भारत रत्न, स्वर कोकिला, स्वर साम्राज्ञी, लता दीदी न जाने कितने नाम, कालजयी आवाज से अमर हो चुकी लता मंगेशकर का एक गीत है, रहे न रहे हम महका करेंगे। ऐसे ही लता मंगेशकर के सुरों की खुशबू, उनके इस दुनिया से विदा लेने के बाद भी बिखरती रहेगी। लता मंगेशकर को बेहद करीब से जानने वाले और उनके साथ करीब 44 साल तक जुड़े रहे हरीश भीमानी ने टाइम्स नाऊ नवभारत डिजिटल से बातचीत की है। भीमानी ने लता मंगेशकर के साथ करीब 142 शो किए हैं। और उन्होंने लता मंगेशकर के जीवन पर एक किताब लिखी है "लता दीदी अजीब दास्तां हैं ये"। ऐसे में आइए भीमानी से जानते हैं लता मंगेशकर के कुछ अनछुए पल-
लता मंगेशकर की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि आज भी वह सीखना चाहती थी। हाल ही में दिसंबर के महीने में जब मैं उनसे मिलने उनके घर गया। तो वह क्राइम शो देख रही थी। मैंने उनसे कहा , आप यह क्या देख रही हैं, लता मंगेशकर का गाने सुना करिए। वह बहुत अच्छा गाती हैं। तो उन्होंने कहा आप जानते हो मुझ अपने गानें सुनने में बड़ी मुश्किल होती है। हरीश के अनुसार उनका कहना था अपने गाने सुनने पर उन्हें उसमें त्रुटियां दिखती हैं।
शायद अकेले नौशाद साहेब थे तो लता मंगेशकर मिक्सिंग रूम में बुला पाते थे। वह कहते थे कि तुम अपने गाने सुन लो, ये टेक हैं, ये कौन सा हिस्सा अच्छा लगता है। तो वह कहती थीं, कि नौशाद साहब आप क्यों ऐसा करते हैं। मुझे अपने टेक का कोई भी हिस्सा अच्छा नहीं लगता है। मुझे हर जगह त्रुटि लगती है। हरीश से जब मैंने इंटरव्यू के दौरान पूछा वह कौन सी त्रुटियां हैं तो वह कहते हैं वह ऐसी त्रुटियां हैं जो दुनिया को नहीं दिखाई देती हैं। केवल लता जी को ही दिखाई देती है। कहने का मतलब यह है कि वह अंतिम समय तक छात्रा रही। वह भी उस विधा की , जिसमें उन्हें सर्वश्रेष्ठ माना गाया। उस विधा के लिए उन्हें भारत रत्न से नवाजा गया। जीवन भर सीखने की ललक उनकी सबसे बड़ी खासियत थी।
अगर औपचारिक गुरू की बात करें, तो कुछ समय उन्होंने भिंडी बाजार वाले अमान अली खां से गायन सीखा। लेकिन फिल्मों में आने के बाद, वह डेढ़ साल बाद व्यस्त होने लगी। लेकिन सफल होने के बाद भी वह सीखती रहे। उन्होंने यह भी सीखा की क्या नहीं सीखना चाहिए। उन्होंने एक बार बताया था कि उनके एक गुरू थे जो गाते समय भाव भंगिमाएं भी व्यक्त करते थे। लेकिन अपनी मां की सीख के बाद उन्होंने अपना तरीका बदल दिया।
वह अपनी मां को माई कहा करती थी। उनकी मां ने उनसे कहा कि गाते वक्त चेहरा टेढ़ा-मेढ़ा मत कर । तेरे पिता जी ऐसा नहीं गाते थे। वह गाते थे केवल गाने पर ध्यान देते थे। तू गाने पर ध्यान दे। कहने का मतलब यह है कि वह उन्होंने केवल यह नहीं सीखा कि कैसे गाना चाहिए, बल्कि यह भी सीखा कि क्या नहीं करना चाहिए।
देखिए माइक्रोफोन बहुत निर्दयी होता है। उससे सामंजस्य बैठाने के लिए शुरूआत में अनिल बिस्वास जी ने उन्हें गुर सिखाए। बिस्वास जी ने उन्हें बताया कि पंक्ति को कहा तोड़ना है। लता जी तब भी गाती थी तो माइक्रोफोन से उन्होंने ऐसा सामंजस्य बैठाया कि गाते वक्त सांसों आवाज सुनाई नहीं देती थी।
एक दिन अनिल बिस्वास और लता मुंबई की लोकल ट्रेन से मलाड जा रहे थे, इत्तेफाक से उसी ट्रेन में दिलीप कुमार भी थे। अनिल बिस्वास ने लता मंगेशकर का दिलीप कुमार से परिचय कराया कि ये नई लड़की है बहुत अच्छा गाती है, और सबसे अलग गाती है और संगीत की तालीम बहुत अच्छी है। तो दिलीप कुमार बोले आप महाराष्ट्र की हैं। तो ये गाती जरूर अच्छा होंगी लेकिन इनकी (मराठी) उर्दू में दाल भात की बूं आती है।' 16 साल की लता मंगेशकर को बुरा तो लगा लेकिन उन्होंने उसे सकारात्मक रूप से लिया। और उन्होंने उर्दू सीखने के लिए शिक्षक रखा और फिर उन्होंने ऐसा सीखा कि वह उर्दू पढ़ना-लिखना भी सीख लिया।
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