नई दिल्ली: भारत चीन संबंधों का इतिहास यही बताता है कि भारत को चीन पर भरोसा नहीं करना चाहिए और क्यों नहीं करना चाहिए इसको समझने के लिए दोनों देशों के 70 सालों के संक्षिप्त इतिहास को समझना जरूरी होगा।
भारत चीन के 70 साल का संक्षिप्त इतिहास
1947 में पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वंत्रत भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और ठीक दो साल बाद 1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में पीपल्स रिपब्लिक चाइना की स्थापना हुई। चूँकि नेहरू का झुकाव वामपंथ की ओर था और चीन एक पड़ोसी देश है इसलिए नेहरू ने सबसे पहले दोस्ती का हाथ चीन की बढ़ाया। उस समय चीन विश्व पटल पर अलग थलग था जबकि नेहरू ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक पहचान बना चुके थे। साथ ही दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया विचारधारा के आधार पर दो भागों में बंट चुकी थी एक का नेता अमेरिका और दूसरे का सोविएत संघ। लेकिन नेहरू एक तीसरे रास्ते पर चलना चाह रहे थे हालांकि दोनों महाशक्ति को भ्रम था कि नेहरू हमारी तरफ आएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नेहरू ने अपने आदर्शवाद और एक अलग पहचान को रखते हुए गुट निरपेक्षता का राह चुना जिसमें एशिया और अफ्रीका के बहुत सारे वो देश थे जिन्हें उसी समय ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिली थी।
दोस्ती का नाटक
ऐसी परिस्थिति में नेहरू ने चीन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और चीन के नेता भी अंदर से पता नहीं पर ऊपर से दोस्ती का स्वांग रचना जरूर शुरू कर दिया। दोस्ती की खातिर नेहरू ने जापान के साथ वार्ता में शामिल इसलिए नहीं हुए क्योंकि उस वार्ता में चीन को निमंत्रित नहीं किया गया था. इतना ही नहीं बल्कि एक समय ऐसा भी आया जब भारत को चीन की जगह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता ऑफर की गयी लेकिन नेहरू ने यह कह कर ठुकरा दिया कि ये सदस्यता चीन को मिलनी चाहिए और वही हुआ। इस बात की पुष्टि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ शशि थरूर की किताब से भी होती है। नेहरू ने ऐसा क्यों किया आज भी ये अनसुलझा सवाल है।
भारत आज तक सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य नहीं बन पाया है और भारत को नहीं बनने देने में सबसे बड़ा रोड़ा वही चीन है जिसे नेहरू ने सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलाई थी। खास बात ये है कि चार अन्य स्थायी सदस्य अमेरिका , रूस, फ्रांस और ब्रिटैन भारत के पक्ष में है। उसके बाद चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। बात यहीं पर ख़त्म नहीं हुई बल्कि चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया और लद्दाख के अक्साई चीन पर कब्ज़ा कर लिया। जब ये सब कुछ होने के बाद नेहरू का कहना था कि चीन ने भारत के पीठ में छुड़ा घोंपा है। एक के बाद एक घटना घटती गयी फिर भी नेहरू समझ क्यों नहीं पा रहे थे? क्योंकि नेहरू को लगता था कि हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा हमें सच्चे अर्थों में चीन का भाई बना देगा लेकिन चीन हमेशा इसका उल्टा सोचता था लेकिन बोलता नहीं था समय के इंतजार में रहता था।
चीन को लेकर पटेल ने नेहरू को किया था आगाह
हालांकि भारत के तत्कालीन उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन की मंशा को भाँप गए थे और यही कारण है कि पटेल ने बार बार नेहरू को आगाह भी किया था बल्कि पटेल ने अपनी मृत्यु से एक महीने पहले ही यानी 7 नवंबर 1950 को प्रधानमंत्री नेहरू को चिठ्ठी लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन नेहरू को पटेल की बातों पर भरोसा क्यों नहीं हुआ? आज भी इसका उत्तर हर भारतीय जानना चाहता है।
कायदे से नेहरू को पटेल की बातों पर भरोसा करना था ना कि चीन पर। बल्कि हद तो तब हो गयी जब 1959 में दलाई लामा तिब्बत से भाग कर भारत की शरण में आ गए। शायद तब भी नेहरू को चीन पर भरोसा रहा होगा कि चीन इसके आगे नहीं बढ़ेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं चीन ने 1962 में भारत पर सीधे सीधे आक्रमण कर दिया और भारत को भारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। तब जाकर नेहरू को पता चला कि चीन ने भारत के पीठ में छुड़ा घोंप दिया है। परिणाम ये हुआ कि भारत हार का सामना तो करना ही पड़ा साथ ही चीन ने अक्साई पर कब्ज़ा भी कर लिया। उतना ही नहीं बल्कि तभी से चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा ठोकना शुरू कर दिया। और नेहरू जिसे भाई समझते थे उसी भाई ने भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर और निरीह भी बना दिया।
नेहरू का वामपंथ की तरफ झुकाव
कहा जाता है कि जिस अमेरिका पर नेहरू भरोसा नहीं करते थे 1962 के युद्ध में उसी अमेरिका से सैन्य सहायता की गुहार लगाई और अमेरिका ने भारत की मदद की। सच तो ये है अमेरिका शुरू से ही भारत से मित्रता चाहता था और इसका कारण साफ़ था कि चूँकि भारत एक लोकतान्त्रिक देश था इसलिए अमेरिका को उम्मीद थी कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और अमेरिका दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के बीच नेचुरल दोस्ती होगी लेकिन ऐसा कहा जाता है कि नेहरू के वामपंथी झुकाव की वजह से ऐसा नहीं हो पाया। एक स्पेक्युलेटिव सवाल आज भी पूछा जाता है कि यदि भारत अमेरिका की तरफ होता तो क्या चीन 1962 में भारत पर आक्रमण करने की जुर्रत कर पाता? ये है भारत चीन के संबंधों के इतिहास का पृष्ठभूमि। ये भी पढ़ें: चीनी घुसपैठ पर राहुल गांधी का सवाल, नामग्याल ने दिया जवाब-'हां चीन ने कब्जा किया...'
