नई दिल्ली : अस्पतालों में भीड़-भाड़ वाले वार्ड, डॉक्टर और तीमारदार की कमी, मरीजों का ही एक-दूसरे का हाथ पकड़ कांपते हुए शौचालय जाना और इससे भी विद्रूप कि बगल में लोगों को मरते हुए देखना़.... हालांकि, ठीक हो कर कई मरीज घरों को लौटे चुके हैं लेकिन अस्पतालों की इन भयावह तस्वीरों ने उनके मनोपटल जो छाप छोड़ी है, वह उनके पूरी तरह ठीक होने में बाधक बनती जा रही है।
करीब एक साल हो चुके हैं महामारी शुरू हुए और दूसरी लहर में सकंट बढ़ने के बीच कई मरीज कोविड-19 का सामना कर घरों को लौट चुके हैं। लेकिन वे अस्पतालों की यादों को भुला नहीं पा रहे हैं जिसकी वजह से उनमें पीटीएसडी (पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिस्ऑर्डर), व्याकुलता और अनिद्रा जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं।
गुरुग्राम स्थित फोर्टिस हेल्थकेयर में मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार विज्ञान विभाग के निदेशक डॉ.समीर पारिख कहते हैं, ‘‘कोविड-19 को मात देकर अस्पतालों से बाहर आने वाले कई लोगों के लिए वे 'सुन्न करने वाले अनुभव' थे।' उन्होंने कहा कि ऐसे कोविड मरीजों को अस्पताल की यादें परेशान कर रही हैं जो ठीक होते दिखाई दे रहे हैं लेकिन हो सकता है कि वे केवल बाहर से ठीक हो रहे हैं।
पहचान गुप्त रखते हुए कोविड-19 को मात देने वाली दिल्ली की एक गृहणी ने बताया, 'शायद ही किसी डॉक्टर ने पहले दो दिन तक हमारी सुध ली। हम उस कोविड-19 वार्ड में छह -महिला और पुरुष मरीज-लोग थे। हम अस्पताल कर्मियों का ध्यान आकर्षित कराने के लिए प्लास्टिक की बोतलें दरवाजे पर फेंकते थे। मैंने तीन लोगों को अपने बगल में मरते देखा।'
इस महिला की उम्र 57 साल है और दिल्ली के सरकारी अस्पताल में पांच दिन तक भर्ती रहने के बाद छुट्टी पाकर अब वह धीरे-धीरे अपनी ताकत जुटा रही हैं। उन्होंने अस्पताल में बिताए समय को रोंगटे खड़े करने वाला बताया। महिला ने कहा, 'हमें शौचालय तक ले जाने के लिए कोई नहीं था। हम मरीज ही एक-दूसरे का हाथ पकड़कर शौचालय तक जाते थे जो महिलाओं-पुरुषों के लिए एक ही था और बहुत गंदा था।'
महिला ने बताया, 'जब हमारे बगल के बिस्तर पर भर्ती बुजुर्ग मरीज बार-बार अपना ऑक्सीजन मास्क हटा रहा था तब वार्ड ब्वॉय ने चिल्लाते हुए कहा, अंकल जी, इससे हमें फर्क नहीं पड़ेगा, इसलिए आप ऐसा करते रह सकते हैं।' अस्पताल से आए एक महीने होने के बावजूद वह इस बात से परेशान हैं कि उनकी बगल वाले बिस्तर पर भर्ती महिला का क्या हुआ?
समाज शास्त्री संजय श्रीवास्तव कहते हैं, 'ऐसा लगता है कि इस महामारी का कोई जवाब नहीं है। इससे आम तौर पर सामाजिक व्याकुलता, अविश्वास एवं मनोवैज्ञानिक अस्थिरता पैदा हो रही है।'
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