Independence Day 2022: आजादी की 75वीं वर्षगांठ का जश्न पूरा देश मना रहा है। इन 75 साल में भारत ने कई उपलब्धियां हासिल की है। अंग्रेजों के साथ लड़ाई में कई ऐसे नायक हुए हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सब कुछ न्यौछावर कर दिया। हालांकि इन नायकों की कहानियां समय के साथ थोड़ी धुंधली हो गई हैं। आइए इन गुम नायकों की कुर्बानियों को भी हम आज याद करें..
दुर्गावती देवी
दुर्गावती देवी, जिन्हें दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है, उनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद के एक गुजराती परिवार में हुआ था। ग्यारह साल की उम्र में उनका विवाह भगवती चरण वोहरा से हुआ था। उनके पति वोहरा ने आगे पढ़ने का हौसला बढ़ाया। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से प्रभाकर (हिंदी में ऑनर्स) की परीक्षा पास की और एक स्कूल में हिंदी की शिक्षिका बन गई। वह नौजवान भारत सभा की एक सक्रिय सदस्य बन गईं। अंग्रेज सॉन्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह की पत्नी बनकर लाहौर से भागने में मदद की। अपने पति की शहादत के बाद, उन्होंने खुद क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। यहां तक कि बॉम्बे में एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी को भी गोली मार दी। उन्होंने लखनऊ में शहीद स्मारक की स्थापना की और वहां एक मोंटेसरी स्कूल खोला। बाद में वह अपने बेटे सचिन्द्र वोहरा के साथ गाजियाबाद में बस गईं। 15 अक्टूबर 1999 को 92 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
केशव प्रसाद
बिहार के गया के रहने वाले केशव प्रसाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के सदस्य थे। उन्हें गया में विस्फोटक और हथियार जब्ती की घटना के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। गया षडयंत्र मामले में उन पर मुकदमा चलाया गया और 1933 में उन्हें सात साल जेल की सजा सुनाई गई। बाद में उन्हें अंडमान निर्वासित कर दिया गया। अंडमान में 37 दिनों तक चली भूख हड़ताल में शामिल हुए 1938 में केशव प्रसाद को रिहा कर दिया गया। 1942 में भारत छोड़ों आंदोलन के दौरान वह फिर गिरफ्तार हो गए। सत्तर के दशक में वे आध्यात्मिक हो गए और वृंदावन में बस गए।
अजायब सिंह
अजायब सिंह अमृतसर जिले के नंदपुर गांव के रहने वाले थे। वह ब्रिटिश भारतीय सेना की 21 कैवलरी के सदस्य थे। अजैब सिंह की रेजिमेंट द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने से पहले मेरठ में तैनात थी। वहां तैनात सैनिक गदर पार्टी की समाजवादी शाखा के अंग कीर्ति अखबार पढ़ते थे। उनके दिमाग कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे और उनमें से कुछ ब्रिटिश शासन के मुखर विरोधी बन गए। नवम्बर 1939 में रेजिमेंट को सिकंदराबाद जाने का आदेश दिया गया।
इस बीच ऐसी खबर फैल गई कि ब्रिटिश सरकार इन सैनिकों को मिस्र भेज देगी। कुछ सैनिकों को यात्रा शुरू करने से पहले क्वार्टर गार्ड की जांच करने के लिए नियुक्त किया गया था। अजायब सिंह नंदपुर, साधु सिंह, बिशन सिंह बुट्टर और गुरचरण सिंह चुगावां ने आदेशों का पालन करने से इनकार कर दिया। यह सूचना सिपाहियों में शीघ्र ही फैल गई, और उन सब ने मिस्र जाने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों ने सिकंदराबाद की त्रिमुलघेरी जेल में 108 सैनिकों को कैद कर लिया, जिसे भारतीय मुख्य भूमि का सेलुलर जेल भी कहा जाता था। अजायब सिंह पर सशस्त्र बलों के विद्रोह को उकसाने का आरोप लगाया गया और मौत की सजा सुनाई गई। 6 सितंबर 1940 को उन्हें सिकंदराबाद जेल में फांसी दे दी गई।
मीर कादिर अली
मीर कादिर अली उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। उनका जन्म 28 फरवरी 1822 को कालपी में हुआ था। उन्हें अंग्रेज सैनिकों की हत्या का दोषी ठहराया गया था और जालौन में उनके सहयोगियों जैसे रोशन अली, शेख अजमत अली, चौधरी मुकुंद सिंह और कुंवर भरत सिंह के साथ गिरफ्तार किया गया था। 07 जनवरी 1858 को उन सभी को उपायुक्त श्री टर्नर की अदालत में पेश होना पड़ा। जहां उनके चाचा मीर कयाम अली और उनके बेटे मीर फरजंद अली, मीर कुर्बान अली और मीर सज्जाद अली ने उनके विरोध में खड़े होकर अंग्रेजों के पक्ष में बयान दिया। 10 मार्च 1858 को उन्हें कालापानी की सजा दी गई वह कालपी से कालापानी आने वाले पहले विद्रोही थे। कालपी में मीर कादिर अली की संपत्ति तुरंत जब्त कर ली गई।
अंबिका चक्रवर्ती
अविभाजित बंगाल के छत्ताग्राम जिले के बरमा गांव के नंदकुमार चक्रवर्ती के पुत्र थे। वह स्वतंत्रता सेनानी सूर्य सेन के संपर्क में आए और एक सीक्रेट ग्रुप का गठन किया। इसकी शुरुआत एबी रेलवे कैश वैन पर बिना एक भी गोली चलाए डकैती से हुई। चटगांव विद्रोह के दिन (18 अप्रैल 1930) उन्होंने टेलीफोन और टेलीग्राफ कार्यालय पर हमले का नेतृत्व किया। जलालाबाद संघर्ष में वह गंभीर रूप से घायल हो गए।और कुछ दिनों बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमे में, उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और सेलुलर जेल में कठोर कारावास का सामना करना पड़ा। 1946 में रिहा हुए, वह कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए।
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