भारत चीन के बीच अनसुलझे सवाल
असली सवाल अब आता है कि क्या भारत को चीन पर भरोसा करना चाहिए? जिस सम्बन्ध का आधार ही विश्वास घात हो तो वैसे आधार पर भविष्य का सम्बन्ध कैसा बनेगा? आज भी वही हो रहा है पिछले 70 साल से कूटनैतिक सम्बन्ध है लेकिन एक भी मुद्दे का आज तक समाधान नहीं हो पाया है। क्या आक्साई चीन पर कोई समाधान हो पाया? क्या बॉर्डर की समस्या का समाधान हो पाया? दर्जनों मीटिंग हो गए मिला क्या?
चीन का बिज़नेस ट्रैप
हाँ एक बात जरूर हुई कि चीन भारत का लार्जेस्ट ट्रेडिंग पार्टनर जरूर बन गया और चीन हमेशा अपना बिज़नेस इंटरेस्ट को बढ़ाता रहा और भारत आसानी से चीन के बिज़नेस ट्रैप में फंसता गया। आज भारत की निर्भरता चीन पर इतनी ज्यादा हो गयी है कि भारत के लिए उस ट्रैप को तोड़ना असंभव सा हो गया है।
चीन के स्वभाव और चरित्र को समझने के लिए निम्नलिखित 6 बातों को गहराई से समझना बहुत जरुरी है
पहला, 1950 के दशक में चीन को दुनिया में कोई खास अहमियत नहीं था लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नेहरू चीन को भाई मान बैठे थे जबकि चीन ने भारत को भाई तो दूर दोस्त तक कभी नहीं माना। लेकिन नेहरू चीन के स्वभाव और चरित्र को समझने में पूरी तरह असफल रहे। नेहरू एक आदर्शवादी विचारधारा और अंतर्राष्ट्रीय छवि को ढोने का प्रयास कर रहे थे। शायद इस बात को समझ नहीं पाए कि विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रिय हित या नेशनल इंटरेस्ट से बड़ा कुछ नहीं होता। पहले राष्ट्रिय हित आता है उसके बाद ही क्षेत्रीय हित या अंतर्राष्ट्रीय हित. लेकिन चीन ने अपने राष्ट्रिय को साधने के लिए नेहरू को अपना माध्यम बनाया और उसमें चीन पूरी तरह सफल रहा। थोड़ी देर के लिए सोचिए कि यदि भारत उसी समय सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन गया होता तो क्या वो भारत के हित में नहीं होता। अब चीन का खेल देखिए सबसे पहले तिब्बत को कब्ज़ा कर लिया वो तिब्बत भारत और चीन के बीच एक बफर कंट्री था जैसा कि भारत और चीन के बीच नेपाल है और यदि तिब्बत एक स्वतंत्र देश होता तो भारत के हित को कितना साधता और यदि उसी समय नेहरू अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने स्टेचर को प्रयोग किये होते और चीन के खिलाफ एक मुहिम छेड़े होते तो स्थितियां कुछ और बनती लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। और चीन का मन बढ़ता गया साथ ही नेहरू के स्वाभाव को भी समझ गया। इसी का परिणाम हुआ कि चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण कर दिया। सबसे बुरी बात ये हुई कि चीन समझ गया कि कुछ भी करो भारत मान लेगा जिसका खामियाजा भारत आज भी भुगत रहा है। ये भी पढ़ें: देश और दुनिया में ये हैं सबसे अधिक महंगे शहर, भारत में मुंबई सबसे आगे, जानिए सस्ता कौन
दूसरा, उसके बाद से ही चीन ने भारत को साउथ एशिया में उलझा दिया। चीन ने पाकिस्तान से दोस्ती सिर्फ भारत को घेरने के लिए ही की जिससे जम्मू और कश्मीर के मुद्दे पर भारत पाकिस्तान के साथ उलझा रहे और आज तक वही होता आ रहा है. आज भी चीन पाकिस्तान को तरह तरह के हथियार दे रहा है बल्कि न्यूक्लियर कंट्री तक बना दिया। इतना ही नहीं बल्कि चीन संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान के आतंकवादियों का समर्थन भी करता रहा है।
