Teachers Day 2022: कहानी उन गुरुओं की जिनकी छत्रछाया में शिवाजी बने छत्रपति, नरेंद्रनाथ बने विवेकानंद, मोहनदास बने महात्मा और सावरकर बने 'वीर'

Teachers Day 2022: स्वामी विवेकानंद की जिंदगी में अगर रामकृष्ण परमहंस नहीं तो वो नरेंद्रनाथ दत्त के नाम से ही जाने जाते। शायद वो एक साधारण इंसान ही होते, विवेकानंद तो कभी नहीं बन पाते।

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शिक्षक दिवस 2022  |  तस्वीर साभार: BCCL
मुख्य बातें
  • स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस थे
  • छत्रपति शिवाजी महाराज के दो गुरु थे
  • शिवाजी महाराज की तरह ही महात्मा गांधी के भी दो गुरु थे।

Teachers Day 2022: कहा जाता है कि गुरु बिन ज्ञान नहीं...अर्थात हरेक की जिंदगी में एक गुरु की आवश्यकता तो होती ही है। गुरु न तो होते तो अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कौन बनाता, युधिष्ठिर को धर्म का ज्ञान कहां से आता, आदि शंकराचार्य न होते तो भारत के संतों को कौन एकजुट करता? महर्षि सांदीपनि नहींं होते तो कान्हा, भगवान श्रीकृष्ण कैसे बनते, चाणक्य के बिना चंद्रगुप्त मौर्य होते? जवाब है नहीं...बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं है। इसलिए गुरु के बारे में कहा जाता है...आचार्य देवो भव: अर्थात- शिक्षक ईश्वर के समान होता है। तो आइए जानते हैं उन गुरुओं के बारे में जिन्होंने शिवाजी को छत्रपति, नरेंद्रनाथ को विवेकानंद, मोहनदास को महात्मा और सावरकर को वीर बनाया।

छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु

छत्रपति शिवाजी महाराज के दो गुरु थे। एक जिन्होंने उन्हें शुरूआती पढ़ाई से लेकर युद्ध तक का ज्ञान दिया तो दूसरे गुरु ने उन्हें आध्यात्म का ज्ञान दिया। बचपन में शिवाजी की कमान उनके गुरु दादोजी कोंडदेव के पास रही। इस दौरान शिवाजी अपनी मां जीजाबाई की सख्त देखरेख में भी रहे। दादोजी कोंडदेव ने शिवाजी को एक प्रशासक और एक कुशल सैनिक बनाया। उन्हें राजकाज से लेकर युद्ध तक की शिक्षा दी।दादोजी कोंडदेव के बारे में कहा जाता है कि वो चकबंदी के काम में बहुत ही ज्ञानी थे। उन्होंने पूना में कृषि के क्षेत्र में कई बड़े सुधार किए थे। साथ ही न्याय के मामले में एकदम से सख्त थे। कुछ भी हो जाएगा, न्याय के पथ से नहीं हटते थे।

गुरु के लिए ले आए शेरनी का दूध

शिवाजी महाराज के आध्यात्मिक गुरु थे- समर्थ गुरु रामदास। दादोजी कोंडदेव से शिक्षा ग्रहण करने के बाद शिवाजी समर्थ गुरु रामदास के पास पहुंचे। वहां उन्होंने आध्यात्म के साथ-साथ शासन-प्रशासन चलाने की भी शिक्षा ली। एक दिन  गुरु रामदास के पेट में दर्द उठा और पूछने पर उन्होंने शिवाजी को बताया कि वो सिर्फ शेरनी के दूध से ठीक हो सकते हैं। गुरु भक्त शिवाजी तुरंत उठे और शेरनी की गुफा में चले गए। उनसे याचणा की और शेरनी का दूध ले आए। बाद में गुरु रामदास ने कहा कि वो अपने शिष्यों की परीक्षा ले रहे थे।

स्वामी विवेकानंद के गुरु

बालक नरेंद्रनाथ दत्त एक बंगाली कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे। पिता की मृत्यु के बाद तर्क करने की इच्छा लेकर नरेंद्रनाथ, रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे थे। नरेंद्रनाथ को देखते ही रामकृष्ण उनकी बुद्धिमता के बारे में समझ गए थे और उन्होंने नरेंद्रनाथ को अपना शिष्य बना लिया। इसके बाद नरेंद्रनाथ, स्वामी विवेकानंद बन गए। जिनकी ख्याति पूरे विश्व में फैली। आध्यात्म को जिस नजरिए से रामकृष्ण परमहंस ने देखा, वो अपने आप में एक अलग विचार था, एक अलग ही अलौकिक शक्ति थी। 

जब विवेकानंद को तपस्या का मतलब समझाया

हुआ यूं कि विवेकानंद हिमालय पर जाकर तपस्या करना चाह रहे थे, गुरु के पास आज्ञा लेने के लिए पहुंचे। तब रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि यहां लोग भूख से तड़प रहे हैं और तुम हिमाचल में जाकर तपस्या करना चाहते हो? पहले यहां की समस्या को दूर करो, यहां के अंधकार को खत्म करो। जिसके बाद स्वामी विवेकानंद दरिद्र नारायण की सेवा में लग गए।

बापू के गुरु

राष्ट्रपति महात्मा गांधी के भी दो गुरु थे। एक राजनीतिक, दूसरे आध्यात्मकि। मोहनदास करमचंद गांधी जब अफ्रीका में वकालत कर रहे थे, तब उनकी मुलाकात गोपाल कृष्ण गोखले से हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर गांधी, भारत की आजादी की लड़ाई में जुड़े और भारत वापस आ गए। गांधी ने खुद गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु बताया है। गोखले, मोहम्मद अली जिन्ना के भी गुरु थे। 

गोपाल कृष्ण गोखले के अलावा बापू के एक आध्यात्मिक गुरु भी थे। जिन्होंने बापू को आध्यात्म का ज्ञान दिया था। श्रीमद राजचंद्र, गांधी के आध्यात्मिक गुरु थे। बापू अक्सर कहा करते थे कि उनके जीवन में जो बदलाव आया है वो गुरु श्रीमद राजचंद्र जी के कारण ही था। राजचंद्र एक जैन संत थे। वो एक कवि, दार्शनिक, स्कॉलर और रिफॉर्मर थे। गुजरात के मोरबी में पैदा हुए थे। उन्होंने सात साल की आयु में ही दावा किया था कि उन्हें पिछले जन्म की बातें याद है। 

सावरकर के गुरु

वीर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक को अपना गुरु मानते थे। जब वो इंग्लैड से पढ़ाई करके वापस लौटे और भारत में काम करना शुरू किया तो वो तिलक की पार्टी स्वराज में शामिल हो गए।  बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर ही सावरकर को 1906 में श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली थी, जिसके कारण वो इंग्लैंड में पढ़ाई कर सके। भारत लौटने पर उन्होंने बाल गंगाधर तिलक से राजनीति की बारीकियां सीखीं। उनसे भारत को समझा और आगे चलकर अपनी खुद की पार्टी हिन्दू महासभा बनाई और आगे आजादी की लड़ाई लड़े।

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