राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सर संघचालक मोहन भागवत के पिछले एक साल के ये तीन बयान, अपने आप में एक नए बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं। बयानों से साफ है कि RSS उस छवि को बदलना चाहता है, जिसमें विपक्षी दल और कई बुद्धजीवी वर्ग उसे मुस्लिम विरोधी कहते हैं। साथ ही इस बात का दावा करते हैं कि RSS भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है। छवि बदलने की इस रणनीति में मोहन भागवत का दिल्ली की एक मस्जिद में जाकर इमाम और मुस्लिम बुद्धजीवियों से मिलना और उसके कुछ दिन पहले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी और दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग सहित कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मुलाकात करने के बड़े सियासी मायने हैं।
इन मुलाकातों से साफ है कि आरएसएस, हिंदू-मुस्लिम समाज के बीच बनी दूरी को कम करना चाहता है। अगर ऐसा होता है तो इसका सामाजिक और राजनीतिक असर पड़ना स्वाभाविक है। और इसका सबसे बड़ा फायदा भाजपा को 2024 के लोक सभा चुनाव में मिल सकता है। खास तौर पर जब बीते जुलाई में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साफ तौर पर कह चुके हैं कि पार्टी को गैर हिंदू धर्म के पिछड़े तबके में पैठ बनानी चाहिए। इसका सीधा अर्थ है कि पार्टी अब मुस्लिमों को लुभाना चाहती है।
आरएसएस ने बनाया मुस्लिम मोर्चा
आरएसएस ने मुस्लिम समुदाय में अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बनाया हुआ है। जिसके पैटर्न इंद्रेश कुमार हैं। इसके अलावा न्यूज एजेंसी आईएएनएस के अनुसार आरएसएस ने मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोगों से संवाद के लिए एक समिति भी बनाई है। जिसमें इंद्रेश कुमार, कृष्ण गोपाल, मनमोहन वैद्य और रामलाल जैसे वरिष्ठ नेता शामिल हैं। मोहन भागवत की मीटिंग पर न्यूज एजेंसी से बात करते हुए
क्यों मुसलमानों का साथ जरूरी
अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के लाल किले से दिए गए भाषण को देखा जाया, तो उन्होंने 5 प्रण की बात कही है। और उस 5 प्रण में सबसे पहला सपना विकसित भारत का है। जिसके लिए उन्होंने एक और प्रण 'एकता और एकजुटता की बात कही है।'
और यह तभी संभव है जब 20 करोड़ मुस्लिम आबादी का भाजपा और आरएसएस को लेकर संशय खत्म हो। अगर ऐसा होता है तो भाजपा के लिए अपना वोट बढ़ाना आसान हो जाएगा। और उसके लिए तीसरी बार केंद्र की सत्ता में वापसी करना भी संभव हो जाएगा। और वह अपने आर्थिक, कूटनीति एजेंडे को भी जारी रख सकेगी।
दक्षिण भारत में पार्टी लगाना चाहती है सेंध
असल में भाजपा ने भले ही 2019 के लोक सभा चुनाव में 303 सीटें जीती थी। लेकिन दक्षिण भारत में उसका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा था। उसके पास आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल से कोई भी लोक सभा सांसद नहीं है। जबकि इन तीन राज्यों में 84 सीटें आती हैं। वहीं तेलंगाना में 4 सीटें उसे मिली थी। यानी इन 4 राज्यों की 101 लोक सभा सीटों में से भाजपा केवल 4 सीट जीत पाई थी। अगर उसे इन राज्यों में अपनी पैठ बढ़ानी है, तो साफ है कि उसे मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाना होगा। क्योंकि इन राज्यों में 6-25 फीसदी के बीच मुस्लिम आबादी है। और वह कई सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं।
राज्य | मुस्लिम आबादी | लोक सभा सीट | 2019 में भाजपा की सीट |
तेलंगाना | 12.7 फीसदी | 14 | 4 |
आंध्र प्रदेश | 10 फीसदी | 25 | 0 |
केरल | 26.56 फीसदी | 20 | 0 |
तमिलनाडु | 5 फीसदी | 39 | 0 |
उत्तर और पश्चिम भारत में अपने पीक पर है भाजपा
2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को 37.4 फीसदी वोट मिले थे। जबकि एनडीए को 45 फीसदी वोट मिले थे। जब भाजपा के इतिहास में अब तक का सबसे ज्यादा वोट हैं। अगर राज्यवार प्रदर्शन देखा जाय तो 6 राज्य ऐसे हैं जहां पर उसने सभी सीटें जीत ली थी। इसमें गुजरात, राजस्थान (एक सीट सहयोगी दल राष्ट्रीय लोकतांत्रित पार्टी), हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश हैं। इन राज्यों में कुल 79 सीटें हैं।
वहीं मध्य प्रदेश में 29 में से 27 सीटों पर जीत मिली थी। जबकि बिहार से एनडीए को 40 में से 39 सीट मिली थी। जिसमें भाजपा को 17 सीटें मिली थी। और झारखंड में पार्टी को 14 में से 11 सीटें मिल गईं थी। यानी 162 सीटों में से 134 सीटें उसे हिंदी भाषी राज्यों से मिली थीं।
जबकि पूर्वोत्तर भारत की 25 सीटों में से उसे 14 सीटों पर जीत मिली थी। इसी तरह महाराष्ट्र की 48 में से 41 सीटों पर भाजपा-शिवसेना के गठबंधन ने जीत हासिल की थी। वहीं पश्चिम बंगाल में उसे 18 सीटों पर जीत मिली थी इन परिस्थितियों भाजपा के लिए इन राज्यों में भाजपा के लिए ज्यादा उम्मीद करना बेमानी होगा। इसीलिए वह अभी उन 144 सीटों पर फोकस कर रही हैं, जिसमें भाजपा को हार मिली थी। अहम बात यह है कि इन 144 में 96 सीटें दक्षिण भारत के 4 राज्यों में ही हैं। जहां पर मुस्लिम आबादी बेहद निर्णायक है।
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