तीसरा, हरेक इंटरनेशनल फोरम में भारत के एंट्री को रोकने का प्रयास किया है। चाहे संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य्ता की बात हो या न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की। सबसे बड़ी विडम्बना तो ये है कि चीन का कंडीशन होता है कि यदि भारत की एंट्री होगा तो पाकिस्तान की भी होनी चाहिए। हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जी 7 में शामिल होने के लिए भारत को आमंत्रित किया है तब से चीन को ऐसी मिर्ची लगी है कि वो शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा है। बल्कि चीन ने इस सन्दर्भ में भारत को धमकी देते हुए यहाँ तक कह डाला कि भारत आग से ना खेले।
चौथा, चीन हमेशा से ही भारत के हाई स्टेचर लीडर से चिढ़ता रहा है. जैसे चीन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से चिढ़ता था क्योंकि उनका स्टेचर इंटरनेशनल था। 1962 की लड़ाई का एक सबसे बड़ा कारण था नेहरू के इंटरनेशनल स्टेचर को डैमेज करना और चीन उसमें सफल हुआ भी। ये अलग बात है पंडित नेहरू अपने तथाकथित भाई के उस स्वभाव और चरित्र को समझ नहीं पाए।
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पांचवां, अब बात आती है डोकलाम और लद्दाख समस्या की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी से उन्होंने चीन के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखने का प्रयास करते रहे हैं। बल्कि नरेंद्र मोदी जबसे भारत के प्रधानमंत्री बने हैं तभी से चीन के साथ साथ अन्य सभी पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने का प्रयास करते रहे हैं. बल्कि चीन के नेता दो बार भारत की यात्रा भी कर चुके हैं। लेकिन चीन पहले डोकलाम की समस्या खड़ा किया जो 73 दिन तक चला और अब लद्दाख की समस्या को खड़ा कर दिया है। इसका मतलब क्या है? मतलब साफ़ है पहला, चीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बढ़ते हुए इंटरनेशनल स्टेचर से चिढ़ने लगा है इसलिए चीन चाहता है कि किसी तरह फिर से भारत को रीजनल क्राइसिस में इस तरह से फंसा दो कि उसी में उलझ के रह जाए।
छठा, चीन इस भ्रम में है कि जैसे उसने 1962 में किया वैसे ही फिर से करेगा। लेकिन 1962 में भारत के प्रधानमंत्री नेहरू थे जो अपने ही आदर्शवाद में जीते थे और यथार्थवाद से कोसों दूर थे. 2020 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जो हार्ड कोर यथार्थवादी हैं और राष्ट्रीय हित सर्वोपरि पर विश्वास करने वाले हैं। साथ ही भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी एक ताकतवर देश के रूप में अपने को स्थापित कर चुका है। इसलिए ये कहना बेहतर होगा कि 1962 और 2020 के भारत में आकाश और पाताल का अंतर है और चीन इस सच्चाई को सीधे सीधे नकार नहीं सकता और यदि नकरेगा तो उसका परिणाम भयावह हो सकता है।
आखिर में उसी सवाल पर आते हैं कि क्या भारत को चीन पर कभी भरोसा करनी चाहिए?
भारत को चीन पर कभी भी भरोसा नहीं करना चाहिए क्योंकि किसी भी देश के विदेश नीति में सिर्फ राष्ट्रीय हित ही स्थायी होता है ना कि दोस्त। इसीलिए भारत को भी अपने हित को सर्वोपरि रखते हुए चीन के साथ डील करना चाहिए। भारत चीन की बॉर्डर की समस्या वर्षों से है लेकिन आज तक कोई समाधान नहीं निकाला क्योंकि चीन का स्वभाव है कि पहले भारत की जमीन कब्ज़ा करो फिर भारत को वर्षों तक चलने वाली वार्ता में उलझा दो। चीन की इस मानसिकता को तोड़ना ही होगा। एक बात और भारत को चीन के उस मनोदशा को भी तोड़ना होगा कि भारत धीरे धीरे हर चीज सह लेगा यानी चीन जो करेगा भारत उसे मान लेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चीन की विस्तारवादी मनोदशा को हर हाल में तोड़ना ही होगा और साफ शब्दों में बताना होगा कि 2020 का भारत 1962 का भारत नहीं है।
(डिस्क्लेमर: लेखक टाइम्स नाउ में न्यूज एडिटर हैं। प्रस्तुत लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।)
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