President Election 2022: विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति (President Election) उम्मीदवार खड़ा करने की कोशिशों को बड़ा झटका लगा है। ममता बनर्जी की अगुआई में जिन तीन नामों के प्रस्ताव पर मुहर लगाने की कोशिश की गई, उन सभी ने मैदान से हाथ खींच लिया है। सबसे पहले एनसीपी प्रमुख शरद पवार (Sharad Pawar) फिर नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdulla) और अब महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी (Gopal Krishna Gandhi) ने उम्मीदवार बनने से इंकार कर दिया है। उम्मीदवारों के इस तरह इंकार पर शिवसेना ने अपने मुख पत्र सामना के जरिए कहा है कि लोग पूछ सकते हैं कि अगर विपक्ष आगामी राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक मजबूत उम्मीदवार नहीं खड़ा कर सकता है तो वह एक सक्षम प्रधानमंत्री कैसे देगा।
उम्मीदवारों के नाम वापसी से साफ है कि विपक्ष किसी एक उम्मीदवार का अभी तक भरोसा नहीं जीत पाया है। जो राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनने के लिए हामी भर सके। यही नहीं शुरूआत में बड़े जोर-शोर से विपक्ष का उम्मीदवार खड़ा करने की अगुआई कर रही ,तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के भी तेवर अब ढीले पड़ते दिख रहे हैं। ऐसी खबरें हैं कि वह शरद पवार द्वारा राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए बुलाई गई विपक्ष की बैठक में खुद भाग नहीं लेंगी। उनके जगह उनके भतीजे और पार्टी के वरिष्ठ नेता अभिषेक बनर्जी के इस बैठक में शामिल होने की संभावना है।
2024 के लिए साइडलाइन नहीं होना चाहते नेता
राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार से हाथ खींचने वाले शरद पवार और फारूक अब्दुल्ला के बयानों को देखा जाय, तो उससे साफ है कि वह 2024 में अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखना चाहते हैं। मसलन फारूक अब्दुल्ला ने अपना नाम वापस लेते हुए कहा कि जम्मू और कश्मीर एक अहम मोड़ से गुजर रहा है और इस अनिश्चित समय को पार करने में मदद करने के लिए मेरे प्रयासों की आवश्यकता है। मेरे आगे बहुत अधिक सक्रिय राजनीति है और मैं जम्मू-कश्मीर और देश की सेवा में सकारात्मक योगदान देने के लिए तत्पर हूं। जाहिर है कि राष्ट्रपति पद की रेस में आकर फारूक अब्दुल्ला जम्मू और कश्मीर की राजनीति से अलग-थलग नहीं पड़ना चाहते हैं। ऐसी संभावना है कि 2022 के अंत तक राज्य में चुनाव हो सकते हैं।
इसी तरह शरद पवार ने भी राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनने से मना कर दिया है। शरद पवार यह अच्छी जानते हैं कि कमजोर विपक्ष के लिए राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतना आसान नहीं है। दूसरी तरफ महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी सरकार में एनसीपी प्रमुख साझेदार है। अगर वह राष्ट्रपति के रेस में शामिल होते हैं, तो उसका सीधा असर महाराष्ट्र की राजनीति पर पड़ेगा। खास तौर पर जब एनसीपी के दो नेता अनिल देशमुख और मंत्री नवाब मलिक भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में हैं। इसके साथ ही अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार पेश करना होगा, तो उस वक्त शरद पवार की वरिष्ठता आम सहमति बनाने में काम आ सकती है।
कांग्रेस ने अभी तक नहीं की पहल
अभी तक राष्ट्रपति पद को लेकर विपक्ष के तरफ से ममता बनर्जी ने ही ज्यादा तत्परता दिखाई है। हालांकि उनकी इस कवायद से वाम दलों से लेकर दूसरे दलों में नाराजगी भी दिखी थी। दलों का मानना था कि ममता बनर्जी ने बिना सलाह किए मीटिंग बुला ली। इसके अलावा विपक्ष के सबसे बड़े दल कांग्रेस का भी रवैया अभी तक ढीला-ढाला रहा है। पहले तो उसने अभी तक अपने नेतृत्व में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर कोई पहल नहीं की है। दूसरी अहम बात ममता की मीटिंग में राहुल गांधी खुद नहीं गए थे। बल्कि जयराम रमेश सहित दूसरे नेता पहुंचे थे।
इसके अलावा बुलावे के बावजूद आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, बीजू जनता दल ने ममता बनर्जी की मीटिंग से दूरी बना ले थी। वहीं बसपा, तेलगुदेशम पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस जैसे दल भी विपक्ष की इस कवायद से दूर हैं।
विपक्ष के जीतने के आसार कम
उम्मीदवारों के नाम वापस लेने की एक बड़ी वजह यह भी है कि अगले राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के पास पर्याप्त ताकत नहीं होना भी है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए NDA बहुमत के बेहद करीब है। उसे बहुमत पाने के लिए केवल 12-13 हजार वोटों की जरूरत है। इस बार के चुनाव में इलेक्टोरल कॉलेज में 4809 सदस्य शामिल है। इनमें लोकसभा के 543, राज्य सभा के 233 और विधानसभाओं के 4033 सदस्य वोटिंग प्रक्रिया में भाग लेंगे। इसके आधार पर चुनाव के लिए 10.86 लाख से ज्यादा वोट वैल्यू होगी। इसमें से बहुमत के लिए करीब 5.43 लाख से ज्यादा वोटों की जरूरत पड़ेगी। और एनडीए के पास 48 फीसदी से ज्यादा वोट हैं। वहीं अन्य दलों के पास 52 फीसदी वोट हैं। लेकिन इस 52 फीसदी वोट में यूपीए और अन्य दल शामिल हैं। जिनकी एकजुटता की संभावना बेहद कम है। खास तौर पर बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस की भाजपा से नजदीकी देखते हुए, ऐसा होना और मुश्किल नजर आता है। इसके अलावा बसपा और तेलगुदेशम पार्टी का भी रूख विपक्ष के साथ तालमेल खाता नहीं दिख रहा है।
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