कुन्दन सिंह
विशेष संवाददाता, टॉइम्स नाउ नवभारत
नई दिल्ली: राजनीति में कम ऐसे मौके आते हैं जब दो धुर विरोधी दल किसी मुद्दे पर सुर में सुर मिलाये साथ ही मंच भी साझा करे पर जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर सोमवार को जब बिहार के तमाम राजनीतिक दल के नेता जब दिल्ली के साउथ ब्लॉक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करने पहुंचे तो नजारा कुछ ऐसा ही था। बिहार के मुखिया नीतीश कुमार हो या फिर नेता विपक्ष तेजस्वी यादव और उनके साथ में लेफ्ट से लेकर धुर विरोधी रही एआईएमआईएम के विधायक हो।
पीएम से मुलाकात के बाद मीडिया से बात करते हुए तमाम नेताओं ने एक सुर में कहा कि हमने प्रधानमंत्री से इस बार के जनगणना में जाति के आकड़ें भी जुटाने की मांग रखी। साथ ही इसको लेकर बिहार विधानसभा में दो बार सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी पारित किया जा चुका हैं।
हालांकि इस मामले में न केवल बिहार के राजनीतिक दल बल्कि यूपी में समाजवादी समेत बहुजन समाज पार्टी हो या फिर राजभर से लेकर निषाद जैसी छोटी पार्टियां अपने अपने स्तर पर इसकी मांग कर चुकी हैं। ऐसे में सवाल उठता हैं कि क्या वाकई इसकी जरुरत हैं या फिर आने वाले चुनावो में 2022 से यूपी समेत राज्यों के चुनाव से लेकर 24 के लोकसभा चुनावों तक ओबीसी राजनीति करने वाली दलो के तरफ से इस मांग को पुरजोर तरीके से उठाया जायेगा या फिर इन चुनावो से पहले सरकार की तरफ से कोई बड़ा ऐलान किया जा सकता हैं। राजनीतिक दल इस मांग को अपने नफा नुकसान के नजरिये से देखते हैं इस मामले में सामाजिक और राजनीतिक वैज्ञानिको की राय बंटी हुई है।
जवाहर लाल नेहरू युनिवर्सटी से समाज शास्त्र के विभागाध्यक्ष रहे प्रोफेसर आंनद कहते हैं कि किसी भी समाज को जानने के लिए जरुरी हैं उसके बारे में जाना जाये। समाज को जानने और समझने के लिए जातिगत जनगणना जरूरी है लेकिन उसका आधार राजनीतिक न हो। इस देश में बहुत सारे जनगणना और आंकड़े गैरराजनीतिक उपयोग के लिए इकट्ठा की जाती हैं जैसे बच्चों की जनगणना, कुपोषण विकलांगता, साक्षरता जैसे तमाम आंकड़े हैं जिन्हें जिला सांख्यिकी सूचना कार्यालय के द्वारा साथ ही मौके दर मौके दूसरी एजेंसियों के माध्यम से सरकार सामाजिक और जातिगत आंकड़े जुटाती हैं लेकिन उनका उपयोग राजनीतिक महत्व के लिए नहीं किया जाता है। सरकार को इन आंकड़ों का उपयोग जातियों को गोलबंद करने के लिए नहीं बल्कि उनके उत्थान और सामाजिक ताने-बाने को समझने के लिए किया जाए। आजादी से पहले 1871 से लेकर 1931 तक 50 साल तक जाति जनगणना की गई थी उसके पीछे मकसद बांटो और राज करो की नीति रही थी। ना कि उनका कोई विकास, इस देश में जाति एक सामाजिक सच्चाई है पर जब इसका उपयोग राजनीति गोलबंदी कर राजनीतिक पार्टियां इन्हें वोट बैंक के तौर पर देखती है तो इससे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे कमतर होते है।
इधर सीएसडीएस के प्रोफेसर और राजनीतिक विशलेषक प्रो संजय कुमार इसे दूसरे तरीके से देखते हैं प्रोफेसर कुमार का मानना है की पोस्ट मंडल के बाद में जो देश में ओबीसी राजनीति उभरी थी उसका एक बार फिर उसे पुनर्गठित करने का प्रयास है। यही वजह है कि बिहार जैसे प्रदेश में इस मुद्दे पर धुर विरोधी राजनीतिक पार्टियां भी आज एक मंच पर आकर गोलबंद हो रही है इधर बीते कुछ सालों में ओबीसी में खास नीचे का एक तबका बीजेपी के साथ गया है जो कि रीजनल पार्टियों के लिए शुभ संकेत नहीं हैं ऐसे में ओबीसी समाज के मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाकर कर यह संदेश देने की कोशिश की ओबीसी की असल शुभचिंतक वही है। इस सवाल के जवाब में कि जाति आधारित जनगणना से देश में सामाजिक विघटन होगा इस पर संजय कुमार कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि जाति के आधार पर गोलबंद होना राष्ट्रीय हित के खिलाफ है यह दोनों साथ साथ लेकर चल सकते हैं बीते कुछ समय से बीजेपी इस जातिगत राजनीति पर हिंदुत्व का पर्दा डालकर ओबीसी को अपने खेमे में लाने में सफल रही हैं वही उस जगह को वापस लाने की रीजनल पार्टियों की कोशिश हैं।
इधर प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह की राय इन दोनो से अलग हैं सिंह मानते है कि सत्ता पाने के लिए राजनीतिक दल न जाने कितने निष्ठुर हो सकते हैं इसका अंदाजा तक नहीं हैं मंडल के बाद का घाव अभी भरा भी नहीं हैं कि एक बार फिर से उसे कुरेदने की कोशिश शुरु हो गई हैं अभी नहीं इसका असर आने वाले 10 सालों बाद पता चलेगा ऐसा नहीं कि सरकार कि संस्थाएं जातिगत जनगणना नहीं करती लेकिन उनका आधार उनका मकसद वोट बैंक नहीं होता बल्कि और दूसरे काम होते हैं।
एन के सिंह कहते हैं कि अगर बीजेपी को लगने लगा कि ओबीसी जनगणना जैसे मुद्दें पर विपक्ष उसे राजनीतिक नुकसान पहुंचा सकता हैं ऐसे में फिर बीजेपी फिर ओबीसी के भीतर में लाभांवित जातियों को अलग कर बाकी के वंचित जातियों को गोलबंद करने का काम करने साथ में आरक्षण और दूसरी सरकारी योजनाओं में ज्यादा हिस्सेदारी देने जैसे निर्णयों के आधार पर ओबीसी की गोलबंदी करने की कोशिश करेगी। ऐसे में ये साफ हैं कि आने वाले चुनाव का एपीसेंटर ओबीसी के इर्दगिर्द ही रहने वाला हैं, 2022 में अगर दांव उल्टा पड़ा तो 2024 से पहले पहले बीजेपी ओबीसी जनगणना को रीडिफाइन करने की कोशिश जरुर करेगी।
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