- 1914 से ही अरुणाचल को भारत का हिस्सा मानने से कतराता रहा है चीन
- ब्रिटिश इंडिया, तिब्बत और चीन के प्रतिनिधियों के बीच सीमा निर्धारण को लेकर हुई थी बैठक
- 1962 युद्ध में अरुणाचल के तवांग पर कब्जे के बाद भी पीछ हटा था चीन
नई दिल्ली: कुछ समय पहले पांच भारतीयों के चीनी हिस्से में चले जाने के बाद जब चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से इस बारे में सवाल किया गया तो एक बार फिर ड्रैगन ने भारत के भूगोल पर सवाल उठाने की कोशिश की और कहा है कि अरुणाचल प्रदेश जैसी किसी जगह को वह जानता ही नहीं है और न ही उसने ऐसे किसी इलाके को मान्यता दी है। इस इलाके को वह दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा मानता है।
वैसे चीन का यह दावा कोई नई बात नहीं है और समय समय पर वह अरुणाचल प्रदेश को लेकर दावे करता रहा है हालांकि अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर या विदेशी मीडिया में यह विवाद का विषय नहीं है। चीन के अलावा अन्य देश अरुणाचल को भारत का हिस्सा ही बताते रहे हैं।
इससे पहले गृह मंत्री अमित शाह के दौरे पर चीन ने अरुणाचल को लेकर आपत्ति जताई थी और इसके साथ ही जब भी भारत किसी युद्धाभ्यास का आयोजन अपने इस प्रदेश में करता है या फिर जब कोई विदेशी प्रतिनिधि यहां दौरे पर पहुंचता है तब भी चीन इस पर विरोध करता है।
चीन का अरुणाचल पर दावा क्यों है और उसकी इस हिस्से में दिलचस्पी कैसे है? यह जानने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को थोड़ा पलटना होगा और ईस्ट इंडिया कंपनी के समय वाले भारत में जाना होगा।
क्या कहता है इतिहास?
दरअसल चीन और भारत के बीच एक देश अस्तित्व में था, जिसका नाम है तिब्बत। अब यह चीन के कब्जे वाला इलाका है। आज भारत की 35 हजार किलोमीटर की सीमा चीन के साथ लगती है लेकिन आजादी के ठीक बाद ऐसा नहीं था क्योंकि दोनों देशों के बीच तिब्बत मौजूद था। 1950 में चीन ने अपने सैनिक भेजकर अपेक्षित रूप से कमजोर देश तिब्बत पर अवैध कब्जा कर लिया।
प्राचीन काल में भारत के राजाओं और तिब्बती शासकों के बीच तिब्बत और अरुणाचल के बीच कोई विवाद नहीं रहा और ना ही उन्होंने कोई सीमा निश्चित की थी। 1912 तक तिब्बत और भारत के बीच स्पष्ट सीमा रेखा नहीं थी और यहां मुगलों या अंग्रेजों का नियंत्रण नहीं रहा और उन्होंने इस दिशा में ज्यादा प्रयास करने की भी कोशिश नहीं की। लेकिन नेशन-स्टेट की अवधारणा के बाद एक तय सीमा रेखा की बात होने लगी।
साल 1912 के दौरान भारत, तिब्बत और चीन के आसपास के कई इलाकों को लेकर सीमा अस्पष्ट थी। इसे सुलझाने के लिए साल 1914 में शिमला में तिब्बत, चीन और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों ने सीमा रेखा निर्धारण के लिए एक बैठक की।
तिब्बत पर कब्जा: साल 1914 में गुलाम भारत के ब्रिटिश शासकों ने स्वतंत्र देश तिब्बत के तवांग और इसके दक्षिणी हिस्से को भारत का भाग माना। इस बात को तिब्बत ने भी स्वीकार किया लेकिन चीन ने यहीं से आपत्ति जतानी शुरू कर दी थी और बैठक से बाहर निकलने का रास्ता चुना। 1935 के बाद से ही यह पूरा इलाका भारत के मानचित्र में शामिल हो गया हालांकि भारत का हिस्सा तो दूर चीन तिब्बत को ही कभी स्वतंत्र देश नहीं माना और 1950 में अवैध रूप से इस पर कब्जा कर लिया
इस दौरान चीन की नजर भारत के मानचित्र में शामिल उस हिस्से पर भी बनी रहे जिसे वह तिब्बत का इलाका मानता आया है। चीन चाहता था कि तिब्बती बौद्धों के लिए काफी अहमियत रखने वाला तवांग उसके हिस्से में रहे। इसकी वजह बेहद अहम है क्योंकि यहां पर तिब्बती और भूटानी बौद्धों के पवित्र माना जाने वाला 17वीं सदी का बौद्ध मठ और मंदिर मौजूद है। इस इलाके में कब्जे से चीन पूरे तिब्बत इलाके को बेहतर ढंग से नियंत्रित कर सकता है।
1962 में कब्जा करके पीछे हटा चीन: साल 1914 में शिमला समझौते के तहत भारत की ओर से मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा माना गया लेकिन 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत को एक समझौता करते हुए 8 साल के लिए चीन का हिस्सा माना जिसकी समय सीमा 1962 में खत्म हो गई थी। 1962 में ही सीमा से जुड़े मतभेदों को लेकर भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ और 38 हजार किलोमीटर के भारतीय लद्दाख के इलाके को चीन ने कब्जे में कर लिया जो आज अक्साई चिन कहलाता है। इस दौरान चीनी सेनाएं अरुणाचल में भी घुसीं लेकिन भौगोलिक स्थिति भारत के पक्ष में होने के कारण वह तवांग से पीछे हट गया।
इसके बाद भी चीन का इलाके पर दावा जारी रहा। साल 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चीन दौरे के दौरान एक बार फिर दोनों देशों के बीच तिब्बत को लेकर समझौता हुआ हालांकि भारत ने अरुणाचल के बारे में अपने रुख को स्पष्ट रखा। तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद वहां से आए शरणार्थी आज भी भारत में रहते हैं और भारतीय सेना का भी हिस्सा हैं। कुछ विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि अगर लद्दाख में चीन का अड़ियल रवैया जारी रहता है तो भारत एक बार फिर स्वतंत्र तिब्बत की अपनी आवाज को बुलंद कर सकता है। हाल ही में एक सैन्य अभियान के दौरान एक तिब्बती भारतीय सैनिक की मौत के बाद चीन के खिलाफ आक्रोश तिब्बतियों में देखने को मिला था।