- भारत ने अफगानिस्तान में करीब 3 अरब डॉलर का निवेश कर रखा है। ऐसे में उनकी सुरक्षा बेहद अहम है।
- तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव है, वह भारत से रिश्तों के सामान्य बनाने में अड़चन डाल सकता है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को तालिबान के खिलाफ चैप्टर-7 के तहत सख्त प्रस्ताव लाना चाहिए।
नई दिल्ली: अफगानिस्तान से अमेरिका के जाने के बाद भारत और तालिबान प्रतिनिधि के बीच पहली औपचारिक बातचीत हुई है। यह बैठक मंगलवार को दोहा में भारतीय दूतावास में आयोजित की गई। और उसकी जानकारी खुद विदेश मंत्रालय ने दी। उसके अनुसार कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने दोहा में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तानेकजई से मुलाकात की। यह बैठक तालिबान के आग्रह पर आयोजित की गई।
इस नए बदलाव से साफ है कि तालिबान भारत के साथ रिश्तों को लेकर बातीचत कर आगे की दिशा तय करना चाहता है। ऐसे में भारत का क्या रुख होना चाहिए, यह बहुत मायने रखेगा। इस बैठक पर भारत के पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे ने टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल का कहना है " भारत सरकार तालिबान नेताओं के साथ बात करने की कोशिश कर रही है, यह सही कदम है। अच्छी बात यह है कि पहल तालिबान के तरफ से की गई। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं समझना चाहिए कि भारत ने तालिबान को मान्यता दे दी है। यह केवल समय की मांग है।
कुछ दिनों में तस्वीर होगी साफ
लेकिन चिंता की बात यह है कि अभी अफगानिस्तान में सरकार कैसी बनेगी, यह तस्वीर साफ नहीं है। इस समय तालिबान के कई सारे नेता हैं। कोई नहीं जानता कि कौन सा नेता कितना ताकतवर है। ऐसे में किस नेता से बात करने से क्या फायदा होने वाला है। यह किसी को पता नहीं है। इसलिए अभी जिससे बात हुई है वह आने वाली सरकार में कितना अहम भूमिका निभाएगा यह कहना मुश्किल है। उससे भी बड़ी बात यह है कि तालिबान का पुराना रिकॉर्ड बहुत खराब है। ऐसे में उन पर भरोसा करना बहुत मुश्किल है। उसके बावजूद भारत को अपने हितों को देखते हुए बातचीत की कोशिश करती रहनी चाहिए। साथ ही उसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अभी की बातचीत का व्यवहारिक रुप से कोई खास मतलब नहीं है।"
भारत के लिए ये जरूरी
तालिबान के साथ भारतीय राजदूत की हुई बैठक में अफगानिस्तान से भारतीयों की सुरक्षित वापसी पर खास जोर रहा है। इसके अलावा भारत आने वाले अफगान नागरिकों और उसमें भी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर चर्चा हुई। भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लिए नहीं होना चाहिए।इस बैठक के पहले भी तालिबान यह दोहराता रहा है कि भारतीय हितों की रक्षा की जाएगी। मुचकुंद दुबे कहते हैं "देखिए भारत को बहुत कूटनीतिक तरीके से तालिबान को यह अहसास दिलाना होगा कि भारत द्वारा अफगानिस्तान में किए गए निवेश तालिबान के हित में हैं। और उन्हें बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा तालिबान में कई ऐसे लोग हैं जिनकी भारत से बैकडोर डिप्लोमेसी के तहत पहले बातचीत होती रही है। ऐसे में उस चैनल का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करना चाहिए।"
पाकिस्तान बिगाड़ सकता है खेल
भारत ने पिछले 20 साल में अफगानिस्तान में करीब 3 अरब डॉलर का निवेश कर रखा है। जिसमें सड़क, बांध, अस्पताल, बिजली परियोजनाएं, अफगानिस्तान की संसद के निर्माण आदि पर खर्च किए गए हैं। ऐसे में तालिबान ने 1996-2001 में जिस तरह खुले आम भारत विरोधी गतिविधियां की थी, उसे देखते हुए इस बार भी ऐसा होने की आशंका बढ़ गई है। खास तौर पर जब तालिबान पर पाकिस्तान और चीन का प्रभाव कहीं ज्यादा है। और पाकिस्तान कभी भी तालिबान को भारत से अच्छे रिश्ते बनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करेगा।
चीन को मिला रूस का साथ
सोमवार को संयुक्त राष्ट्र परिषद ने अफगानिस्तान को लेकर एक सख्त प्रस्ताव पारित किया है। जिसके तहत यह कहा गया है कि अफगानिस्तान की जमीन का किसी आतंकी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए और न ही वहां से किसी आतंकवादी को संरक्षण दिया जाना चाहिए। भारतीय की अध्यक्षता में सुरक्षा परिषद ने यह प्रस्ताव पारित कर दिया। लेकिन अहम बात यह रही कि इस प्रस्ताव का चीन और रूस ने समर्थन नहीं किया। और वोटिंग के समय अनुपस्थित रहे। रूस ने कहा कि प्रस्ताव में हमारी चिंताओं को नहीं शामिल किया गया। ऐसा लगता है प्रस्ताव तैयार करते वक्त मेरे और तुम्हारे आतंकवादी को ध्यान में रखा गया। असल में रूस आईएसआईएल, ईस्ट तुर्कीस्तान इस्लॉमिक मूवमेंट (ETIM) के लेकर और अफगानिस्तान से प्रोफेशनल लोगों को जाने से वहां पर निगेटिव असर को प्रस्ताव में डलवाना चाहता था। जिसे प्रस्ताव में नहीं शामिल किया गया। ईटीआईएम से सबसे ज्यादा खतरा चीन को लगता है। क्योंकि उसका मानना है कि चीन के शिनचियांग इलाके में उइगर मुस्लिमों को वह भड़काता है।
इस प्रस्ताव पर मुचकुंद दुबे कहते हैं देखिए संयुक्त राष्ट्र संघ के इस प्रस्ताव का कोई खास मतलब नहीं है। क्योंकि यह केवल सलाह या मांग है। जब तक इस तरह का प्रस्ताव चैप्टर-7 के तहत सुरक्षा परिषद नहीं लाती है, तब तक वह राष्ट्रों के लिए अनिवार्य नहीं होता है। ऐसे में तालिबान के खिलाफ एक सख्त प्रस्ताव आना चाहिए। कुल मिलाकर आने वाले समय में भारत के लिए नए अफगानिस्तान के साथ रिश्ते की दिशा तय करना एक बड़ी चुनौती है।