करते थे।
ब्रज भाषा में लिखने वाले महान कवि सूरदास की रचनाओं में भक्ति रस और श्रृंगार रस का समायोजन मिलता है जो मन मोह लेने वाला है। आज सूरदास जयंती पर हम आपके लिए उनके द्वारा रचित कुछ ऐसे मशहूर और मनमोहक दोहें लेकर आए हैं जो आज भी कृष्ण भक्ति में उपयोग किए जाते हैं।
यहां पढ़ें, संत सूरदास की कुछ सुंदर रचनाएं।
मैया मोरी मैं नही माखन खायौ ।
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो।
भोर भयो गैयन के पाछे ,मधुबन मोहि पठायो ।
चार पहर बंसीबट भटक्यो , साँझ परे घर आयो ।।
मैं बालक बहियन को छोटो ,छीको किहि बिधि पायो ।
ग्वाल बाल सब बैर पड़े है ,बरबस मुख लपटायो ।।
तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो ।
जिय तेरे कछु भेद उपजि है ,जानि परायो जायो ।।
यह लै अपनी लकुटी कमरिया ,बहुतहिं नाच नचायों।
सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उर कंठ लगायो ।।
बुझत स्याम कौन तू गोरी।
बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नही कहूं ब्रज खोरी ।।
काहे को हम ब्रजतन आवति खेलति रहहि आपनी पौरी ।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी ।।
तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि
जोरी ।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी ।।
अबिगत गति कछु कहत न आवै।
अबिगत गति कछु कहत न आवै ।
ज्यो गूँगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै ।।
परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै ।।
रूप रेख मून जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै ।
सब बिधि अगम बिचारहि,तांतों सुर सगुन लीला पद गावै ।।
निरगुन कौन देस को वासी।
निरगुन कौन देस को वासी ।
मधुकर किह समुझाई सौह दै, बूझति सांची न हांसी।।
को है जनक ,कौन है जननि ,कौन नारि कौन दासी ।
कैसे बरन भेष है कैसो ,किहं रस में अभिलासी ।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जा रे करेगी गांसी ।
सुनत मौन हवै रह्यौ बावरों, सुर सबै मति नासी ।।
मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायौ।
मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायौ ।
मोसो कहत मोल को लीन्हो ,तू जसमति कब जायौ ?
कहा करौ इही के मारे खेलन हौ नही जात ।
पुनि -पुनि कहत कौन है माता ,को है तेरौ तात ?
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत श्यामल गात ।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसकात ।
तू मोहि को मारन सीखी दाउहि कबहु न खीजै।।
मोहन मुख रिस की ये बातै ,जसुमति सुनि सुनि रीझै ।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई ,जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहै गोधन की सौ,हौ माता थो पूत ।।
जसोदा हरि पालनै झुलावै।
जसोदा हरि पालनै झुलावै ।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै ।।
मेरे लाल को आउ निंदरिया कहे न आनि सुवावै ।
तू काहै नहि बेगहि आवै तोको कान्ह बुलावै ।।
कबहुँ पलक हरि मुंदी लेत है कबहु अधर फरकावै ।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै ।।
इही अंतर अकुलाई उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सुर अमर मुनि दुर्लभ सो नंद भामिनि पावै ।।
मैया मोहि कबहुँ बढ़ेगी चोटी, किती बेर मोहि दुध पियत भइ यह अजहू है छोटी।।
मैया मोहि कबहुँ बढ़ेगी चोटी, किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहू है छोटी ।।
तू तो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी ।
काढ़त गुहत न्हावावत जैहै नागिन सी भुई लोटी ।।
काचो दूध पियावति पचि -पचि देति न माखन रोटी ।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी ।।